सोमवार, 20 मार्च 2023

हिन्दू स्त्रियों के सम्पत्ति -सम्बन्धी अधिकार (1.) स्त्रीधन क्या है?

प्राचीनकाल की अन्य सभ्यताओं की तरह ही भारतीय समाज भी पुरुषप्रधान था, जिसमें सम्पत्ति के उत्तराधिकार की पितृवंशीय व्यवस्था थी। इसके अंतर्गत किसी भी वंश या परिवार की संयुक्त सम्पत्ति (जो कि प्रायः कृषि भूमि के रूप में होती थी) पितामह से पिता को और उससे पुत्रों को प्राप्त होती थी। आज स्थिति बदल चुकी है। बेटियों को भी बेटों के ही समान पैतृक सम्पत्ति का उत्तराधिकार दिलाने वाला संशोधन लागू हो चुका है। लेकिन अब भी अधिकाँश महिलाओं को अपने आर्थिक अधिकारों के विषय में ज्ञान नहीं है। यह लेख स्त्रियों को उनके अधिकारों के विषय मेन जागरुक करने का एक प्रयास है। 

स्त्रीधन क्या है? स्त्रीधन किसे कहते हैं?

स्त्रीधन उस धन को कहते हैं, जो स्त्रियों को उपहारस्वरूप अपने घरवालों, रिश्तेदारों और दोस्तों से प्राप्त होती हैं। हिंदू मैरिज एक्ट के अनुसार, स्त्रीधन वे चीजें हैं, जो महिला को उसके जीवन में मिलती हैं। इसमें सभी प्रकार की चल-अचल सम्पत्ति जैसे नकद, गहने, बचतें (एफडी आदि), इनवेस्टमेंट, उपहार में मिली प्रॉपर्टी आदि शामिल हैं। माता-पिता, भाई-बहन द्वारा शादी से पहले और शादी में मिले उपहारों के अलावा सास-ससुर द्वारा पहनाए गए गहने और उपहार भी स्त्रीधन हैं। महिलाओं को शादी से पहले, शादी के समय, बच्चे के जन्म के समय और विधवा होने के दौरान जो भी चीजें उपहारस्वरूप मिलती हैं, वे सभी स्त्रीधन के अंतर्गत गिनी जाती हैं।

स्त्रीधन दहेज़ से किस प्रकार भिन्न है?

स्त्रीधन प्राचीनकाल से ही स्त्रियों का प्रमुख आर्थिक अधिकार रहा है। बाद में इसके नाम पर वर पक्ष वाले वधूपक्ष वालों से धन की माँग करने लगे, जिसने कालान्तर में दहेज़ का रूप ले लिया। जबकि स्त्रीधन दहेज़ नहीं है । यह विवाह के समय वधू को उसके बन्धु-बान्धवों, सहेलियों, माता-पिता और रिश्तेदारों द्वारा स्वेच्छा से दिया गया उपहार और नकदी आदि है । इसे कानूनन वैधता प्राप्त है और इस पर स्त्रियों का स्वामित्व होता है। देखा जाता है कि दहेज़ भले ही दिया जाय वधू के नाम से लेकिन उस पर ससुराल वाले अधिकार स्थापित कर लेते हैं, जबकि स्त्रीधन पूरी तरह स्त्रियों का अधिकार है।

वेदों में स्त्रीधन का उल्लेख

स्त्रीधन की परम्परा प्राचीन काल से ही चली आ रही है। ऋग्वेद के दसवें मंडल में विवाह-सम्बन्धी दो मंत्रों में वधू के साथ वर के घर के लिए उपहार और पशु आदि भेजने का वर्णन है। इसका भावार्थ इस प्रकार है "सूर्य के पतिगृह-गमन काल में सूर्य ने  पुत्री के प्रति स्नेहरूप जो धन स्रवित किया, उसे पहले ही भेज दिया था। मघा नक्षत्र में विदाई के समय दी गई गौवों को हाँका गया तथा अर्जुनी अर्थात पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में कन्या को पति के गृह भेजा गया।" सायण ने इस मंत्र में "वहतुः" को गायों एवं अन्य पदार्थों के, जो विवाहित होने वाली कन्या को प्रसन्न करने के लिए दिए जाते हैं, के अर्थ में लिया है किंतु लेन्मेन ने इसे विवाहरथ के अर्थ में लिया है। काणे ने सायण को ही ठीक माना है।  इससे यह प्रतीत होता है कि प्राचीन काल से ही विवाह के समय कन्या को कुछ वस्तुएँ उपहार स्वरूप दी जाती थी जिन पर स्त्रियों का ही नियंत्रण होता था। धीरे-धीरे कालांतर में स्मृतियों आदि की व्यवस्थाओं के अनुसार उन पर स्त्रियों का ही पूर्णतः अधिकार होता गया।

 स्मृतियों के अनुसार स्त्रीधन

स्मृतियों में स्त्रीधन की कोई परिभाषा नहीं दी गयी है, मात्र उनमें सम्मिलित सम्पत्तियों की गणना की गयी है| स्त्रीधन का शाब्दिक अर्थ है "स्त्री की संपत्ति", किंतु प्राचीन स्मृतियों ने इसे सम्पत्ति के कुछ विशिष्ट प्रकारों तक सीमित कर दिया, जो स्त्रियों को विशिष्ट अवसरों पर प्रदान किए जाते थे और मुख्यतः उसके उपयोग की वस्तु होते थे। धीरे-धीरे यह प्रकार, विस्तार एवं मूल्य में बढ़ते गए। स्त्रीधन की एक विशेषता यह रही है कि गौतम के काल से आज तक यह प्रथमतः स्त्रियों को ही प्राप्त होता रहा है।

मनुस्मृति में स्त्रीधन का उल्लेख  

मनुस्मृति में निम्नलिखित वस्तुओं और धन को सम्मिलित किया गया है- 

1. विवाह काल में अग्नि साक्ष्य के समय पिता आदि के द्वारा दिया गया

2. पिता के घर से पति के घर लायी जाती हुई कन्या के लिए दिया गया

3. प्रेम सम्बन्धी किसी शुभ अवसर पर पति आदि के द्वारा दिया गया

4. भाई

5. माता और

6. पिता

- के द्वारा विभिन्न अवसरों पर दिया 6 प्रकार का धन स्त्रीधन कहलाता है। इस श्लोक से अगले श्लोक में मनु ने उपर्युक्त छह प्रकारों में एक प्रकार "अन्वाधेय" और जोड़ दिया जिसका अर्थ है "विवाह के बाद पति या पितृकुल में मिले हुए उपहार या धन।

याज्ञवल्क्य स्मृति में उपर्युक्त 6 प्रकारों के अतिरिक्त एक अन्य प्रकार "आधिवेदनिक" का भी उल्लेख किया गया है। आधिवेदनिक का अर्थ है “दूसरा विवाह करते समय पति द्वारा पहली स्त्री के संतोष के लिए प्रदत्त धन।“ याज्ञवल्क्य के अनुसार ‘पिता, माता, पति, भाई से प्रायः वैवाहिक अग्नि के समक्ष और अन्य पत्नी लाते समय आदि जो उपहार औरत को मिलता है, वह उसका स्त्रीधन है।’ इसी ‘आदि’ शब्द को लेकर याज्ञवल्क्य की स्मृति पर टीका लिखने वाले विज्ञानेश्वर ने स्त्रीधन की सूची और भी बढ़ा दी है।

मिताक्षरा के अनुसार स्त्रीधन की परिभाषा

मिताक्षरा के प्रणेता विज्ञानेश्वर ने याज्ञवल्क्य की परिभाषा लेकर स्त्रीधन की संख्या बढ़ा दी है। विज्ञानेश्वर ने ‘आदि’ शब्द को लेकर निम्नलिखित सम्पत्ति को भी स्त्रीधन कहा है-

1. दाय से मिली सम्पत्ति

3. विभाजन से मिली सम्पत्ति

2. खरीद कर ली गई सम्पत्ति

4. प्रतिकूल कब्जा से मिली सम्पत्ति

5. अन्य मिली हुई सम्पत्ति

 विज्ञानेश्वर आगे अपनी व्याख्या में कहते हैं कि स्त्रीधन शब्द का प्रयोग शाब्दिक अर्थ में किया है न कि क्रियात्मक अर्थ में अतएव मिताक्षरा के अनुसार जो भी सम्पत्ति औरत के अधिकार में है, वह उसकी स्त्रीधन सम्पत्ति है। आधुनिक काल में न्यायालयों ने स्मृतियों के टीकाकारों द्वारा स्थापित मान्यताओं को प्रामाणिकता दी। इस हेतु याज्ञवल्क्यस्मृति की टीका मिताक्षरा की व्याख्या को अपनाया गया, जिसमें स्त्रीधन की परिभाषा अत्यधिक विस्तृत प्रकार से दी गयी है। शिवशंकर बनाम देवी सहाय, 30IA 202 में प्रिवी काउन्सिल ने अभिनिर्धारित किया था कि यदि कोई स्त्री किसी सम्पत्ति को दाय के बंटवारे में प्राप्त करती है, तो वह स्त्रीधन की सम्पत्ति नहीं होगी।

स्त्रीधन के अंतर्गत आने वाली वस्तुएँ एवं धन

वर्तमान में स्मृतियों और टीकाओं में उल्लिखित प्रावधानों और लोक परम्पराओं के आधार पर स्त्रीधन में निम्नलिखित वस्तुएँ सम्मिलित की जाती हैं.-

1.       विवाह में फेरों के समय दिए गये उपहार नकदी आदि

2.       पीहर से ससुराल जाते समय वधू को मिले उपहार

3.       आशीर्वाद और प्यार स्वरूप वधू को मिले उपहार

4.       सास-ससुर के प्रेमपूर्वक वधू को दिए गये उपहार

5.       वधू के बड़ों के पैर छूने और मुँह दिखाई की रस्म में मिले नकदी और उपहार

6.       वधू के अपने माता-पिता, भाई-बहन से मिले उपहार नकदी आदि

7.       वधू को शादी के समय वरपक्ष की ओर से मिले उपहार

8.       वर द्वारा वधू को प्रदत्त उपहार

9.       वधू के माता-पिता के रिश्तेदारों के दिये गये उपहार, नकदी (मामा, चाचा, मौसी आदि के द्वारा)

10.    विवाह के समय यदि वधू पक्ष द्वारा कुछ उपहार जैसे फर्नीचर, पलंग, टीवी आदि वधू के निमित्त दिया जाता है

11.    वधू की व्यक्तिगत बचत, खारीदारी, प्रॉपर्टी यदि उसके नाम हो, तो उसकी आमदनी भी स्त्रीधन है।

 स्त्रीधन पर किसका स्वामित्व होता है?

प्राचीनकाल में स्त्रीधन पर स्वामित्व स्त्री का ही होता था, चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित, वह उसका मनोनुकूल उपयोग कर सकती थी। काणे ने कात्यायन स्मृति के आधार पर स्त्री के स्त्रीधन पर स्वामित्व को इस प्रकार वर्णित किया है “अविवाहित स्त्री सभी प्रकार के स्त्रीधन का उपभोग अपनी इच्छा अनुसार कर सकती थी। विधवा स्त्री पति द्वारा प्रदत्त अचल संपत्ति को छोड़कर सभी प्रकार के स्त्रीधन का लेन-देन कर सकती है, किंतु सधवा स्त्री केवल सौदायिक ( पति को छोड़कर अन्य लोगों से प्राप्त दान) को ही मनोनुकूल स्वेच्छा से व्यय कर सकती है” स्त्रीधन को सामान्य अवस्था में कोई अन्य नहीं ले सकता था, किंतु कुछ विशेष परिस्थितियों में पति स्त्रीधन को ले सकता था या। याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार दुर्भिक्ष के समय, धर्मकार्य में, रोग में और बंदी होने पर लिए गए स्त्रीधन को पति स्त्री को पुनः देने का भागी नहीं होता। मनु कन्या-विक्रय की भर्त्सना के प्रसंग में स्त्रीधन को लेने की निंदा करते हैं। वे कहते हैं कि जो बांधवगण स्त्री के धन को लालच वर्ष ले लेते हैं वे पापी अधोगति को प्राप्त होते हैं।

आधुनिककाल में न्यायालयों ने विभिन्न वादों में यह निर्धारित किया है कि स्त्रीधन पर स्वामित्व स्त्री का ही होता है। राजम्मा बनाम बरदराजनुलू [ए० आई० आर० 1957, मद्रास 198 ] के मामले में कहा गया है कि हिन्दू स्त्री को विवाह के पहले और विवाह के समय मिले उपहार उसके स्त्रीधन होते हैं। प्रतिभारानी बनाम सूरज कुमार, [ ए० आई० आर० 1985 सु० को० 628 ] के वाद में यह निर्धारित किया गया है कि जो भी सम्पत्ति पत्नी को उपहार में प्राप्त होती है, उस पर उसका एक मात्र अधिकार होता है।

स्त्रीधन की सुरक्षा करने वाले कानून                                      

आधुनिक काल में स्त्री धन की सुरक्षा करने वाला मुख्य कानून हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 का सेशन 14 है जिसे हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के सेक्शन 27 के साथ पढ़ा जाना चाहिए। इसके अनुसार एक हिंदू महिला की संपत्ति पर संपूर्ण स्वामित्व उसका ही होगा जिसमें स्त्रीधन भी सम्मिलित है। सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिभा रानी बनाम सूरज कुमार 1985(2)scc 370 के वाद में स्त्रीधन की अवधारणा को स्पष्ट कर दिया। एक हिंदू विवाहित स्त्री स्त्रीधन की संपूर्ण स्वामिनी होती है और उसका जैसे चाहे उपयोग कर सकती है, चाहे वह अपने पति और ससुराल वालों के अधीन हो। यदि ससुराल वाले उसके इस धन को आवश्यकता पड़ने पर उससे लेते हैं तो वह मात्र न्यासी समझे जाएंगे और जब वह मांगे तो उसे वापस कर देंगे।

इसी प्रकार कुछ अन्य कानून भी है जो, स्त्रीधन की सुरक्षा करते हैं। दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961 के अनुसार दहेज के लिए विज्ञापन देना पति या ससुराल वालों का दहेज में मिली स्त्रीधन को हड़पना एक अपराध करार दिया गया है। इस अपराध में 2 से 5 वर्ष तक की कारावास और 10 से ₹15000 तक के जुर्माने का प्रावधान है। इसी प्रकार भारतीय दंड संहिता की धारा 498a के अनुसार मानसिक क्रूरता के अंतर्गत ससुराल पक्ष वालों के द्वारा स्त्री धन हड़पना या वधु को अधिक धन लाने के लिए प्रताड़ित करना सम्मिलित है। यदि ससुराल वाले स्त्री धन को हड़पने हैं तो भारतीय दंड संहिता की धारा 405 और 406 के अंतर्गत दंड के भागी होते हैं।  घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 की धारा 12 महिलाओं को उन मामलों में स्त्रीधन का अधिकार प्रदान करती है जहाँ महिला घरेलू हिंसा का शिकार होती है स्त्रीधन की वसूली के लिए इस कानून के प्रावधानों को आसानी से लागू किया जा सकता है।

महिला अपने स्त्रीधन को कैसे प्राप्त कर सकती है?

स्त्रीधन पर स्त्रियों का स्वामित्व सुनिश्चित करने वाले तथा उसे सुरक्षित करने वाले उपर्युक्त कानूनों की सहायता से स्त्रियाँ अपने स्त्रीधन को सुरक्षित रख सकती हैं तथा उस पर अपना अधिकार माँग सकती हैं ।  

नोट- टिप्पणी में बताएँ कि आपको लेख कैसा लगा? यदि कोई आशंका या प्रश्न हो, तो वह भी पूछ सकते हैं

 






FAQs

1. हिन्दू स्त्रियों के आर्थिक अधिकार क्या हैं? 

2. स्त्रीधन किसे कहते हैं?

3. स्त्रीधन के अंतर्गत कौन-कौन सी चीज़ें आती हैं?

4. स्त्रीधन से सम्बन्धित कौन से कानून हैं?

5. स्त्रीधन पर किसका अधिकार होता है?

6. क्या स्त्रीधन प्राप्त करने के लिए न्यायालय में मुकदमा किया जा सकता है?

7. स्त्रीधन पर किसका कानूनी अधिकार है? 

8. महिलाओं के गहनों पर किसका अधिकार होता है?

9. क्या शादी में मिले गिफ्ट स्त्रीधन में आते हैं? 

10. स्त्रीधन इन हिन्दू लॉ? 

11. स्मृतियों में स्त्रीधन ?

12, प्राचीन भारत में महिलाओं के आर्थिक अधिकार क्या थे?

13. हिन्दू महिलाओं के सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार क्या हैं?

14. What is Stridhan in Hindu Law

15. stridhan kise kahate hain?


शुक्रवार, 10 मार्च 2023

प्राचीन भारत में स्त्रियों की स्थिति के सम्बन्ध में विभिन्न दृष्टिकोण


(प्रस्तुत लेख मेरे शोध-कार्य "मनुस्मृति एवं याज्ञवल्क्यस्मृति के नारी-संबंधी प्रावधानों का नारी-सशक्तीकरण पर प्रभाव" का अंश है. इसलिए अधूरा भी लग सकता है और हो सकता है कि कहीं और भी पढ़ा जा चुका है. वैसे सन्दर्भ-ग्रंथों के नाम भी दे दिए गए हैं)


प्राचीन भारत में स्त्रियों की दशा के विषय में इतिहासकारों के अलग-अलग दृष्टिकोण हैं. कुछ विचारक यह मानते हैं कि प्राचीनकाल में स्त्रियों की स्थिति बहुत अच्छी थी और उन्हें पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त थे. वहीं कुछ विचारक इस बात का विरोध करते हैं. उनका कहना है कि प्राचीनकाल मुख्यतः वैदिककाल में स्त्रियों की स्थिति को कुछ अधिक ही बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जाता है, जबकि सत्य यह है कि प्राचीन भारतीय समाज भी अन्य अनेक प्राचीन सभ्यताओं के समान ही पितृसत्तात्मक था. 

मुख्य रूप से इन ऐतिहासिक दृष्टिकोणों को चार श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है -
- राष्ट्रवादी दृष्टिकोण
- वामपंथी दृष्टिकोण
- नारीवादी दृष्टिकोण
- दलित लेखकों का दृष्टिकोण

जहाँ राष्ट्रवादी विचारक यह मानते हैं कि वैदिक-युग में भारत में नारी को उच्च-स्थिति प्राप्त थी. नारी की स्थिति में विभिन्न बाह्य कारणों से ह्रास हुआ. परिवर्तित परिस्थितियों के कारण ही नारी पर विभिन्न बन्धन लगा दिये गये जो कि उस युग में अपरिहार्य थे. इसी प्रकार वर्ण-व्यवस्था को भी कर्म पर आधारित और बाद के काल की अपेक्षा लचीला बताते हुये ये विचारक उसका बचाव करते हैं. वामपंथी विचारक राष्ट्रवादी विद्वानों के इन विचारों से सर्वथा असहमत हैं. उनके अनुसार स्त्रियों तथा शूद्रों की अधीन स्थिति तत्कालीन उच्च-वर्ग का षड्‌यंत्र है, जिससे वे वर्ग-संघर्ष को दबा सकें. उच्च-वर्ग अर्थात्‌ मुख्यतः ब्राह्मण (क्योंकि समाज के लिये नियम बनाने का कार्य ब्राह्मणों का ही था) शूद्रों को अस्पृश्यता के नाम पर तथा नारियों को परिवारवाद के नाम पर संगठित नहीं होने देना चाहते थे.

नारीवादी विचारक भी राष्ट्रवादी दृष्टिकोण का विरोध करते हैं. उनके अनुसार तत्कालीन सामाजिक ढाँचा पितृसत्तात्मक था और धर्मगुरुओं ने जानबूझकर नारी की अधीनता की स्थिति को बनाये रखा. ये विचारक यह भी नहीं मानते कि वैदिक युग में स्त्रियों की बहुत अच्छी थी, हाँ स्मृतिकाल से अच्छी थी, इस बात पर सहमत हैं. दलित विचारक स्मृतियों और विशेषतः मनुस्मृति के कटु आलोचक हैं. वे यह मानते हैं कि शूद्रों की युगों-युगों की दासता इन्हीं स्मृतियों के विविध प्रावधानों का परिणाम है. वे मनुस्मृति के प्रथम अध्याय के ३१वें[i] और ९१वें[ii] श्लोक का मुख्यतः विरोध करते हैं जिनमें क्रमशः शूद्रों की ब्रह्मा की जंघा से उत्पत्ति तथा सभी वर्णों की सेवा शूद्रों का कर्त्तव्य बताया गया है.

प्राचीन भारत में नारी की स्थिति के विषय में सबसे अधिक विस्तार से वर्णन राष्ट्रवादी विचारक ए.एस. अल्टेकर ने अपनी पुस्तक में किया है. उन्होंने नारी की शिक्षा, विेवाह तथा विवाह-विच्छेद, गृहस्थ जीवन, विधवा की स्थिति, नारी का सार्वजनिक जीवन, धार्मिक जीवन, सम्पत्ति के अधिकार,नारी का पहनावा और रहन-सहन, नारी के प्रति सामान्य दृष्टिकोण आदि पर प्रकाश डाला है. अल्टेकरके अनुसार प्राचीन भारत में वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति समाज और परिवार में उच्च थी, परन्तु पश्चातवर्ती काल में कई कारणों से उसकी स्थिति में ह्रास होता गया. परिवार के भीतर नारी की स्थिति में अवनति का प्रमुख कारण अल्टेकर अनार्य स्त्रियों का प्रवेश मानते हैं. वे नारी को संपत्ति का अधिकार न देने, नारी को शासन के पदों से दूर रखने, आर्यों द्वारा पुत्रोत्पत्ति की कामना करने आदि के पीछे के कारणों को जानने का प्रयास करते हैं तथा उन्होंने कई बातों का स्पष्टीकरण भी दिया है. उदाहरण के लिये उनके अनुसार महिलाओं को सम्पत्ति का अधिकार न देने का कारण यह है कि उनमें लड़ाकू क्षमता का अभाव होता है, जो कि सम्पत्ति की रक्षा के लिये आवश्यक होता है. इस प्रकारअल्टेकर ने उन अनेक बातों में भारतीय संस्कृति का पक्ष लिया है, जिसके लिये हमारी संस्कृति की आलोचना की जाती है. उन्होंने अपनी पुस्तक के प्रथम संस्करण की भूमिका में स्वयं यह स्वीकार किया है कि निष्पक्ष रहने के प्रयासों के पश्चात्‌ भी वे कहीं-कहीं प्राचीन संस्कृति के पक्ष में हो गये हैं.* प्रसिद्ध राष्ट्रवादी इतिहासकार आर. सी. दत्त ने भी अल्तेकर के दृष्टिकोण का समर्थन किया है उनकेअनुसार, "महिलाओं को पूरी तरह अलग-अलग रखना और उन पर पाबन्दियाँ लगाना हिन्दू परम्परानहीं थी. मुसलमानों के आने तक यह बातें बिल्कुल अजनबी थीं... . महिलाओं को ऐसी श्रेष्ठ स्थिति हिन्दुओं के अलावा और किसी प्राचीन राष्ट्र में नहीं दी गयी थी."[iii]शकुन्तला राव शास्त्री ने अपनी पुस्तक ‘वूमेन इन सेक्रेड लॉज़’ में इसी प्रकार के निष्कर्ष प्रस्तुत किये हैं.

आधुनिक काल के प्रमुख नारीवादी इतिहासकारों तथा विचारकों ने अल्टेकर और शास्त्री के उपर्युक्त स्पष्टीकरणों की आलोचना की है. आर.सी. दत्त के विरोध में प्रसिद्ध नारीवादी विचारक डा. उमाचक्रवर्ती कहती हैं, "... ... मनु तथा अन्य कानून-निर्माताओं ने लड़कियों की कम उम्र में ही शादी की हिमायत की थी. सातवीं सदी में हर्षवर्धन के प्राम्भिक काल से संबंधित विवरणों में सती-प्रथा उच्चजाति की महिलाओं के साथ साफ़ जुड़ी देखी जा सकती है. महिलाओं का अधीनीकरण सुनिश्चित करनेवाली संस्थाओं का ढाँचा अपने मूलरूप में मुस्लिम धर्म के उदय से भी काफ़ी पहले अस्तित्व में आ चुका था. इस्लाम के अनुयायियों का आना तो इन तमाम उत्पीड़क कुरीतियों को वैधता देने के लिये एक आसान बहाना भर है."[iv]

नारीवादी विचारकों ने यह माना है कि प्राचीन भारत में नारी की स्थिति में ह्रास का कारण हिन्दू समाज की पितृसत्तात्मक संरचना थी न कि कोई बाहरी कारण. इसके लिये नारीवादी विचारक प्रमुख दोष स्मृतियों के नारी-सम्बन्धी नकारात्मक प्रावधानों को देते हैं, क्योंकि तत्कालीन समाज में स्मृतिग्रन्थ सामाजिक आचार-संहिता के रूप में मान्य थे और उनमें लिखी बातों का जनजीवन पर व्यापक प्रभाव था. प्रमुख स्मृतियों में नारी-शिक्षा पर रोक, उनका कम उम्र में विवाह करने सम्बन्धी प्रावधान, उनको सम्पत्ति में समान अधिकार न देना आदि प्रावधानों के कारण समाज में स्त्रियों की स्थिति में अवनति होती गयी. नारीवादी विचारकों के अनुसार हमें अपनी कमियों का स्पष्टीकरण देने के स्थान पर उनको स्वीकार करना चाहिये ताकि वर्तमान में नारी की दशा में सुधार लाने के उपाय ढूँढे़ जा सकें.


सन्दर्भ :

* द पोजीशन ऑफ वूमेन इन हिन्दू सिविलाइजेशन, ए.एस. अल्तेकर, प्रकाशक-मोतीलाल बनारसी दास.
[i] “लोकानां तु विवृद्धि – अर्थं मुख- बाहु- ऊरु- पादतः
ब्राह्मणं क्षत्रिय वैश्यं शूद्रं च निरवर्तयत्‌“ १/३१ मनुस्मृति.
[ii] “एकम्‌ एव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्‌
एतेषाम्‌ एव वर्णानां शुश्रूषाम्‌ अनुसूयया“ १/९१ मनुस्मृति.
[iii] पृष्ठ संख्या २३, द सिविलाइजेशन ऑफ इण्डिया, आर.सी. दत्त, प्रकाशक-रूपा कंपनी, नई दिल्ली, २००२.
[iv] पृष्ठ संख्या १२९, अल्टेकेरियन अवधारणा के परे : प्रारंभिक भारतीय इतिहास में जेंडर संबंधों का नई समझ, उमा चक्रवर्ती, नारीवादी राजनीति, संघर्ष एवं मुद्दे, साधना आर्य, निवेदिता मेनन, जिनी लोकनीता, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, २००१.
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