मेरे एक मित्र ने कहा था कि "हिन्दुस्तान में नब्बे प्रतिशत संयुक्त परिवार इसलिए चल रहे हैं कि स्त्रियाँ 'सह' रही हैं, जिस दिन वे सहना छोड़ देंगी, परिवार भरभराकर ढह जायेंगे." उन्होंने उस मंदिर का जिक्र किया, जहाँ विधवा-विधुर और तलाकशुदा स्त्रियों और पुरुषों का विवाह करवाने के लिए उनके माता-पिता और सम्बन्धी नाम दर्ज कराते हैं. मुझे आश्चर्य हुआ कि ऐसी भी जगहें होती हैं. उन्होंने कहा कि वहाँ ज़्यादा संख्या तलाकशुदा लोगों की ही थी. और तलाक क्यों बढ़ रहे हैं उसका कारण भी उन्होंने यही दिया क्योंकि अब बहुत सी लड़कियाँ 'सह' नहीं रही हैं. पहले लड़कियाँ 'किसी भी तरह' निभाती रहती थीं, वैसे ही जैसे पिछली पीढ़ी संयुक्त परिवार की ज़िम्मेदारियाँ निभा रही है.
मैं मानती हूँ कि यह सच है कि स्त्रियाँ अब 'जैसे-तैसे' अपना गृहस्थ जीवन खींचना नहीं चाहतीं, जीना चाहती हैं. इसलिए उन्होंने 'लड़की की मायके से डोली उठती है और ससुराल से अर्थी' वाली कहावत को मानने से इंकार कर दिया है. लेकिन कितने प्रतिशत लड़कियों ने? यह सोचने की बात है.
तलाक सिर्फ इसलिए नहीं हो रहे कि लड़कियों ने सहना छोड़ दिया है, बल्कि इसलिए भी कि परम्परागत विवाह (अरेंज्ड मैरिज) की प्रक्रिया ही सिरे से बकवास है. मेरी एक मित्र जो कि राज्य प्रशासनिक सेवा की ऑफिसर है, कई लड़कों को 'देख' चुकी है '(मिलना' शब्द यहाँ किसी भी तरह उपयुक्त लग ही नहीं रहा है) लेकिन वह समझ ही नहीं पाती कि एक-दो या ज़्यादा से ज़्यादा तीन घंटे की देखन-दिखाई, वह भी परिवार वालों के बीच किसी व्यक्ति को जीवनसाथी के रूप में परखने में किस प्रकार सहायक हो सकती है? यहाँ लड़का-लड़की दोनों का अहं भी आ जाता है. यदि वे बात करें और सामने वाले ने उसके बाद मना कर दिया तो उनकी तो बेइज्जती हो जायेगी. यह भी बात है कि कहीं एकतरफा लगाव हो गया और सामने से अस्वीकार, तो?
एक नहीं, हज़ार बातें हैं. उस पर भी इतने झूठ बोले जाते हैं परम्परागत विवाह के लिए कि पूछिए मत. मेरे उन्हीं मित्र ने एक बात और कही कि न जाने कितने तलाक तो एक-दूसरे के झूठ खुलने की वजह से होते हैं. दोनों ओर से एक-दूसरे के बारे में खूब बढ़ा-चढ़ाकर बातें की जाती हैं, जिनमें से आधी झूठ होती हैं. देख-परखकर विवाह करना अच्छी बात है, लेकिन उसका अवकाश तो मिले. कम से कम थोड़ी देर के लिए तो अकेले में बात कर सकें. वैसे मेरे विचार से तो उन्हें कई दिन तक बात करनी चाहिए जिससे एक-दूसरे के बारे में गहराई से जान सकें...लेकिन यहाँ पर एक तो लड़का-लड़की का अहं और ठुकराए जाने का डर होता है दूसरे "झूठ बोलकर रिश्ता लगवाने वाले" उनको ऐसा नहीं करने देना चाहते. आश्चर्य है कि अपने देश में ऐसे कूढ़मगज आज भी हैं. माफ कीजियेगा ऐसा कहने के लिए, लेकिन जीवन भर के साथ के लिए इस तरह से शुरुआत मुझे बहुत हास्यास्पद लगती है.
वास्तवकिता यह है कि हममें से कुछ लोग किसी न किसी तरह से जल्द से जल्द अपने बच्चों की शादी कर देना चाहते हैं बस. ये बात लड़के-लड़की दोनों के लिए एक जैसी है. अरेंज्ड शादियों में इतना अवकाश नहीं होता कि एक-दूसरे को ठीक से जान-समझ सकें. प्रेम विवाह में भी कभी-कभी पता नहीं चल पाता कि हम वास्तव में एक-दूसरे से प्रेम करते हैं या नहीं. लेकिन मेरे मित्र ने जिन लोगों का जिक्र किया था वे सभी अरेंज्ड यानि पारंपरिक विवाह के सताए हुए ही थे. माता-पिता ने बिना गहराई से जाँच-पड़ताल किये और बिना लड़का-लड़की को एक-दूसरे को समझने का मौका दिए विवाह कर दिया. जब वे दोनों वैवाहिक जीवन में मिले तो पाया कि वैसा कुछ भी नहीं था, जैसा उन्होंने सोचा था. फिर भी कोशिश की टूटे दिल और रिश्ते को बचाने की और जब निभाते-निभाते ऊब गए तो आखिर अलग होने का फैसला ले लिया. मित्र के मुताबिक़ कुछ शादियाँ छः महीनों में टूट गयीं.
मैं यह नहीं मानती कि विवाह जन्म-जन्मांतर का बंधन होते हैं, लेकिन किसी रिश्ते के टूटने पर दर्द तो होता ही है, गुस्सा और पछतावा भी होता है, खासकर के जब वह उस "तरीके" के अनुसार हुआ हो, जिसे हम भारतीय सबसे आदर्श विवाह मानते हैं- "शादी दो लोगों के बीच नहीं, दो परिवारों के बीच होती है" क्या कर पाते हैं परिवारवाले जब रिश्ता टूटता है तो? कुछ नहीं न? तो इसे इतना अनुल्लंघनीय क्यों बना दिया है उन्होंने? इसी को आदर्श विवाह क्यों मानते हैं? ये मान क्यों नहीं लेते कि इसमें खामियाँ हैं और यदि सुधार न हुआ तो इसी तरह से आपके बच्चे मानसिक संत्रास से गुजरते रहेंगे.
मेरे विचार से विवाह का निर्णय उन दोनों लोगों के लिए ही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होता है, जिन्हें एक-दूसरे के साथ जीवन बिताना है. इसलिए निर्णय भी उन्हीं को केन्द्र में रखकर लिया जाना चाहिए और सबसे बेहतर है कि निर्णय ही उन्हीं को लेने दिया जाय. ये बात माँ-बाप को बुरी लग सकती है, लेकिन बेहतर तो यही है. लड़का-लड़की को भी समझना चाहिए कि रात-दिन एक साथ रहकर ज़िंदगी उन्हें बाँटनी है, माँ-बाप को नहीं, इसलिए खुद निर्णय लें, भले ही इसके लिए माँ-बाप के विरुद्ध जाना पड़े. और बेशक, जब लगे कि नहीं निभनी है तो अलग हो जाएँ. कोई भी रिश्ता इतना महत्त्वपूर्ण नहीं होता कि उसे निभाने के लिए आप अपनी ज़िंदगी नरक बना लीजिए.
मैं मानती हूँ कि यह सच है कि स्त्रियाँ अब 'जैसे-तैसे' अपना गृहस्थ जीवन खींचना नहीं चाहतीं, जीना चाहती हैं. इसलिए उन्होंने 'लड़की की मायके से डोली उठती है और ससुराल से अर्थी' वाली कहावत को मानने से इंकार कर दिया है. लेकिन कितने प्रतिशत लड़कियों ने? यह सोचने की बात है.
तलाक सिर्फ इसलिए नहीं हो रहे कि लड़कियों ने सहना छोड़ दिया है, बल्कि इसलिए भी कि परम्परागत विवाह (अरेंज्ड मैरिज) की प्रक्रिया ही सिरे से बकवास है. मेरी एक मित्र जो कि राज्य प्रशासनिक सेवा की ऑफिसर है, कई लड़कों को 'देख' चुकी है '(मिलना' शब्द यहाँ किसी भी तरह उपयुक्त लग ही नहीं रहा है) लेकिन वह समझ ही नहीं पाती कि एक-दो या ज़्यादा से ज़्यादा तीन घंटे की देखन-दिखाई, वह भी परिवार वालों के बीच किसी व्यक्ति को जीवनसाथी के रूप में परखने में किस प्रकार सहायक हो सकती है? यहाँ लड़का-लड़की दोनों का अहं भी आ जाता है. यदि वे बात करें और सामने वाले ने उसके बाद मना कर दिया तो उनकी तो बेइज्जती हो जायेगी. यह भी बात है कि कहीं एकतरफा लगाव हो गया और सामने से अस्वीकार, तो?
एक नहीं, हज़ार बातें हैं. उस पर भी इतने झूठ बोले जाते हैं परम्परागत विवाह के लिए कि पूछिए मत. मेरे उन्हीं मित्र ने एक बात और कही कि न जाने कितने तलाक तो एक-दूसरे के झूठ खुलने की वजह से होते हैं. दोनों ओर से एक-दूसरे के बारे में खूब बढ़ा-चढ़ाकर बातें की जाती हैं, जिनमें से आधी झूठ होती हैं. देख-परखकर विवाह करना अच्छी बात है, लेकिन उसका अवकाश तो मिले. कम से कम थोड़ी देर के लिए तो अकेले में बात कर सकें. वैसे मेरे विचार से तो उन्हें कई दिन तक बात करनी चाहिए जिससे एक-दूसरे के बारे में गहराई से जान सकें...लेकिन यहाँ पर एक तो लड़का-लड़की का अहं और ठुकराए जाने का डर होता है दूसरे "झूठ बोलकर रिश्ता लगवाने वाले" उनको ऐसा नहीं करने देना चाहते. आश्चर्य है कि अपने देश में ऐसे कूढ़मगज आज भी हैं. माफ कीजियेगा ऐसा कहने के लिए, लेकिन जीवन भर के साथ के लिए इस तरह से शुरुआत मुझे बहुत हास्यास्पद लगती है.
वास्तवकिता यह है कि हममें से कुछ लोग किसी न किसी तरह से जल्द से जल्द अपने बच्चों की शादी कर देना चाहते हैं बस. ये बात लड़के-लड़की दोनों के लिए एक जैसी है. अरेंज्ड शादियों में इतना अवकाश नहीं होता कि एक-दूसरे को ठीक से जान-समझ सकें. प्रेम विवाह में भी कभी-कभी पता नहीं चल पाता कि हम वास्तव में एक-दूसरे से प्रेम करते हैं या नहीं. लेकिन मेरे मित्र ने जिन लोगों का जिक्र किया था वे सभी अरेंज्ड यानि पारंपरिक विवाह के सताए हुए ही थे. माता-पिता ने बिना गहराई से जाँच-पड़ताल किये और बिना लड़का-लड़की को एक-दूसरे को समझने का मौका दिए विवाह कर दिया. जब वे दोनों वैवाहिक जीवन में मिले तो पाया कि वैसा कुछ भी नहीं था, जैसा उन्होंने सोचा था. फिर भी कोशिश की टूटे दिल और रिश्ते को बचाने की और जब निभाते-निभाते ऊब गए तो आखिर अलग होने का फैसला ले लिया. मित्र के मुताबिक़ कुछ शादियाँ छः महीनों में टूट गयीं.
मैं यह नहीं मानती कि विवाह जन्म-जन्मांतर का बंधन होते हैं, लेकिन किसी रिश्ते के टूटने पर दर्द तो होता ही है, गुस्सा और पछतावा भी होता है, खासकर के जब वह उस "तरीके" के अनुसार हुआ हो, जिसे हम भारतीय सबसे आदर्श विवाह मानते हैं- "शादी दो लोगों के बीच नहीं, दो परिवारों के बीच होती है" क्या कर पाते हैं परिवारवाले जब रिश्ता टूटता है तो? कुछ नहीं न? तो इसे इतना अनुल्लंघनीय क्यों बना दिया है उन्होंने? इसी को आदर्श विवाह क्यों मानते हैं? ये मान क्यों नहीं लेते कि इसमें खामियाँ हैं और यदि सुधार न हुआ तो इसी तरह से आपके बच्चे मानसिक संत्रास से गुजरते रहेंगे.
मेरे विचार से विवाह का निर्णय उन दोनों लोगों के लिए ही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होता है, जिन्हें एक-दूसरे के साथ जीवन बिताना है. इसलिए निर्णय भी उन्हीं को केन्द्र में रखकर लिया जाना चाहिए और सबसे बेहतर है कि निर्णय ही उन्हीं को लेने दिया जाय. ये बात माँ-बाप को बुरी लग सकती है, लेकिन बेहतर तो यही है. लड़का-लड़की को भी समझना चाहिए कि रात-दिन एक साथ रहकर ज़िंदगी उन्हें बाँटनी है, माँ-बाप को नहीं, इसलिए खुद निर्णय लें, भले ही इसके लिए माँ-बाप के विरुद्ध जाना पड़े. और बेशक, जब लगे कि नहीं निभनी है तो अलग हो जाएँ. कोई भी रिश्ता इतना महत्त्वपूर्ण नहीं होता कि उसे निभाने के लिए आप अपनी ज़िंदगी नरक बना लीजिए.
झूठी तारीफ़ों की बात सच है ...ऐसा होता है । विवाह टूटने के कई कारण हैं । शायद अभिभावक अपने उत्तरदायित्वों को ठीक से निभा नहींं पा रहे हैं .....शादियाँ भी अब ज़्यादा उम्र में होती हैं .......उम्मीदवारों की पसन्द का भी ध्यान रखा जाना चाहिये अन्यथा उन्हें निर्णय में सहभागी बनाया ही जाना चाहिये ।
जवाब देंहटाएंबात यही है- उमीदवारों की पसंद की. उन्हें कहा तो जाता है कि तुम पसंद कर लो तभी बात आगे बढ़ाएं लेकिन दबाव बना दिया जाता है कि वे करें माँ-बाप की ही मर्ज़ी. बहुत सी कमियाँ हैं. इस पर बात होनी चाहिए और माता-पिता को थोड़ा उदार होना चाहिए.
हटाएंदीदी आपकी बाते सच्चाई के धरातल के बेहद करीब है..
जवाब देंहटाएंकई सारे कारण हैं मुक्ति शादी न निभने के । लेकिन ये हालात हैं भी बहुत खतरनाक क्योंकि परंपरागत विवाह ही नहीं लव मेरिजेज भी नहीं चल रही हैं । कहीं गहरे तक सोचा जाना ज़रूरी है इस विषय पर ।
जवाब देंहटाएंखतरनाक स्थिति नहीं है. स्त्री पुरुष को हमेशा एक-दूसरे की भी ज़रूरत रहेगी और बच्चों की भी. इसलिए ऐसा समय कभी नहीं आएगा कि विवाह होना ही बंद हो जायं. हाँ, उसका स्वरूप बदल सकता है.
हटाएंडॉ. शर्मा की बात से सहमत हूँ । नये सिरे से सोचने की आवश्यकता है ।
हटाएंमुक्ति जी ! इस धोखे में मत रहियेगा कि विवाह होना बन्द नहीं होंगे । लोग इस दिशा में चल पड़े हैं । नीना गुप्ता का उदाहरण सामने है । लड़कियाँ भी अब "लिव इन रेलेशनशिप" के बारे में गम्भीर हो रही हैं । कभी योरोप में ऐसा हो चुका है ....आज भी है । योरोपीय समाज में विवाह के बिना ही संतान उत्पन्न करने की लोकपर्म्परा के कारण ही तो चर्चों को उनके बच्चों की अतिरिक्त ज़िम्मेदारी लेनी पड़ी । चर्च का पास्टर इसी लिये उन सबका "फ़ादर" बन गया । आज भारतीय समाज बहुत तेज़ी से पश्चिम की ओर बढ़ता जा रहा है ........लिव इन रिलेशनशिप की ओर बढ़ता झुकाव कुछ अंतराल बाद विवाह नामक संस्था को चोट पहुँचा सकता है ।
मुझे नहीं लगता कि स्थिति इतनी भयावह है. मैं हॉस्टल में रही लड़की हूँ और कम से कम तीन सौ लड़कियों को पर्सनली जानती हूँ. उनमें से ज़्यादातर ने विवाह कर लिया है. पाँच प्रतिशत ने अभी नहीं किया है. लेकिन लिव इन के उदाहरण सिर्फ इक्का-दुक्का हैं, वे भी दिल्ली में और इस प्रतीक्षा में कि सब कुछ ठीक हो जाने पर विवाह कर लिया जाएगा. मतलब उनके लिए लिव इन सिर्फ कुछ समय तक के लिए है. लंबे समय तक के लिए नहीं.
हटाएंहाँ, महानगर में उच्च वर्गों के युवाओं के लिए यह बहुत बड़ी बात नहीं है, लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है. हमारे देश की आधे से ज़्यादा जनसंख्या गाँवों में रहती है यह क्यों भूल रहे हैं आप, जहाँ आज भी शादी के पहले लड़का-लड़की को मिलने तक की इजाज़त नहीं.
जैवीय दृष्टि से तयशुदा विवाह मात्र संतति संवहन का अनुष्ठान है -अगर दोनों जाने संतुष्ट हैं तो विवाह सफल
जवाब देंहटाएंअन्यथा असफल! प्रेम विवाह की असफलता भी अक्सर जैवीय संतुष्टि का पहलू लिए रहते हैं और बहाने कई दूसरे
बुने जाते हैं -
आप तो महाराज जैविक दृष्टि से ऊपर उठेंगे ही नहीं. ज़माना बहुत बदल गया है. हज़ार कारण हैं शादी टूटने के...
हटाएंजी सही है ! कार्पोरल-नीड कुछ समय बाद इतनी नहीं रहती ......तब अन्य फ़ैक्टर्स मनमुटाव के कारण बनते हैं .... वैचारिक, आर्थिक, सामाजिक ......यहाँ तक कि बेमेल आदतें भी ।
हटाएंकिंतु ये भी सच है की रिश्तों को टूटने से पहले कुछ समय देना चाहिए और परिवार (माता-पिता etc) इसके लिए एक net का काम कर सकती है। एकल परिवार में अहं का थोड़ा टकराव भी रिश्तों को एक ऐसे ढलान पे ल देता है जहाँ से स्थिति सम्हालना अहं के रहते संभव नहीं है ऐसे में परिवार की भूमिका है की वो नव जोड़ो को अपने रिश्ते को नए नजरिये से देखने के लिए समय,अवसर और सलाह दें. रिश्तों का तोड़ना हर हाल में आखिरी option होना चाहिए।
जवाब देंहटाएंकोई भी अकेले नहीं रहना चाहता और जिसके साथ है उससे दूर नहीं रहना चाहता. कोई भी रिश्ते को इतनी आसानी से नहीं तोड़ना चाहता. अति हो जाती है तभी सोचता है ऐसा करने के बारे में.
हटाएंपूरी तरह सहमत हूँ अराधना... आख़िर विवाह प्रथा शुरु क्यों हुई थी , क्या आज भी विवाह उन कसौटियों पर खरा उतर रहा है... थोड़ा रुककर ये सब सोचने की ज़रूरत है ... 'दम लगाकर हईशा' इसका बिल्कुल ताज़ा-तरीन उदाहरण है .
जवाब देंहटाएंबिल्कुल, सोचने की ही ज़रूरत है. 'दम लगाकर हईशा' में इस पक्ष पर प्रकाश डाला गया है कि कैसे झूठ बोलकर जबरन रिश्ते कराये जाते हैं. लड़के का बाप कहता है न कि अगर न की तो जूते पड़ेंगे. इस फिल्म की कहानी की पृष्ठभूमि पुरानी है, लेकिन विडंबना यह है कि बहुत से घरों में अब भी ऐसा ही होता है.
हटाएंsahmat hu
हटाएं"हिन्दुस्तान में नब्बे प्रतिशत संयुक्त परिवार इसलिए चल रहे हैं कि स्त्रियाँ 'सह' रही हैं।" मोहतरमा, हो सकता है कि इस वाक्य में आंशिक सच्चाई हो लेकिन दूसरे वाक्य "जिस दिन वे सहना छोड़ देंगी, परिवार भरभराकर ढह जायेंगे।" बिल्कुल गलत है क्योंकि आज संयुक्त परिवार टूटने का सबसे मुख्य कारण महिलायें ही है। पुरुषों की वजह से परिवार टूटे ऐसा कदाचित होता है। आप कह रही हैं कि "अरेंज्ड शादियों में इतना अवकाश नहीं होता कि एक-दूसरे को ठीक से जान-समझ सकें।" आज गांवों में भी हर व्यक्ति लड़का - लड़की देखे बिना शादी नहीं करता। इतना ही नहीं डेट पक्की होने के पहले ही नंबर वगैरह लेकर फोनियाना शुरू कर देता है। आप लम्बे अवकाश की जरुरत की ओर इसरा कर रही है , यह सही भी है लेकिन आपको बता दू कि जो लोग दो - तीन साल तक लिव इन टच में रहे फिर काफी समय तक लिव इन रिलेशन में रहे। ये लोग न सिर्फ वैचारिक रूप से बल्कि सार्वभौमिक रूप से एक दूसरे को समझे। मोहतरमा, लेकिन दुःख की बात है कि ऐसे ज्यादा समझदार लोगोँ कि भी शादियाँ टूट रही है।
जवाब देंहटाएंSahi kaha agar ye samasya purusho k karan hoti to parivar kab k tut jate
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