बहुत दिनों से मैं इस लेख पर अच्छी प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा कर रही थी. आज सोचा कि कुछ लिख ही लिया जाये. मेरे एक मित्र ने छेड़छाड़ की समस्या को एक मानसिक समस्या बताया है. मैं उनकी इस बात से बिल्कुल भी सहमत नहीं हूँ. यह समस्या केवल मनोवैज्ञानिक नहीं बल्कि सामाजिक समस्या है. अगर इस समस्या को केवल मनोवैज्ञानिक मान लें तो दुनिया के साठ से सत्तर प्रतिशत पुरुष मनोरोगी सिद्ध हो जायेंगे. यह इतनी सीधी-सादी सी बात नहीं है. जिस तरह भारत में दलितों की समस्या की जड़ें इसके इतिहास और सामाजिक ढाँचे में निहित हैं, उसी प्रकार पूरे विश्व में नारी की समाज में दोयम स्थिति की जड़ें भी इतिहास और समाज में हैं. ये बात अलग है कि यह समस्या अलग-अलग देशों और समाजों में भिन्न-भिन्न रूप और स्तर लिये हुये है. एक बात और है कि कुछ देशों और समाजों ने इस समस्या पर काफी पहले ध्यान दिया और इसे दूर करने के प्रयास भी किये. हमारे सामने स्कैंडेनेवियाई देशों का उदाहरण है, जहाँ लिंग-भेद दूर तो नहीं हुआ, पर अन्य स्थानों से कम ज़रूर है.
महिलाओं के साथ छेड़छाड़ की समस्या हमारे समाज में गहरे पैठी लिंग-भेद से ही उपजती है, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती. हम देखते हैं कि बचपन से ही लड़के और लड़की के पालन-पोषण में दो अलग-अलग मानदंडों का प्रयोग किया जाता है. जहाँ लड़कों को बहिर्मुखी गुणों की शिक्षा दी जाती है, लड़कियों को कोमल गुणों की. लड़के के रोने पर रोक लगायी जाती है और लड़कियों के ज़ोर से हँसने पर. यदि आप लोगों के व्यवहार पर सूक्ष्म दृष्टि डालें तो आप देखेंगे कि विशेषतः गावों में लोग छोटे लड़कों के जननांगों को तरह-तरह से पुकारते और लाड़ करते हैं. यह सामाजीकरण की एक विशेष प्रक्रिया है, जिससे लड़कों में बचपन से ही एक उच्च्तर भावना आ जाती है जिसे अंग्रेजी में सुपीरियरिटी काम्प्लेक्स कहते हैं और लड़कियों में हीन-भावना आ जाती है. क्योंकि वे सोचती हैं कि कोई ऐसी चीज़ लड़कों के पास है जो उनके पास नहीं है. यदि आप सीमोन द बुआ की सेकेन्ड सेक्स पढ़ें तो ये सब बातें आपको और अधिक स्पष्ट हो जायेंगी. धीरे-धीरे यही ग्रन्थि आगे चलकर लड़कों में अपने शरीर के प्रति एक ख़ास तरह का अहंकार पैदा करती है और वे बात-बात में अपनी शारीरिक शक्ति का प्रदर्शन करने लगते हैं. लड़कों द्वारा लड़कियों से छेड़छाड़ के पीछे उनकी यही मानसिकता है. इसके द्वारा वे खुद को लड़कियों से श्रेष्ठ दिखाना चाहते हैं.
इस प्रकार भले ही यह समस्या मनोवैज्ञानिक हो पर इसके मूल में सामाजीकरण की प्रक्रिया है. इस प्रकार दोष किसी एक पुरुष या समाज के किसी एक हिस्से का नहीं बल्कि पूरे सामाजिक ढाँचे का है. मज़े की बात यह है कि माँ-बाप कब अपने बच्चे में ये ग्रन्थि पैदा कर देते हैं उन्हें खुद ही नहीं मालूम होता क्योंकि ये तो हमेशा से होता आया है और हमारे समाज की संरचना में रचा-बसा है. मैं मानती हूँ कि और भी बातें हो सकती हैं जो इस समस्या को गंभीर बना देती हैं. और बहुत बार एक व्यक्ति के व्यक्तित्व पर भी कुछ निर्भर करता है. पर सामान्यतः छेड़छाड़ की समस्या सामाजिक है और यदि हम अपने बच्चों के पालन-पोषण में कुछ बातों का ध्यान रखें तो इसे दूर भी कर सकते हैं.
शनिवार, 19 सितंबर 2009
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मै अपनी बात आदिम समाज से प्रारम्भ करता हूँ जब स्त्रियाँ भी पुरुष के साथ शिकार पर जाती थीं और भोजन प्रबन्धन मे उनका बराबर की भागीदारी होती थी । लेकिन समस्या तब आती थी जब स्त्री गर्भवती हो जाती और शारीरिक रूप से उसके लिये दौड़ना असम्भव होता । उसे कुछ माह विवशतावश घर मे ही रहना पड़ता था । पुरुष का वर्चस्व यहाँ से प्रारम्भ हुआ और अपने शरीर के प्रति अहंकार भी क्योंकि उसका शरीर हर समय भोजन प्रबन्धन के लिये उपस्थित होता था । यौनिन्द्रियों वाली बात मुझे उचित नही प्रतीत होती क्योंकि स्त्री के पास पुरुष से अधिक सम्पदा होती है इसलिये हीन भावना तो पुरुष के पास होती है और यही हीन भावना उसे स्त्री को छेड़ने के लिये प्रेरित करती है । कुछ और भी कारन हैं पुरुष का समूह मे होना और पति के रूप मे स्वयं को स्त्री का स्वामी समझना । इस विषय पर मेरी एक लम्बी कविता है "पुरुष" कभी ब्लॉग पर दूंगा -शरद कोकास
जवाब देंहटाएंआपकी बात सही है। ये समस्या मनौवैज्ञानिक कम और सामाजिक ज़्यादा है। शरद कोकस की जानकारी से भी यही साबित होता है कि इसकी शुरुआत कही न कही समाज से ही जुड़ी हुई हैं। लेकिन, आज भी कई ऐसे समाज ख़ासकर आदिवासी समाज मौजूद है जहाँ महिलाओं का वर्चस्व है।
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