शुक्रवार, 18 जून 2010

लिंग समानता बनाम नारी-सशक्तीकरण

    ये पोस्ट मेरे शोध कार्य का अंश है. मैं इस विषय पर शोध कर रही हूँ कि किस प्रकार हमारे धर्मशास्त्रों ने नारी-सशक्तीकरण पर प्रभाव डाला है? क्या ये प्रभाव मात्र नकारात्मक है अथवा सकारात्मक भी है? जहाँ एक ओर हम मनुस्मृति के "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते" वाला श्लोक उद्धृत करके ये बताने का प्रयास करते हैं कि हमारे देश में प्राचीनकाल में नारी की पूजा की जाती थी, वहीं कई दूसरे ऐसे श्लोक हैं (न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति आदि) जिन्हें नारी के विरुद्ध उद्धृत किया जाता है और ये माना जाता है कि इस तरह के श्लोकों ने पुरुषों को बढ़ावा दिया कि वे औरतों को अपने अधीन बनाए रखने को मान्य ठहरा सकें. मेरे शोध का उद्देश्य यह पता लगाना है कि इन धर्मशास्त्रीय प्रावधानों का नारी की स्थिति पर किस प्रकार का प्रभाव अधिक पड़ा है.
    आज से कुछ दशक पहले हमारा समाज इन धर्मशास्त्रों से बहुत अधिक प्रभावित था. अनपढ़ व्यक्ति भी "अरे हमारे वेद-पुराण में लिखा है" कहकर अपनी बात सिद्ध करने का प्रयास करते थे, चाहे उन्होंने कभी उनकी सूरत तक न देखी हो. आज स्थिति उससे बहुत भिन्न है, कम से कम प्रबुद्ध और पढ़ा-लिखा वर्ग तो सदियों पहले लिखे इन ग्रंथों की बात नहीं ही करता है. पर फिर भी कुछ लोग हैं, जो आज भी औरतों के सशक्तीकरण की दिशा इन शास्त्रों के आधार पर तय करना चाहते हैं... अथवा अनेक उद्धरण देकर यह सिद्ध करना चाहते हैं कि 'हमारा धर्म अधिक श्रेष्ठ है' और 'हमारे धर्म में तो औरतें कभी निचले दर्जे पर समझी ही नहीं गयी' और मजे की बात यह कि यही लोग अपने घर की औरतों को घर में रखने के लिए भी शास्त्रों से उदाहरण खोज लाते हैं. यानी  चित भी मेरी पट भी मेरी. 
    मेरा कार्य इससे थोड़ा अलग हटकर है. मैं इन शास्त्रों द्वारा न ये सिद्ध करने की कोशिश कर रही हूँ कि प्राचीन भारत में नारी की स्थिति सर्वोच्च थी और उसके साथ कोई भेदभाव होता ही नहीं था (क्योंकि ये सच नहीं है गार्गी-याज्ञवल्क्य संवाद इसका उदाहरण है) और न ये सिद्ध करने की कोशिश कर रही हूँ कि नारी की वर्तमान स्थिति के लिए पूरी तरह शास्त्र उत्तरदायी हैं... मैं यह जानने का प्रयास कर रही हूँ कि धर्मशास्त्रों के प्रावधान वर्तमान में हमारे समाज में कहाँ तक प्रवेश कर पाए हैं और पुनर्जागरण काल से लेकर आज तक नारी-सशक्तीकरण पर कितना और किस प्रकार का प्रभाव डाल पाए हैं? 
    वस्तुतः धर्मशास्त्रीय प्रावधानों ने नारी की स्थिति मुख्यतः उसके सशक्तीकरण की प्रक्रिया पर क्या प्रभाव डाला है... इसे जानने से पूर्व सशक्तीकरण को जानना आवश्यक है. सशक्तीकरण को अलग-अलग विद्वानों ने भिन्न-भिन्न रूप में परिभाषित किया है. कैम्ब्रिज शब्दकोष इसे प्राधिकृत करने के रूप में परिभाषित करता है. लोगों के सम्बन्ध में इसका अर्हत होता है उनका अपने जीवन पर नियंत्रण. सशक्तीकरण की बात समाज के कमजोर वर्ग के विषय में की जाती है, जिनमें गरीब, महिलायें, समाज के अन्य दलित और पिछड़े वर्ग के लोग सम्मिलित हैं. औरतों को सशक्त बनाने का अर्थ है 'संसाधनों पर नियंत्रण स्थापित करना और उसे बनाए रखना ताकि वे अपने जीवन के विषय में निर्णय ले सकें या दूसरों द्वारा स्वयं के विषय में लिए गए निर्णयों को प्रभावित कर सकें.'  एक व्यक्ति सशक्त तभी कहा जा सकता है, जब उसका समाज के एक बड़े हिस्से के संसाधन शक्ति पर स्वामित्व होता है. वह संसाधन कई रूपों में हो सकता है जैसे- निजी संपत्ति, शिक्षा, सूचना, ज्ञान, सामाजिक प्रतिष्ठा, पद, नेतृत्व तथा प्रभाव आदि. स्वाभाविक है कि जो अशक्त है उसे ही सशक्त करने की आवश्यकता है और यह एक तथ्य है कि हमारे समाज में औरतें अब भी बहुत पिछड़ी हैं... ये बात हमारे नीति-निर्माताओं, प्रबुद्ध विचारकों, अर्थशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों के द्वारा मान ली गयी है.  कुछ लोग चाहे जितना कहें कि औरतें अब तो काफी सशक्त हो गयी हैं या फिर यदि औरतें सताई जाती हैं तो पुरुष भी तो कहीं-कहीं शोषित हैं. 
    विभिन्न विचारकों द्वारा ये मान लिया गया है कि भारत में औरतों की दशा अभी बहुत पिछड़ी है... इसीलिये विगत कुछ दशकों से प्रत्येक स्तर पर नारी-सशक्तीकरण के प्रयास किये जा रहे हैं. इन प्रयासों के असफल होने या अपने लक्ष्य को न प्राप्त कर पाने का बहुत बड़ा कारण अशिक्षा है, परन्तु उससे भी बड़ा कारण समाज की पिछड़ी मानसिकता है. जब हम आज भी इस बात को स्वीकार नहीं कर पाए हैं कि हमारे समाज में लैंगिक भेदभाव है, तो उसे दूर करने और नारी को सशक्त बनाने की बात ही कहाँ उठती है? हम अब भी नारी के साथ हो रही हिंसा के लिए सामाजिक संरचना को दोष न देकर व्यक्ति की मानसिक कुवृत्तियों को दोषी ठहराने लगते हैं...हम में से अब भी कुछ लोग औरतों को पिछड़ा नहीं मानते बल्कि कुछ गिनी-चनी औरतों का उदाहरण देकर ये सिद्ध करने लगते हैं कि औरतें कहाँ से कहाँ पहुँच रही हैं...?
   हाँ, कुछ औरतें पहुँच गयी हैं अपने गंतव्य तक संघर्ष करते-करते, पर अब भी हमारे देश की अधिकांश महिलायें आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से भी पिछड़ी हैं. उन्हें आगे लाने की ज़रूरत है.

14 टिप्‍पणियां:

  1. एक प्रवाहमय लेख का अचानक अंत हो गया सा लगता है! शोध की आवश्यकता वहां भी है जहाँ(धर्म ग्रंथों में नारी को अधिक स्वतंत्रता न देने की बार बार सिफारिश है -जिमी सुतंत्र भई बिगरहिं नारी ! प्रमदा सब दुःख खान ! आदि आदि ) ..आगे भी लिखिए ...निष्पत्ति ?

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  2. इंतज़ार रहेगा अगली कड़ी का !

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  3. maine to humesha se kaha hai ki xamoles are not the solutions..char udahran de kar poori samsya se muh nahi moda ja sakta...

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  4. मुक्ति जी अपने शोध में यह भी शोधित करने का प्रयास कीजियेगा की विशेषकर भारत की जनसँख्या में स्त्री-पुरुष लैंगिक असमानता का कारण कन्या भ्रूण हत्या ही है या फिर कुछ जेनेटिक कारण भी है आप इस लिंक पर देखिये--- http://www.myheritage.com/stats-78766902-0-0/gais-ka-swami-web-site/Overview
    मेरे परिवार की 22 पीढ़ियों का संकलन है, जिसमें ज्ञात कुल २११ संकलित व्यक्तियों में 122 पुरुष है और 89 महिलाएं मतलब कुल अनुपात 58% / 42% . अब आपके हिसाब से क्या मेरे परिवार में भी कन्या हत्या की सुदीर्घ परंपरा रही है. जबकि मेरे सामने ही मेरे दादाजी की 6 संतानों में 5 पुरुष और 1 कन्या संतान है. 5 पुरुष संतानों के 2-2 के हिसाब से 10 संतानों में 7 पुरुष और 3 कन्या संतान है. और इन 7 में अभी हम दो भाइयों की 2 पुरुष संतान है. बताइए क्या कारण है.

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  5. सशक्तिकरण याने जो अशक्त है उसे शक्ति प्रदान करना . प्रश्न यह है की पहले उसे अशक्त किस आधार पर माना जा रहा है? इसे परिभाषित किया जाए समपूर्णता में, न केवल भौतिक संपत्ति या सम्पदा को लेकर . व्यक्ति के विकास के लिए मानसिक विकास भी अत्यावश्यक है .

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  6. @ डॉ.महेश, वैसे तो शोधकर्ताओं, अकैडमीशियंस, विद्वानों और नारीवादियों में अब इस प्रश्न पर कोई दो राय है ही नहीं कि औरतें अशक्त हैं, प्रश्न यह है कि किन क्षेत्रों में सशक्तीकरण की आवश्यकता सबसे पहले है... और उसकी प्रक्रिया क्या हो, परन्तु आपने यहाँ उचित प्रश्न किया है. मुझे लगता है मुझे अपने शोध का आरम्भ इस बात से करना होगा कि औरतों को क्यों अशक्त मानना चाहिए...
    वैसे नारीवाद का प्रमुख अध्ययन बिंदु यही रहा है और उसकी यही सफलता मानी जाती है कि उसने नीति-निर्माताओं का ध्यान नारी-सशक्तीकरण की ओर आकृष्ट किया.

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  7. नारिवाद को यह भी ध्यान में रखना चाहिए की क्यों कोई वाद सफल नहीं होता और दम तोड़ देता है . उसकी आवश्यकताएँ और अपेक्षाएँ क्या हैं.पुरुष का उत्थान भी अनिवार्य है . संघर्ष की जगह एक आम सहमति और सामूहिक प्रयास जरूरी है.

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  8. @ डॉ. महेश सिन्हा, आप मेरे समर्थक हैं और जानते हैं कि मैं यही समझाने की कोशिश कर रही हूँ कि लैंगिक भेदभाव के लिए उत्तरदायी स्त्री या पुरुष नहीं बल्कि व्यवस्था है , सामाजिक संरचना है और उसमें सुधार के लिए सबको साथ चलना होगा, पर यदि आप ये मानेंगे ही नहीं कि लैंगिक भेदभाव हमारे समाज का सच है तो सुधार कैसे होगा?

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  9. mukti ji,kabhi gargi aur yagvalkya samvaad ke bare me bhi vistaar se batana meri janne ki badi ichcha hai.bahut naam suna hai inka aur blogjagat me to aap hi inke bare me bata sajkti hai.

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  10. vaise mujhe ye cmnt. karna to tha apki is post par lekin jaldbaaji me kar aaya pichli post par.hahahahaha! main bhi kitna champoo hun.use delete karne ki koshish ki thi par ho hi nahi pa rahi. d

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  11. विषय के हिसाब से लेख बहुत संक्षिप्त रह गया है। आपके अपने निष्कर्ष भी अनुपस्थित हैं। इसलिए अगली कड़ी का इंतजार रहेगा।

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  12. एक जरूरी और जागरुक लेख
    स्तुत्य

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  13. धन्य हैं आपके ... धन्य हैं आपकी सोच... मैं शत प्रतिशत सहमत हूँ।
    हमारे परम्परावादी विचारों ने महिलाओं को इतनी मानसिक गुलामी दे दी कि भारत की 90 प्रतिशत महिला भी इस बात को स्वाकीर नहीं करेंगीं.... जैसे समानता... सम्पत्ति हक पर आपके विचार हैं।
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    और बुद्धिजीवी वर्ग, समाज सुधारक/धर्म प्रचारक/रामायण/ ये सब अपनी उसी बात को मान रहे हैं ... लगातार प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। आज जरूरत है भारतीय धर्म और संस्कृति की परिभाषा बदलने की... ताकि मानसिकता पर असर पड़े।
    ---- देखा जाय तो तमाम कलमकारों (लेखकों/बुद्धिजीवियों) ने समाज को धोखा दिया है... आज ऐसे कलमकार ज्यादा हैं कि कथनी-करनी में समानता ढूँढे नहीं मिलेगी। मैं इनके ढोंग भरे साहित्य को साहित्य नहीं कह सकता... किसी भी हाल में।

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बहस चलती रहे, बात निकलती रहे...