प्रश्न ये हैं कि क्या वाकई आज की औरत आज़ाद हो गयी है... इतनी आज़ाद कि अपनी देह को हथियार की तरह इस्तेमाल करके आगे बढ़ रही है? क्या उसकी सभी समस्याओं का अंत हो गया है? क्या उसे वे सभी अधिकार मिल गए हैं, जिनके लिए वो दशकों से लड़ाई लड़ रही थी? कुछ इन्हीं प्रश्नों के उत्तर ढूंढती एक पुस्तक आजकल पढ़ रही हूँ "स्त्री: मुक्ति का सपना" इसके मुख्य संपादक प्रो. कमला प्रसाद और राजेन्द्र शर्मा हैं, जबकि अरविंद जैन और लीलाधर मंडलोई अतिथि संपादक हैं. यहाँ मैं अरविंद जैन के सम्पादकीय के कुछ उद्धरण दे रही हूँ, -
"स्त्री को 'देह के हथियार' से कितना 'सत्ता में हिस्सा'' मिला या मिला पाया- हम सब अच्छी तरह जांते हैं. पुरुषों के इस भयावह 'खेल' में स्त्री सहमति का निर्णय स्वयं ले रही है या 'सिक्का' (रुपया, डालर, पौंड ) ? देह के अर्थशास्त्र में स्वेच्छा और स्वतंत्रता का निर्णायक आधारबिंदु क्या है? देह के व्यवसाय के मुनाफे और 'देह की कीमत' के बीच क्या अंतर्संबंध है? खेल के नियम, शर्तें और चुनाव प्रक्रिया कौन निर्धारित कर रहा है?"
इन सवालों से स्थिति स्पष्ट होती जाती है. हम ये तो देख रहे हैं कि पुरुष डियोडरेंट के विज्ञापन में औरतें बिकनी पहनकर दिख रही हैं, पर उनसे कौन ऐसा करा रहा है? कौन इस बात पर उन्हें मजबूर कर रहा है कि यदि वे ऐसा नहीं करेंगी तो प्रतिस्पर्धा से बाहर हो जायेंगी?
यदि ये कहा जाए कि औरतें अपना शोषण होने ही क्यों देती हैं, तो उसका उत्तर यह है कि औरतों का शोषण कहाँ नहीं होता? यदि कार्यस्थल पर हो रहे शोषण से बचने के लिए वे घर में बंद रहने का निर्णय लें, तो क्या उनका शोषण नहीं होता? क्या घर में भी औरतें पूरी तरह सुरक्षित हैं? नहीं.
शो बिजनेस में नारी देह के इस्तेमाल को अरविन्द जैन बहुत अच्छी तरह सामने रखते हैं-
"बहुराष्ट्रीय पूँजी के सामने सुन्दर स्त्री के विरोध, प्रतिरोध और मोलभाव का क्या कोई मतलब है? पुरुष उद्योगपतियों द्वारा पहले से तय कीमत (इनाम, पुरस्कार, पारिश्रमिक...) पर, जब हज़ारों विश्व सुंदरियों को लाइन लगाकर देह प्रदर्शन के लिए लाकर खड़ा कर दिया जाता हो, तब राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय दलाओं के हाथों में नाचती कठपुतलियाँ या सुन्दर गुडियाँ सिर्फ वस्तु, माल या साधन भर होती हैं. खरीददार की शर्तों पर खेल-खेलने में, सुन्दरी की हार पहले से ही निश्चित है..."
स्त्री को घर में रखने और वहाँ से बाहर निकालने का सारा काम इसी विश्वव्यापक पूँजी के खेल का एक हिस्सा है. खेल के नियम भी यही तय करती है, खिलाड़ियों को भी और हार-जीत को भी. एक ओर तो औरतों को घर में बैठाकर, उसके घरेलू काम को अनुत्पादक सिद्ध करके उसके अंदर आत्मविश्वास की कमी पैदा करती है, तो दूसरी ओर माडलिंग, एक्टिंग आदि जैसे शो बिज़ को ग्लैमराइज करके सुन्दर लड़कियों को उस ओर आकर्षित करती है. ध्यान दीजिए रैम्प पर सैकड़ों लोगों के सामने वाक् करने के लिए माडल के पास बहुत अधिक आत्मविश्वास होना चाहिए और उसके अंदर ये आत्मविश्वास भी वही पूँजी भरती है, जो हाउस वाइफ को नकारा सिद्ध करती रहती है.
ये कहा जा सकता है कि पूंजीवाद अपना व्यापार चलाने के लिए औरतों का मनचाहा इस्तेमाल करता है. चाहे उसे घर में रखना हो या रैम्प पर चलना हो. वह सिर्फ 'कार्य करने' के लिए होती है, जैसा उसे कहा जाता है या उसे दिखाया जाता है. सोचना और निर्णय लेना औरतों का नहीं, पुरुषों का कार्य है. क्योंकि विश्व की लगभग समस्त पूँजी उन्हीं के पास है. एक-दो को छोड़ दें तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सी.ई.ओज., फिल्म, राजनीति हर जगह पुरुषों का वर्चस्व है. इन बातों से औरतें बिल्कुल अनभिज्ञ, उनके इशारों पर नाचती रहती हैं और जो विरोध करती है या प्रश्न उठाती है, उसे प्रतिस्पर्धा से बाहर होना पड़ता है या फिर नारीवादी (जो कि आजकल एक गाली की तरह प्रयुक्त हो रहा है) कहकर उन्हें हे दृष्टि से देखा जाने लगता है.
(उपर्युक्त पुस्तक गूगल बुक्स पर इस पते पर देखी जा सकती है-
http://www.google.com/books?id=B9_b5iySOMAC&source=gbs_slider_thumb
और इस जगह ऑर्डर देकर मंगाई जा सकती है अपने पते पर, मैंने इसी तरह मंगाई है-
http://www.vaniprakashan.in/book_detail.php?id=224
bahut sahi baat ki aapne
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही कहा …………………आज भी पुरूष के हाथों की कठपुतली ही तो है स्त्री…………जब तक सोच नही बदलेगी कोई बदलाव नही आ सकता।
जवाब देंहटाएंअभी मैने इसी पर लिखा था कि--------पुरुष तुम अब भी कहाँ बदले हो………………उसमे इसी सोच का जिक्र किया है और जो आपके लेख मे है उसे ही कविता मे ढाला है मैने भी…………।फ़ुर्सत मिले तो देखियेगा इस लिंक पर्।
http://vandana-zindagi.blogspot.com/2010/09/blog-post_18.html
पैसा और बाजार स्त्री पुरुष दोनों का ही मन चाहा उपयोग करता है जो जिस काबिल है पर पुरुष के लिए कहा दिया जाता है की वो तो बाजार पैसे के हाथो मजबूर है पर जब बात स्त्री की आती है तो सारा दोष उसके माथे मढ़ दिया जाता है | अब तो पुरुष भी बाजार के लिए देह प्रदर्शन कर रहे है उनको कोई भला बुरा क्यों नहीं कहता क्यों नहीं कहा जाता की हम तो ऐसे पुरुषो के ऐसे काम को ठीक नहीं मानते | एक अच्छे लेख के लिए धन्यवाद |
जवाब देंहटाएंज़रूरी किताब लगती है…कैसे मिलेगी देखता हूं…
जवाब देंहटाएंबाजारवाद की चपेट में सभी हैं ,क्या नारी क्या पुरुष ! यह मनुष्य के विवेक को कुंठित कर देता है और फिर व्यावसायिकता की नंगी नाच में सब शामिल हो जाते हैं .......रैम्प पर इठलाती सुन्दरी ,फिल्म में अपने जेठ के सामने ठुमके लगाती आईटम दिखाती भयऊ ..ससुर के सामने अंग प्रदर्शन करती घर की ऐश्वर्य-बहू ,न न यह गलत कहाँ ? सब देश काल परिस्थिति के सापेक्ष की स्थितियां हैं ....मगर यह न कहें की औरतें इस लिए दबाई गयी हैं ...
जवाब देंहटाएंपुस्तक परिचय जो खुद आपका ही स्वप्न रूप है पर आभार !
इस पुस्तक को बहुत महत्वपूर्न लोगों द्वारा तैयार किया गया है इसलिये यह एक ज़रूरी पुस्तक है ।
जवाब देंहटाएंविज्ञापित स्त्री के सन्दर्भ में- मेरे हिसाब से नारी स्वालम्बन और सशक्तीकरण ये नही जो चल रहा हैं, समाज की मौजूदा व्यव्स्था का निर्माता पुरूष है, और उसके लिए सभी प्रजातियां हालांकि स्त्री होमोसैपियन्स ही हैं उसके द्वारा बनये गये रंग-मंच पर उसकी(पुरूष) की मर्जी से ही किरदार अदा करती हैं या करायी जाती हैं। स्त्री के महत्व और उसकी विशिष्ठता को समझने के लिए हमें वही नज़र चाहिए जो हम अपनी माँ में देखते है, प्रेम भी इसका सुन्दर कारक बन सकता है बशर्ते प्रेम के उस सर्वस्व रूप को अपने भीतर समझने और उसे अपने से बाहर प्रतिस्थापित कर पाने की कूबत हो फ़िर चाहे वह स्त्री हो या कोई भी अन्य प्रजाति! सारी कुरूपता और विद्रूपता जो हमारे अन्तर्मन में व्याप्त है जिसे इस स्थापित समाज के नियमों और माहौल ने हमें दिया है, अपशिष्ट पदर्थ की तरह बाहर निकल जायेगी।
जवाब देंहटाएंअब इस सुन्दर प्रयास के लिए गुरू, पुस्तकें, और self-reflection जैसी कोई भी कवायद की जा सकती है।
कृष्ण
विषय बड़ा गंभीर है ...संभल के बात करनी होगी. बाजारवाद के खेल में पूंजी की शक्ति ही शेष घटकों को नियंत्रित करती है. यहाँ स्त्री-पुरुष का सवाल नहीं, आर्थिक लाभ और सरलता से उपलब्ध साधन का सवाल है. एन-केन प्रकारेण लाभ के लिए सरलता से उपलब्ध होने वाले साधन हैं गरीब, ज़रूरतमंद, कम परिश्रम एवं कम समय में अधिक उपलब्धियां चाहने वाले अति महत्वाकांक्षी, और झांसे में आने वाले या सही निर्णय न कर पाने वाले लोग. ये सभी क्रूर बाजारवाद के निरीह शिकार हैं. इन घटकों में स्त्री कई जगह शामिल हो जाती है. विज्ञापन में स्त्री देह की मांसलता का दुरुपयोग ...न केवल विज्ञापन अपितु अन्य भी कई कार्यों के लिए स्त्री देह का लाभ के लिए स्तेमाल ...बाजारवाद का एक गैरज़रूरी हिस्सा है जिसे पुरुषों नें एक साज़िश के तहत अनिवार्य जैसा बना दिया है. यहाँ हम पुरुष को स्त्री का शोषक मानते हैं. पर एक बात और भी है ..काटने वाला तो तैयार है ही कटने वाला भी तैयार बैठा है काटने के लिए. किन्तु इसके लिए मुझे लगता है व्यवस्था और स्त्री दोनों ही दोषी हैं. आज कई मामलों में स्त्री स्वयं निर्णय ले रही है .....तमाम बाध्यताओं के बाद भी वह अपने हित में अच्छे निर्णय ले सकती है. शिक्षा का जितना उपयोग वह कर सकती थी उसने नहीं किया .....बदले हुए समय में स्त्री की प्राथमिकताओं और मान्यताओं में बहुत परिवर्तन हुआ है. लडकियां अब लिव इन रिलेशनशिप के बारे में गंभीरता से सोच रहीं हैं ....उनकी सुरक्षा के मापदंड बदल रहे हैं ....सही-गलत की परिभाषाएं बदल रही हैं. अब यदि इस नयी सामाजिक संरचना के दुष्परिणाम हुए (ज़ो कि होने ही हैं ) तो इसका सबसे बड़ा खामियाजा किसे भुगतना होगा ? बेशक स्त्री को ही. स्त्री शोषण का फिर एक सिलसिला चल पड़ेगा.
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