१. स्त्री और पुरुष दोनों में जैविक रूप से भेद है, अतः सामाजिक भेद भी होना चाहिये. इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है. दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं. जहाँ तक पुरुषों द्वारा स्त्री के शोषण का प्रश्न है तो स्त्रियाँ भी ऐसा करती हैं और पुरुष भी. इसमें कहने वाली कोई बात नहीं है. नारी अधिकार जैसी कोई बात भी नहीं होनी चाहिये.
२. स्त्री और पुरुष दोनों जैविक रूप से भिन्न हैं तथा सामाजिक रूप से भी. पुरुषों द्वारा स्त्रियों को हमेशा से दबाया गया है. परन्तु अब स्थिति पहले से बहुत अच्छी है और धीरे-धीरे और भी परिवर्तन आयेगा. अब नारी भी पुरुषों के कन्धे से कन्धा मिलाकर चल रही है. इसलिये नारी-अधिकार जैसे किसी आन्दोलन की अब कोई आवश्यकता ही नहीं.
३. स्त्री और पुरुष दोनों जैविक रूप से भिन्न हैं, परन्तु सामाजिक भेद हमारी सामाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा उत्पन्न किया जाता है. पुरुष-प्रधान समाज में नारी की स्थिति दूसरे दर्जे़ की नागरिक की रही है. ऐसा प्रत्येक देश और प्रत्येक युग में होता रहा है. नारी ने अपने अधिकारों के लिये लम्बी लड़ाई लड़कर कुछ अधिकार प्राप्त किये हैं. परन्तु स्थिति अब भी बहुत बेहतर नहीं है. इसलिये संघर्ष जारी है. अगर ये कहा जाता है कि नारी भी तो पुरुष पर अत्याचार करती है, तो एक तो ऐसे उदाहरण बहुत कम हैं, दूसरी बात, जो नारी ऐसे शोषण के कार्य में शामिल होती है, वह स्वयं भी पितृसत्ता की वाहक होती है. क्योंकि पितृसत्ता ऐसी विचारधारा है, जिसमें जो शक्तिशाली होता है, वह शक्तिहीनों का शोषण करता है. इसमें शोषक या शोषित स्त्री या पुरुष दोनों में से कोई भी हो सकता है. यह सच है कि स्त्री शारीरिक रूप से पुरुष जितनी सक्षम नहीं है, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि उसे दूसरे दर्जे़ का नागरिक मान लिया जाये. इसीलिये हमारे संविधान में अन्य भेदों के निराकरण के साथ लिंगभेद का भी निराकरण किया गया है.
नारीवाद तीसरे मत का समर्थन करता है. अब आप तय करें कि आप कहाँ खड़े हैं?
मैं भी तीसरे मत का ही समर्थन करूँगी ...मगर कुछ सुधार के साथ ...
जवाब देंहटाएंनारी पीड़ित है , दूसरे दर्जे की मानी जाती है , यह भी सही है ...हालाँकि इसमे काफ़ी सुधार आ चुका है ...मगर समाज मे अभी और चेतना लाने की आवश्यकत्त है ...यहा तक मैं आपके विचारों से पूरी तरह सहमत हूँ ...
मगर जहा तक दहेज पीड़ित महिलाओं की बात है ...आप इसे काफ़ी कम आंक रही हैं ..मेरा अपना अनुभव है कि 90 प्रतिशत मामले झूठे है ..ससुराल वालों से अनबन एक कारण हो सकता है लेकिन इसके लिए दहेज क़ानून का उपयोग करना मेरी नज़र मे ग़लत है ...
यही महिलाएँ अपने मायके मे अपने भाइयों और पिता द्वारा मा और भाभियों को पीड़ित देखती हैं ..मगर चुप रहती हैं ...मगर ससुराल मे अगर थोड़ी सी भी अनबन हो जाए तो उन्हे देख लेने का भय दिखाती है...क्योंकि ये उनके लिए आसान होता है ..बस मेरा विरोध नारी की इसी भावना को लेकर है ...!!
कहने को तो ज्यादातर लोग तीसरे मत को ही कहेंगे। पर आपको पता होना चाहिए कि मनुष्य की कथनी और करनी एक जैसी नहीं होती।
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शानदार रही लखनऊ की ब्लॉगर्स मीट
नारी मुक्ति, अंध विश्वास, धर्म और विज्ञान।
वाणी जी,
जवाब देंहटाएंआपकी बात सही हो सकती है. कभी-कभी किसी कानून का इतना दुरुपयोग होता है कि उसको बनाने का मक़सद ही कहीं खो जाता है. पर, दुरुपयोग के डर से कानून बनना तो बन्द नहीं हो जाना चाहिये.
मुझे लगता है की समस्या वहीं हैं जहां नर नारी सम्बन्धों में एक गहरा असंवाद तिर आया है -और इंगित असंवाद के पीछे कई तरह की बेमेलताएं हो सकती हैं -अलग थलग सोच और पृष्ठभूमि के बीच वैवाहिक सम्बन्ध,पुरुष स्त्री के शैक्षणिक स्तर,संस्कार में विभिन्नता आदि !नारी को खुद जिम्मेदार होकर अपने जीवन साथी के चयन के अधिकार में स्वच्छन्दता से कई अप्रिय स्थितियों से बचा जा सकता है -यह अधिकार नारी को हासिल करना होगा मगर इसमें उसे पोरा तार्किक भी होना होगा -विमूढ़ भावुकता जानी चयन अर्थ का अनर्थ भी कर सकता है और एक गलत दृष्टांत भी उद्धरण के लिए छोड़ सकता है !मेरी दृष्टि में नर नारी एक दुसरे से श्रेष्ठ नहीं बल्कि पूरक हैं और उनके बीच हर मसले में मतैक्य ही समाज का आदर्श रूप प्रस्तुत कर सकता है !
जवाब देंहटाएंआपकी विषय की प्रस्तुति सदैव इम्प्रेस करती है !
yaar itna sochne ko majboor na karo....
जवाब देंहटाएंजिन्हें दहेज कानून से समस्या है वे दहेज के विरुद्ध क्यों नहीं हैं? यदि दहेज लिया ही नहीं जाए तो इस कानून का दुरुपयोग हो ही नहीं पाएगा।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती