नारीवाद को अधिकतर लोग पुरुष-विरोधी समझते हैं. नारीवादी औरत को एक ऐसी एबनॉर्मल, फ़्रस्टेटेड, सख़्तमिजाज़, और झगड़ालू औरत समझा जाता है, जो बात-बात में पुरुषों से झगड़ा कर बैठती है और खोद-खोदकर ऐसे मुद्दे उछालती है, जिससे पुरुषों को नीचा दिखाया जा सके. नारीवादी औरत को लोग अपने व्यक्तिगत जीवन की कुंठा को सार्वजनिक जीवन में लागू करने वाली समझते हैं. लोगों के अनुसार ऐसी औरतें अपने जीवन में सामंजस्य नहीं बैठा पातीं, एडजस्टमेंट नहीं करना चाहतीं और इसका दोष पुरुषों के मत्थे मढ़ती हैं. जबकि अन्य अनेक भ्रान्तियों की तरह यह भी एक भ्रान्ति है. नारीवाद पुरुषों का विरोध नहीं करता, बल्कि समाज की पितृसत्तात्मक संरचना का विरोध करता है. पितृसत्ता एक पारिभाषिक शब्द है, जिसकी चर्चा मैं इसी ब्लॉग के पिछले आलेखों में कर चुकी हूँ.
यह जानकर शायद कुछ लोगों को आश्चर्य होगा कि नारीवादी आन्दोलन के प्रारम्भिक चरण में जिस एक विचारक ने नारी-अधिकारों की पुरज़ोर वक़ालत की थी, वह एक पुरुष था-जॉन स्टुअर्ट मिल जो एक प्रसिद्ध उपयोगितावादी राजनीतिक विचारक थे. उन्होंने अपनी पुस्तक "स्त्री और पराधीनता" (The Subjection of Women ) में कहा था कि समाज का पूरी तरह विकास तब तक नहीं हो सकता, जब तक कि आधी आबादी को उसके नागरिक और राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं हो जाते. उन्होंने मानवता, उदारता और लोकतांत्रिक मूल्यों के आधार पर नारी-अधिकारों की बात की थी. उन दिनों नारीवाद मात्र नागरिक व राजनीतिक अधिकारों की बात कर रहा था. अतः उसे उदारवादी नारीवाद नाम दिया गया.
बाद में नारीवाद का विकास हुआ. पितृसत्तात्मक समाज की संरचना को समझने और नारी की स्थिति को सुधारने के विभिन्न उपायों के अधार पर नारीवाद की कई धाराओं का विकास हुआ, जिनमें से कुछ अतिवादी धाराएँ थीं. इन अतिवादी धाराओं ने अपने कुछ विवादित कदमों के फलस्वरूप अधिक प्रसिद्धि प्राप्त कर ली. ब्रा बर्निंग मूवमेंट, समलैंगिकता को पुरुष-संसर्ग का वैकल्पिक समाधान सिद्ध करने की कोशिश, नारीत्व(feminity) का विरोध आदि कुछ ऐसे ही विवादित कदम थे. इन बातों के फलस्वरूप लोगों में ये बात घर कर गयी कि नारीवाद पुरुष विरोधी विचारधारा है, जो कि पुरुषों को समाज से हटाकर स्त्रियों की सत्ता स्थापित करना चाहती है.
यदि तार्किक ढँग से विचार किया जाय तो यह भ्रान्ति बहुत ही हास्यास्पद लगती है. स्त्री और पुरुष दोनों से मिलकर समाज बना है. अतः दोनों में से किसी एक के बिना समाज की कल्पना नहीं की जा सकती और न ही ऐसी कोई विचारधारा सफल हो सकती है, जो किसी एक के विरोध पर टिकी हो. नारीवाद एक ऐसे समाज की स्थापना करना चाहता है, जहाँ स्त्री और पुरुष दोनों को समान अवसर प्राप्त हों, विकल्प की स्वतंत्रता हो और निर्णय लेने की स्वतंत्रता हो. कोई सिर्फ़ इसलिये किसी अधिकार से वंचित न रह जाय कि वह स्त्री है या पुरुष. जहाँ पुरुषों को रोने का अधिकार हो और स्त्री को हँसने का, जहाँ पुरुष गुलाबी शर्ट पहन सके और स्त्री भूरे कपड़े, जहाँ नर्सिंग का काम पुरुष भी कर सके और नारी भी विमान उड़ा सके, जहाँ कोई पति यह निर्णय ले सके कि यदि उसकी पत्नी अपनी इच्छा से नौकरी कर रही है तो वह घर का कार्य कर सके और इस बात पर कोई उसकी खिल्ली न उड़ाये...
.......क्या यह सिर्फ़ एक सपना है जो सच नहीं हो सकता? मेरे विचार से हो सकता है यदि पुरुष अपने पुरुषत्त्व का अहंकार त्याग दे और आगे कदम बढ़ाये......
मुझे यह बात कहने में कोई हिचक नहीं है कि पुरुषों के साथ के बिना नारीवाद अधूरा है.
सोमवार, 21 दिसंबर 2009
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नारीवाद का सही परिप्रेक्ष्य ! आज यह सच साबित हो रहा है की की कोई ऐसा काम नहीं है जिसे उभयपक्ष पूरी दक्षता के साथ न कर सकें -कतिपय जैवीय को छोड़कर ! दोनों के पारंपरिक रोल तेजी से बदल भी रहे हैं -नारी अन्तरिक्ष यात्री बन चुकी है और पुरुष पंचज सितारा होटलों के बेहतरीन कुक ! दोनों ने अपनी क्षमताएं प्रदर्शित कर दी हैं -कुछ आसन्न खतरे जो समाज जैविकीविदों को दीख रहे हैं वे हैं मातृत्व/पितृत्व/वात्सल्य(परेंटल केयर) का क्षरण ,प्रजननंशीलता के अवरोध ,नर नारी के "पेयर बांड " की शिथिलता आदि आदि.हम इन समस्यायों का निवारण कैसे कर सकेगें -यही बड़ी चुनौती है ! और हाँ जब आप समझाती हैं तो नारीवाद इतनी सहजता से कैसे समझ मेंआ जाता है ?
जवाब देंहटाएंसही स्वरूप! पर इसे नारीवाद कैसे कहा जाए? यह तो समानता वाद है। लगता है पुरुषप्रधानतावादी लोगों ने ही लैंगिकसमानता के पक्षधर लोगों को नारीवादी कहना आरंभ किया होगा।
जवाब देंहटाएंमैं तो समझता हूँ कि असमानता का कारण प्राकृतिक न हो कर सामाजिक संगठन में है, जहाँ इन्हें आधार बना कर शोषण को बरकरार रखा जा सकता है। स्त्री-पुरुष समानता का यह संघर्ष शोषण के सभी रूपों की समाप्ति के साथ ही समाप्त हो पाना संभव है।
आराधना दीदी चरण स्पर्श
जवाब देंहटाएंआपकी बातो से बहुत हद तक सहमति रखता हूँ और क्यो ना हो बात आपकी बिल्कुल सही है कि बिना नारी या समाज के हर जाती या धर्म का विकास जब होगा तभी देश का भी विकास होता है । हमारा विरोध नारी विकास के विरुद्ध कभी नहीं रहा और न होगा , हमारा विरोध तो हर वो चिज , हर वो नियम , हर वो कानुन जो भारतीय संस्कृति को आघत पहुचाने की कोशिश करता है उनके खिलाफ है । बराबरी हक बिल्कुल मिलना चाहिए लेकिन जिस बरबारी की हक की बात , अधिकार की बात आज की प्रगतिवादी महिलाएं कर रही है इसमे भारतीय संस्कृति को नेश्ताबुत करने की बू आती है । हमारे यहाँ बराबरी का हक हो ये बात तो बहुत पहले से की जारी है , और जहाँ ये अधिकार नहीं मिला वहाँ वह अत्याचार नहीं बल्कि अशिक्षा है , जिसे आप लोग अनायास ही अत्याचार व भेदभाव की संज्ञा देती आयी है ।
मुक्तिजी ,
जवाब देंहटाएंआपकी आज की प्रविष्टि ने तो मुझे आपका प्रशंसक बना दिया है ....नारीवाद की सटीक और विस्तृत परिभाषा आपने समझा दी है ...
मान्यवर दिनेशराय द्विवेदीजी से सहमत होते हुए यही चाहूंगी की इसे नारीवाद का नाम ना देकर समानतावाद कहा जाए तो भी बुरा नहीं होगा ...जो स्वतन्त्रता , अधिकार व सुविधाएँ पुरुष को हैं , वही नारियों को प्राप्त हों ...इसमें असहमत होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है ....समाज में नारियों की सुरक्षा हो या यूँ कहूँ की नारियों को सुरक्षित समाज मिले ....और सबसे अहम् मुद्दा .. पुरुषों के सहयोग के बिना नारीवाद अधुरा है ...मन मोह लिया आपने ..बस यही तो हम भी कब से कहना चाह रहे हैं ...कह रहे हैं ...कि यदि पुरुषों के विचारों में परिवर्तन नहीं हो , वे महिलाओं के समानतावादी सिद्धांत का समर्थन नहीं करे तो नारीवाद के सफल होने की गुन्जायिश नहीं है .....क्योंकि ज्यादा परिवर्तन उनकी सोच में आना आवश्यक है ...
आज से आपका पीछा करना भी शुरू कर दिया है ....देखते हैं यह बहस क्या नतीजा लेकर आती है ...!!
मुक्ति जी,
जवाब देंहटाएंदिनेश जी की बातों का पूर्ण समर्थन करती हूँ...इसे 'नारीवाद' नहीं कहा जाएगा.....यह 'समानता वाद' है....और जब समानता है तो कैसा 'वाद' ???
मुक्ति पहले भी हमने कई जगह एक साथ एक जैसे कमेंट्स लिखे हैं और..आज तो बहुत ही अच्छा आलेख....हर पहलू को समेटता हुआ
जवाब देंहटाएंपर पुरुष इतना घबराया हुआ क्यूँ है?...हमें उन्हें क्यूँ समझाना पड़ता है कि नारीवाद का मतलब ऐसा नहीं वैसा है....दरअसल उन्हें डर लगता है कि नारी को समानता के अवसर दे दिए और वो सामान प्लेटफ़ॉर्म पर आ गयीं तो कहीं आगे ना निकला जाएँ...इसलिए हमेशा उसे नीचा दिखाओ...कमियां निकालो...मजाक उडाओ...ताकि वो अपनी सारी शक्ति,अपनी सफाई देने में ही लगा दें...और प्रगति की रफ़्तार धीमी से धीमी होती जाए.
पर रफ़्तार चाहे कितनी भी धीमी हो....यह रुकेगी नहीं...
@ अरविन्द जी आपने लिखा है...."कुछ आसन्न खतरे जो समाज जैविकीविदों को दीख रहे हैं वे हैं मातृत्व/पितृत्व/वात्सल्य(परेंटल केयर) का क्षरण ,प्रजननंशीलता के अवरोध ,नर नारी के "पेयर बांड " की शिथिलता आदि आदि.हम इन समस्यायों का निवारण कैसे कर सकेगें "...क्या ये सारे खतरे....नारी की प्रगति की वजह से आसन्न हैं?...इस भौतिकवादी युग में पुरुष भी इन आसन्न संकटों में उतना ही भागीदार है.
@मिथिलेश
आप बताएँगे ये प्रगतिवादी महिलायें कौन हैं...जो भारतीय संस्कृति को नेस्तनाबूद करने पर तुली हैं...और आप हरगिज़ बर्दाश्त नहीं करेंगे...हमें तो आम ज़िन्दगी में नज़र नहीं आतीं ऐसी महिलायें...आपके आस पास भी नहीं होंगी...पर आप लम्बी लम्बी पोस्ट लिख डालते हैं,उन पर.
मुक्ति जी ! में यहाँ नई हूँ और पहली बार आपको पढ़ रही हूँ ...और बहुत ख़ुशी हो रही है एक निष्पक्ष और सुलझा हुआ लेख पढ़कर....आपने बहुत ही सुलझे हुए तरीके से सभी पहलुओं को स्पष्ट करते हुए एक सार्थक पोस्ट लिखी है..बहुत बहुत बधाई आपको.
जवाब देंहटाएंपहली बार आपके ब्लॉग पर आई. बहुत अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंyou are right mukti and keep the good work going
जवाब देंहटाएंMeri Tippani Dustbin men?
जवाब देंहटाएं--------------
मानवता के नाम सलीम खान का पत्र।
इतनी आसान पहेली है, इसे तो आप बूझ ही लेंगे।
मुक्ति जी,
जवाब देंहटाएंइतना सार्थक और स्पष्ठ लेख आपने लिखा है....पुरुष की मानसिकता इतनी आसानी से नहीं बदलेगी....बहस जारी रहे इसके लिए आप लिखती रहिए..शुभकामनाओं सहित...
डा.रमा द्विवेदी
यह पोस्ट आज दैनिक जनसत्ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में साथ साथ शीर्षक से प्रकाशित हुई है। बधाई
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