बुधवार, 23 दिसंबर 2009

नारीवाद से सम्बन्धित भ्रान्तियाँ-३(नारीवाद और गृहकार्य)

नारीवाद के विषय में बहुत से लोगों को यह ग़लतफ़हमी भी है कि वह गृहिणियों को उपेक्षित दृष्टि से देखता है और चाहता है कि सभी महिलाएँ गृहकार्य छोड़कर नौकरी करने लग जायें, जबकि असलियत यह है कि सर्वप्रथम नारीवादी आन्दोलन ने ही औरतों के गृहकार्य को भी एक उत्पादक कार्य मानने की वक़ालत की थी.
    समाजवादी नारीवाद ने यह सिद्धान्त दिया था कि पूँजीवाद के विकास में औरतों द्वारा किये जाने वाले घरेलू कार्य का बहुत बड़ा योगदान है, जबकि उसे एक अनुत्पादक कार्य मानकर महत्त्व नहीं दिया जाता है. उनके अनुसार घरेलू कार्य निम्न प्रकार से पूँजीवाद को लाभ पहुँचाता है-
१. उद्योगों में कार्य करने वाले मज़दूरों को उनकी गृहिणियों द्वारा ठीक समय पर भोजन और सुख-सुविधा उपलब्ध कराने के फलस्वरूप मज़दूरों की कार्य-क्षमता बढ़ती है और वे अधिक देर गुणात्मक कार्य कर पाते हैं.
२. मज़दूरों को पत्नी के रूप में एक मुफ़्त की नौकरानी मिल जाती है जो कि अपने चौबीस घंटे के कार्य के बदले कोई नगद वेतन नहीं लेती है.
३. मज़दूरों की पत्नियाँ बच्चों के रूप में भावी मज़दूरों को जन्म देकर पुनरुत्पादन का काम करती हैं.
     यदि उपर्युक्त बातों का विश्लेषण किया जाये तो गृहकार्य के आर्थिक महत्त्व का पता चलता है. पहली बात, यदि मज़दूरों को समय पर आराम और भोजन न मिले तो उनकी कार्य-क्षमता घटेगी, इसके फलस्वरूप उद्योगों का उत्पादन घटेगा और पूँजीपतियों का नुकसान होगा. दूसरी बात, जो कार्य पत्नी करती है, यदि उसके लिये नौकर रखा जाये तो वह नगद वेतन लेगा, जिससे मज़दूरों में वेतन-वृद्धि की माँग बढ़ेगी और इससे भी पूँजीपतियों का घाटा होगा. इसलिये पूँजीपति वर्ग यही चाहेगा कि औरतें गृहकार्य करें और उसे कार्य न मानकर कर्त्तव्य माना जाये. यूरोप में औद्योगीकरण के युग में ऐसी ही प्रवृत्ति थी.
     मार्क्सवाद और समाजवादी नारीवाद की इस आर्थिक व्याख्या के पूर्व गृहिणियों के कार्य को उनका कर्त्तव्य मानकर उसे महत्त्व नहीं दिया जाता था. जब इन विचारकों ने गृहकार्य की आर्थिक व्याख्या करके आँकड़े सामने रखे तब जाकर घरेलू कार्य के महत्त्व को समझा गया. आज स्थिति यह है कि कोई किसी गृहिणी से यह नहीं कह सकता कि "तुम करती ही क्या हो."
    नारीवादियों ने गृहकार्य की आर्थिक व्याख्या उसके आर्थिक महत्त्व को बताने के लिये की, जबकि एक गृहिणी के कार्य को मात्र आर्थिक आधार पर व्याख्यायित नहीं किया जा सकता. एक औरत जो अपना संपूर्ण जीवन अपने परिवार की देख-रेख में लगा देती है, उसकी किसी से तुलना हो ही नहीं सकती. पर चूँकि आर्थिक व्याख्या को आकलित किया जा सकता है, इसलिये वही आधार लिया गया. नारीवाद ने यह माँग उठायी थी कि एक औरत गृहिणी बनना चाहती है या सिर्फ़ नौकरी करना चाहती है या दोनों जिम्मेदारियाँ साथ निभाना चाहती है, यह निर्णय लेने का अधिकार सिर्फ़ उस औरत का हो. उस पर कोई निर्णय जबरन थोपा न जाये. पर, मामला फिर वही ढाक के तीन पात...कार्य करने की स्वतन्त्रता के नाम पर जब औरतों को नौकरी करने पड़ी तो उन पर घर-बाहर का दोहरा बोझ पड़ गया. इसलिये अब नारीवादियों के मुद्दे बदल गये हैं.
    अब नारीवाद की माँग यह है कि यदि कोई पत्नी घर भी सँभालती है और नौकरी भी करती है तो पति को उसका थोड़ा हाथ गृहकार्य में बँटाना चाहिये. वैसे तो यह मामला पति-पत्नी के आपसी सामंजस्य का है, परन्तु यह सामाजिक तब बन जाता है जब रसोई में काम करने पर पतियों को उपहास का पात्र बनना पड़ता है और पति से काम कराने वाली पत्नी को ताने सुनने पड़ते हैं... ... ...उद्देश्य इसी मानसिकता को बदलना है.

6 टिप्‍पणियां:

  1. good work mukti. you are making feminism easy for people like me who does not know much about it.

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  2. मनुष्य शारीरिक रूप से ही नहीं वैचारिक रूप से भी विकासोन्मुख है -वह एक सफलतम प्रजाति के रूप में प्रकृति में अनुकूलित होना चाहता है या प्रकारांतर से प्रकृति कई ऐसे ट्रायल एंड एरर तरीके का इस्तेमाल कर देख रही है की इस प्रजाति का भविष्य किस किस दिशा में सुरक्षित और असुरक्षित है - हम तो प्रक्रति के प्रायोगिक प्राणी हैं -गुएना पिग ! देखिये ऊँट किस करवट बैठता है अंततः !
    क्या जाने सुदूर भविष्य में नारी पूर्णतः घर के बाहर हो और पुरुष भीतर ....तब वह महज अंडज होगी ,बच्चे प्रयोगशाला में जन्मेगें पलेगें और केवल मादा भ्रूण बचाए जायेगें -पुरुष महज चिड़ियाघरों के किसी विलुप्त प्राय प्राणी सा दर्शित होगा ! तब वह नारी के दया का पात्र होगा केवल -मार दिया जाय या छोड़ दिया जाय ? हा हा ! वह नारी वादी आंदोलनों की शायदचरम परिणति होगी -क्षमा देवि,विषय से भटक गया काफी मगर क्या सचमुच ?

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  3. इतना डरने की ज़रूरत नहीं है. नारीवादी अन्दोलन का उद्देश्य मात्र मानसिकता को बदलना है. बाकी स्थिति कैसी बनती है यह तो समय बतायेगा. पर आप खुद ही देख लीजिये, पढ़ी-लिखी समझदार औरतें भी शिशु के जन्म और पालन-पोषण पर कहीं अधिक ध्यान देती हैं. औरत न माँ बनने से इन्कार कर सकती है और न ही सभी औरतें नौकरी करने लग जायेंगी.

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  4. बहुत सही आलेख है।
    नारी के प्राकृतिक काम नारी ही करेगी और पुरुषों के पुरुष ही। वास्तव में दुनिया की सारी स्त्रियाँ आज भी जितना उत्पादक काम करती हैं। वह दुनिया के सारे पुरुषों के उत्पादक कार्यों से बहुत अधिक है। आप ने इस लघु आलेख से बहुत बड़ा काम किया है।

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  5. आराधना जी,

    शायद इस सोच को बदलने के लिये हमें सामाजिक ढाँचे में ही मूलभूत बदलाव लाना होगा, नारी भोग्या है/वस्तु है/पूज्या है जैसे सन्दर्भों से ऊपर उठ नारी को एक नये रूप अपने बराबर का दर्जा देने की जरूरत होगी वहीं दूसरी ओर वो सब व्यवस्थायें जो कि पुरूष और महिला को लिंग के आधार पर विभक्त कर देती हैं को समाप्त भी करना होगा।

    सादर,

    मुकेश कुमार तिवारी

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बहस चलती रहे, बात निकलती रहे...