संयुक्त हिन्दू परिवार में पैतृक
सम्पत्ति में महिलाओं का अधिकार
भारत
में संयुक्त हिन्दू परिवार में पैतृक सम्पत्ति में
महिलाओं का अधिकार नहीं था। भारतीय परंपरा में किसी संयुक्त परिवार की पैतृक सम्पत्ति मुख्यतः उसके पुरुष सदस्यों के मध्य ही विभाजित होती रही है। इसके अनुसार घर का मुखिया पिता होता हैपरिवा और वही पैतृक संपत्ति का
स्वामी होता है। पिता की मृत्यु के बाद यह उसके जीवित रहने पर ही यदि संपत्ति का
विभाजन होता है, तो संपत्ति सभी पुत्रों में बांट दी
जाती थी। सम्पत्ति के अधिनियम में 2005 के संशोधन के बाद अब ऐसी स्थिति नहीं है। पैतृक सम्पत्ति के इस अधिकार को हासिल करने के लिए महिला आंदोलनों और नारीवादी
विचारकों के साथ ही साथ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी महती भूमिका निभायी है।
पिछली पोस्ट में हमने हिन्दू स्त्रियों के सम्पत्ति के अधिकार के अंतर्गत स्त्रीधन की परिभाषा, प्रकार और कानूनी अधिकार के विषय में बताया था. इस पोस्ट में सम्पत्ति के अन्य अधिकार "पुत्रिका" एवं "संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में स्त्रियों के उत्तराधिकार" के विषय में बात करेंगे.
इसके पहले हमें यह
जानना होगा कि यहाँ हम "हिन्दू" शब्द का प्रयोग क्यों कर रहे हैं? किसी भी देश के
क़ानून उसके समाज के नियमों का सार होते हैं. समाज में
प्रचलित रीति-रिवाज, परम्पराएँ, प्रथाएँ आदि ही कालान्तर में क़ानून का रूप धारण कर लेते हैं. ये रीति-रिवाज और परम्पराएँ, जो किसी देश के विशेष समुदाय
या धर्म के विश्वासों पर आधारित होते हैं, उन्हें निजी
क़ानून कहा जाता है. निजी क़ानून अथवा पर्सनल लॉ जीवन के
जिन क्षेत्रों को प्रभावित करते हैं; वे हैं-
-संपत्ति का उत्तराधिकार, विरासत का हक
-विवाह तथा विवाह-विच्छेद (तलाक)
-गोद लेने का अधिकार
-पुत्र एवं पुत्री के अभिभावकत्व (गार्जियनशिप) का अधिकार
-परित्यक्ता व तलाकशुदा को गुजारा भत्ता मिलने का अधिकार
भारत में तीन प्रमुख धर्मों के निजी क़ानून हैं. इनके
अलावा पारसी व पुर्तगाली सिविल कोड हैं. सीख, जैन, बौद्ध व आदिवासी अपने विवाह; विवाह-विच्छेद, अपनी-अपनी सामाजिक रीतियों के अनुसार करते हैं- मगर
कानूनन इन्हें हिन्दू माना गया है.
हिंदुओं के धार्मिक कानूनों की जड़ धर्मशास्त्रों तथा विधि-संहिताओं में है. हिंदुओं में संपत्ति का
उत्तराधिकार याज्ञवल्क्यस्मृति की प्रसिद्ध टीका मिताक्षरा के दायभाग प्रकरण पर आधारित
है. संपत्ति के उत्तराधिकार के नियम हिन्दू कोड में
समाज की प्रथा से बंधे हुए हैं.
हिन्दू सम्पत्ति के उत्तराधिकार के बंटवारे का आधार
भारत में हिन्दुओं
के व्यक्तिगत कानून (personal law) अधिकतर स्मृतियों
के प्रावधानों पर आधारित हैं। पर्सनल ला के अंतर्गत सम्पत्ति-सम्बन्धी कानून,
गोद लेने-देने के कानून और विवाह-सम्बन्धी कानून आते हैं।
सम्पत्ति के बँटवारे और उत्तराधिकार के कानून भी स्मृतियों मुख्यतः
मनस्मृति और याज्ञवल्क्यस्मृति पर आधारित हैं। मनु के अनुसार माता पिता के मरने पर
सब भाई एकत्रित होकर पैतृक अर्थात् पितृ-संबंधी संपत्ति को बराबर बांट लें। इसी
प्रकार याज्ञवल्क्य ने भी कहा है कि यदि पिता संपत्ति का विभाग करें, तो उसे अपनी इच्छा अनुसार पुत्रों में बांटे अथवा माता पिता की मृत्यु के
बाद सभी पुत्र संपत्ति का विभाजन करें। इस प्रकार पिता की संपत्ति पर मात्र
पुत्रों का ही अधिकार माना गया पुत्रियों का नहीं।
पुत्रियों को पैतृक संपत्ति में अधिकार तो नहीं मिला, लेकिन पुत्रों के
लिए मनु और याज्ञवल्क्य स्मृति दोनों में यह निर्देश अवश्य दिया गया है कि यदि
बहनों का विवाह संस्कार ना हुआ हो, तो सभी भाई अपने भाग
का चौथा अंश देकर उनका संस्कार करें। मनुस्मृति के अनुसार यदि वे ऐसा नहीं करते
हैं, तो पतित होते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार
के दंड की व्यवस्था नहीं की गयी। अर्थात् भाइयों पर अपनी बहनों के विवाह के लिए धन
देने की नैतिक बाध्यता थी, ना कि वैधानिक।
विभाजन में माता के भाग के संबंध में याज्ञवल्क्यस्मृति की व्यवस्था
है कि उसे भी विभाजन के समय पुत्रों के बराबर भाग मिलता है, किंतु यहाँ भी वही
शर्त है कि यदि उन्हें स्त्रीधन ना मिला हो तो उनका उतना भाग कम हो जाएगा।
पैतृक संपत्ति में स्त्रियों के विभाजन का अधिकार ना देने के पीछे
प्रायः यह मान्यता थी कि स्त्रियों की परिवार से इतर स्वतंत्र स्थिति नहीं होती। पति पत्नी की
संपत्ति साझी मानी जाती थी। उनका अलग-अलग हिस्सा नहीं होता इसलिए पत्नी का भाग पति
के भाग में ही सम्मिलित मान लिया जाता है। मनुस्मृति में एक स्थान पर स्पष्ट लिखा
है कि स्त्री, पुत्र तथा दास, इन तीनों को (मनु आदि महर्षियों ने) निर्धन ही कहा है। ये जो कुछ उपार्जन
करते हैं, वह उसका होता है जिसके वे (भार्या, पुत्र या दास) हैं। (मनु 8/416)
इसी प्रकार पुत्रियों का विवाह होने के बाद वह अपने पति के घर चली
जाती हैं। इसलिए पिता की संपत्ति में उन्हें हिस्सा नहीं दिया जाता। और माता के
भरण पोषण का दायित्व तो पुत्र का होता ही है। अतः उन्हें भी अलग संपत्ति नहीं दी जाती।
संयुक्त परिवार की अन्य स्त्रियों के भरण-पोषण की जिम्मेदारी भी
सामूहिक रूप से पूरे परिवार की होती थी। इसलिए इसलिए के लिए संपत्ति की अलग से कोई
व्यवस्था नहीं की गई।
मनु और याज्ञवल्क्य ने तो मात्र इतना ही उल्लेख किया कि परिवार के
मुखिया की मृत्यु के पश्चात उस परिवार की कुल संपत्ति उस व्यक्ति के पुत्रों में
विभाजित हो जाएगी। यह विभाजन उस व्यक्ति के जीवित रहने पर भी हो सकता था, किंतु
याज्ञवल्क्य स्मृति की मिताक्षरा टीका में विश्वरूप ने संयुक्त हिंदू परिवार की संपत्ति के विभाजन का विस्तृत और स्पष्ट
विवेचन किया। यही कारण है कि पश्चात्काल में संपत्ति के विभाजन की मिताक्षरा
व्यवस्था समाज में अधिक प्रचलित हुई। ब्रिटिशकाल में इसे कानूनी रूप से मान्यता
देकर अपना लिया गया और स्वतंत्रता के पश्चात भारत में हिंदुओं के लिए बनाए गए
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 में मिताक्षरा कोई संपत्ति के विभाजन के आधार के रूप में अपनाया गया।
इस अधिनियम के पूर्व हिन्दू अपनी शास्त्रीय और परम्परागत विधियों से तो शासित होते ही थे, अपितु अलग-अलग राज्यों और जातियों के लिए भी भिन्न-भिन्न क़ानून थे । उत्तराधिकार-संबंधी क़ानून भी भिन्न-भिन्न शास्त्रीय सिद्धांतों पर आधारित थे, जैसे बंगाल और उसके आसपास दायभाग; बंबई, कोंकण, और गुजरात में मयूख; केरल में मरुमकट्टयम या नम्बूदरी और शेष भारत में मिताक्षरा। उत्तराधिकार कानूनों की अलग-अलग व्यवस्था ने संपत्ति के अधिकार को अत्यधिक जटिल बना दिया। संयुक्त परिवार में स्त्री की स्थिति इस प्रकार की थी कि उसे जीवन-यापन के लिए भरण-पोषण प्राप्त करने के अधिकार तो थे, पर संपत्ति पर स्वामित्व का अधिकार नहीं था। मिताक्षरा व्यवस्था के अंतर्गत स्त्रियाँ संयुक्त हिन्दू परिवार की संपत्ति में विभाजन की अधिकारिणी नहीं हो सकतीं थीं।
पुत्रिका उस पुत्री को कहा जाता है, जिसका भाई न होने पर पिता उसे अपने पुत्र के समान मान लेता है । पुत्रिका का पुत्र, पुत्रिका के पिता की संपत्ति का उत्तराधिकारी होता है और उसकी श्राद्ध-क्रिया भी वही करता है। मनुस्मृति में यह प्रावधान है कि ऐसी पुत्रिका का वाग्दान करते समय पिता अपने जामाता से ऐसा वचन लेगा कि इस पुत्री का होने वाला पुत्र उसका श्राद्ध करेगा.[ii] इस प्रकार पुत्री पिता की संपत्ति तभी प्राप्त कर सकती थी, जबकि उसका कोई भाई ना हो और उसके पिता ने उसे ही पुत्र मान लिया हो ।ध्यातव्य हो कि पिता की संपत्ति इस प्रकार पुत्रिका को न मिलकर उसके पुत्र को ही प्राप्त होती थी अर्थात वह अपने पिता की संपत्ति की स्वामिनी नहीं, अपितु संरक्षिका की भाँति होती थी । मनु के अनुसार पुत्रिका के बिना पुत्र उत्पन्न किये ही मृत्यु को प्राप्त करने पर उसका पति अपने श्वसुर की संपत्ति ग्रहण करता है।[iii] वर्तमान काल में भी ये परम्परा चली आ रही है, जिसे पूर्वी उत्तर प्रदेश में नेवासा प्राप्त होना कहते हैं. जब किसी लड़के को नेवासा मिलता है तो वह अपने नाना की श्राद्ध क्रिया करता है और उसकी संपत्ति का उत्तराधिकारी होता है।
ब्रिटिशकाल में महिलाओं का संपत्ति में अधिकार
यद्यपि ब्रिटिशकाल में, पूरा देश राजनीतिक और सामाजिक रूप से एकीकृत हो गया था, ब्रिटिश सरकार ने हिंदुओं एवं अन्य समुदायों के निजी धर्मों को नहीं छेड़ा । इस काल में चल रहे सुधार आन्दोलनों ने समाज में स्त्री की स्थिति के विषय में कई प्रश्न उठाये, जिसके परिणामस्वरूप हिंदुओं का उत्तराधिकार क़ानून अधिनियम 1929 पारित हुआ। इस अधिनियम के द्वारा महिला उत्तराधिकारियों की श्रेणी में तीन संबंधों को जोड़ा गया- पुत्र की पुत्री, पुत्री की पुत्री और बहन। दूसरा एक महत्त्वपूर्ण अधिनियम हिन्दू महिलाओं का संपत्ति का उत्तराधिकार अधिनियम 1937 मील का पत्थर साबित हुआ। इस अधिनियम ने न सिर्फ़ हिन्दू कानून की सभी शाखाओं को प्रभावित किया, बल्कि संपत्ति के उत्तराधिकार, विभाजन, संपत्ति से वंचित करना और गोद लेने के अधिकार आदि में भी परिवर्तन किया.[ix]
भारतीय संविधान के प्रावधान
संविधान के निर्माताओं ने समाज में महिलाओं की भेदभावपूर्ण स्थिति की ओर ध्यान दिया और उसे दूर करने के उपाय किये। संविधान के अनुच्छेद 14, 15[2] और 3 और 16 महिलाओं के प्रति समाज के भेदभावपूर्ण रवैये को ना सिर्फ़ रोकते हैं, बल्कि राज्य को महिलाओं के पक्ष में उचित क़ानून बनाने की परिस्थितियों का निर्माण करते हैं । ये प्रावधान संविधान द्वारा प्रत्याभूत मूलभूत अधिकारों के अंतर्गत आते हैं। इसी प्रकार संविधान के भाग चार में उल्लिखित नीति-निर्देशक तत्व राज्य को निर्देश देते हैं कि वह प्रत्येक क्षेत्र में स्त्री और पुरुष के बीच भेदभाव को समाप्त करने की दिशा तथा समानता स्थापित करने के लिए उचित कदम उठाये।
[i] Manish Garg and Neha Nagar, Can women be Karta? Legal service india.com