मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

पश्चिमी नारीवाद बनाम भारतीय नारीवाद

आमतौर पर नारीवाद की बात चलने पर यह प्रश्न सभी के मन में उठता है कि नारीवाद की पाश्चात्य अवधारणा का भारत में क्या उपयोग है? और ये प्रश्न कुछ हद तक वाजिब भी है. खासकर के तब जब नारीवाद पर खुद पश्चिम में ही कई सवाल उठने लगे हों.

दरअसल, पश्चिम में नारीवाद एक विचारधारा के रूप में उभरकर तब सामने आया, जब वहाँ की औरतों को मूलभूत अधिकार प्राप्त हो चुके थे. हालांकि इसके लिए उन लोगों ने अलग-अलग छिटपुट रूप से ही सही, लंबी लड़ाइयाँ लड़ी थीं, तब जाकर उन्हें मताधिकार जैसे नागरिक अधिकार, राजनीतिक और कुछ आर्थिक अधिकार प्राप्त हुए. चूँकि उन्हें मूलाधिकार मिल चुके थे, इसलिए उनके मुद्दे उससे बढ़कर यौनिकता, यौन स्वतंत्रता, स्त्रीत्व की अवधारणाओं, पुरुष के वर्चस्व आदि से जुड़ गए. इस विषय में उल्लेखनीय यह है कि वहाँ तब नारीवादी आन्दोलन उच्चवर्गीय श्वेत महिलाओं के कब्ज़े में ही था, निम्नवर्गीय अथवा अश्वेत नारियाँ इससे अलग थीं.

तत्कालीन पाश्चात्य नारीवाद के समक्ष जो मुद्दे थे, भारत जैसे देशों के लिए महत्त्वपूर्ण तो थे, पर ज्यादा नहीं. भारतीय समाज आज भी एक सामंतवादी ढाँचे वाला समाज है और यहाँ की नारियों के सम्मुख सबसे बड़ी समस्या प्राचीनता थी, जिसके कारण उन्हें नागरिक अधिकारों के अलावा अन्य अधिकार लगभग नहीं के बराबर प्राप्त थे. हालांकि यहाँ भी नारियों का एक वर्ग था, जिन्हें जीवन की मूलभूत सुविधाएँ प्राप्त थीं और वे पश्चिमी नारीवाद के प्रभाव में थीं. इस प्रकार भारत में भी कुछ नारीवादी विचारक उन्हीं मुद्दों को उठाने लगे, जो कि पाश्चात्य नारीवाद के मुद्दे थे और जिनका यहाँ की ग्रामीण सामाजिक व्यवस्था में कोई ख़ास उपयोग नहीं था.

नारीवादी अवधारणा में व्यापक बदलाव नारीवाद की तीसरी लहर के बाद आया. नारीवाद की तीसरी लहर मुख्यतः लैटिन अमेरिकी, एशियाई और अश्वेत नारियों से सम्बन्धित थी. इस लहर पर उत्तर आधुनिक विचारधारा का प्रभाव था, जो विभिन्नताओं का सम्मान करती थी. विभिन्नता की अवधारणा के फलस्वरूप ही इस बात पर विचार किया जाने लगा कि एक जैसे सिद्धांत से सभी वर्गों की नारियों की समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता है. भिन्न-भिन्न वर्गों की समस्याएँ अलग-अलग हैं और इसीलिये उनका समाधान भी अलग ढंग से खोजा जाना चाहिए. इस लहर ने भारतीय नारीवादी आंदोलन पर गहरा प्रभाव डाला. यहाँ भी दलित नारियों ने नारीवादी आंदोलन पर आरोप लगाना शुरू किया कि वह उच्चवर्गीय सवर्ण नारियों का प्रतिनिधित्व करता है और दलित, ग्रामीण और निर्धन महिलाओं को बाहर छोड़ देता है.

इसके फलस्वरूप नारीवादी विचारकों का ध्यान भारतीय समाज की विभिन्नता पर गया और इस बात पर विचार-विमर्श शुरू हो गया कि 'नारीवाद' को भारतीय समाज के अनुसार किस प्रकार ढाला जा सकता है? यह अस्सी-नब्बे का दशक था  और इसी समय भारतीय समाज के लिए 'ब्राह्मणवादी पितृसत्ता' शब्द का प्रयोग किया जाने लगा. यह शब्द हमारे समाज की जटिल सरंचना और उसके फलस्वरूप दलित नारियों के होने वाले तिहरे शोषण को व्यक्त करता है.  दलित नारी जाति, वर्ग और पितृसत्ता तीनों के द्वारा शोषण का शिकार होती है. उसे औरत होने के कारण उसके समाज का पुरुष शोषित करता है, गरीब मजदूर होने के कारण भू-स्वामी शोषित करता है और दलित होने के कारण उसे सवर्णों द्वारा अपमान सहना पड़ता है.

भारत में वर्तमान नारीवादी अवधारणा इस बात पर विचार करती है कि गरीब, ग्रामीण, दलित और अल्पसंख्यक महिलाओं की समस्याएँ अलग हैं और धनी तथा सवर्ण औरतों की अलग, अतः इन पर भिन्न-भिन्न ढंग से विचार करना चाहिए. वर्तमान नारीवाद नारी के साथ ही उन सभी दलित और शोषित तबकों की बात करता है, जो सदियों से समाज के हाशिए पर धकेल दिए गए हैं. यह मानता है कि स्वयं नारीवादी आंदोलन के अंतर्गत कई धाराएँ एक साथ काम कर सकती हैं, भले ही उनके रास्ते अलग-अलग हों पर उनका गंतव्य एक ही है. इसलिए सबको एक साथ आगे आना चाहिए.

बुधवार, 22 सितंबर 2010

स्त्री देह के बाजारीकरण पर सवालों के माध्यम से विचार-विमर्श

आमतौर पर हम समाज में घटने वाली घटनाओं को तो देखते हैं, पर उनके पीछे के कारणों को जानने का कभी प्रयास नहीं करते हैं. आज की नारी को बदलती सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था के चलते पहले की अपेक्षा बहुत सी सहूलियतें मिली हैं. इतनी कि उन्हें मुक्त मान लिया गया है. जब हम माडलों, हिरोइनों और अन्य पेशों में आगे बढ़ती औरत को देखते हैं, तो ये मान बैठते हैं कि औरत आज़ाद हो गयी है और फिर ये सोच लेते हैं कि वो अपनी आज़ादी का गलत फायदा भी उठाने लगी है. सौंदर्य प्रतियोगिताओं में भाग लेने वाली औरत हो या कॉपरेट जगत की नारी, ये मान लिया जाता है कि वो अपनी देह को हथियार बनाकर आगे बढ़ने लगी है. टी.वी. में विज्ञापनों में औरतों के देह-प्रदर्शन पर भी उसे ही दोषी मान लिया जाता है. पर, उसके पीछे के कारणों को जानने की कोशिश नहीं की जाती.
प्रश्न ये हैं कि क्या वाकई आज की औरत आज़ाद हो गयी है... इतनी आज़ाद कि अपनी देह को हथियार की तरह  इस्तेमाल करके आगे बढ़ रही है? क्या उसकी सभी समस्याओं का अंत हो गया है? क्या उसे वे सभी अधिकार मिल गए हैं, जिनके लिए वो दशकों से लड़ाई लड़ रही थी? कुछ इन्हीं प्रश्नों के उत्तर ढूंढती एक पुस्तक आजकल पढ़ रही हूँ "स्त्री: मुक्ति का सपना" इसके मुख्य संपादक प्रो. कमला प्रसाद और राजेन्द्र शर्मा हैं, जबकि अरविंद जैन और लीलाधर मंडलोई अतिथि संपादक हैं.  यहाँ मैं अरविंद जैन के सम्पादकीय के कुछ उद्धरण दे रही हूँ, -
"स्त्री को 'देह के हथियार' से कितना 'सत्ता में हिस्सा'' मिला या मिला पाया- हम सब अच्छी तरह जांते हैं. पुरुषों के इस भयावह 'खेल' में स्त्री सहमति का निर्णय स्वयं ले रही है या 'सिक्का' (रुपया, डालर, पौंड ) ? देह के अर्थशास्त्र में स्वेच्छा और स्वतंत्रता का निर्णायक आधारबिंदु  क्या है? देह के व्यवसाय के मुनाफे और 'देह की कीमत' के बीच क्या अंतर्संबंध है? खेल के नियम, शर्तें और चुनाव प्रक्रिया कौन निर्धारित कर रहा है?"
इन सवालों से स्थिति स्पष्ट होती जाती है. हम ये तो देख रहे हैं कि पुरुष डियोडरेंट के विज्ञापन में औरतें बिकनी पहनकर दिख रही हैं, पर उनसे कौन ऐसा करा रहा है? कौन इस बात पर उन्हें मजबूर कर रहा है कि यदि वे ऐसा नहीं करेंगी तो प्रतिस्पर्धा से बाहर हो जायेंगी?
यदि ये कहा जाए कि औरतें अपना शोषण होने ही क्यों देती हैं, तो उसका उत्तर यह है कि औरतों का शोषण कहाँ नहीं होता? यदि कार्यस्थल पर हो रहे शोषण से बचने के लिए वे घर में बंद रहने का निर्णय लें, तो क्या उनका शोषण नहीं होता? क्या घर में भी औरतें पूरी तरह सुरक्षित हैं? नहीं.
शो बिजनेस में नारी देह के इस्तेमाल को अरविन्द जैन बहुत अच्छी तरह सामने रखते हैं-
"बहुराष्ट्रीय पूँजी के सामने सुन्दर स्त्री के विरोध, प्रतिरोध और मोलभाव का क्या कोई मतलब है? पुरुष उद्योगपतियों द्वारा पहले से तय कीमत (इनाम, पुरस्कार, पारिश्रमिक...) पर, जब हज़ारों विश्व सुंदरियों को लाइन लगाकर देह प्रदर्शन के लिए लाकर खड़ा कर दिया जाता हो, तब राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय दलाओं के हाथों में नाचती कठपुतलियाँ या सुन्दर गुडियाँ सिर्फ वस्तु, माल या साधन भर होती हैं. खरीददार की शर्तों पर खेल-खेलने में, सुन्दरी की हार पहले से ही निश्चित है..."
स्त्री को घर में रखने और वहाँ से बाहर निकालने का सारा काम इसी विश्वव्यापक पूँजी के खेल का एक हिस्सा है. खेल के नियम भी यही तय करती है, खिलाड़ियों को भी और हार-जीत को भी. एक ओर तो औरतों को घर में बैठाकर, उसके घरेलू काम को अनुत्पादक सिद्ध करके उसके अंदर आत्मविश्वास की कमी पैदा करती है, तो दूसरी ओर माडलिंग, एक्टिंग आदि जैसे शो बिज़ को ग्लैमराइज करके सुन्दर लड़कियों को उस ओर आकर्षित करती है. ध्यान दीजिए रैम्प पर सैकड़ों लोगों के सामने वाक् करने के लिए माडल के पास बहुत अधिक आत्मविश्वास होना चाहिए और उसके अंदर ये आत्मविश्वास भी वही पूँजी भरती है, जो हाउस वाइफ को नकारा सिद्ध करती रहती है.
ये कहा जा सकता है कि पूंजीवाद अपना व्यापार चलाने के लिए औरतों का मनचाहा इस्तेमाल करता है. चाहे उसे घर में रखना हो या रैम्प पर चलना हो. वह सिर्फ 'कार्य करने' के लिए होती है, जैसा उसे कहा जाता है या उसे दिखाया जाता है. सोचना और निर्णय लेना औरतों का नहीं, पुरुषों का कार्य है. क्योंकि विश्व की लगभग समस्त पूँजी उन्हीं के पास है. एक-दो को छोड़ दें तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सी.ई.ओज., फिल्म, राजनीति हर जगह पुरुषों का वर्चस्व है.  इन बातों से औरतें बिल्कुल अनभिज्ञ, उनके इशारों पर नाचती रहती हैं और जो विरोध करती है या प्रश्न उठाती है, उसे प्रतिस्पर्धा से बाहर होना पड़ता है या फिर नारीवादी (जो कि आजकल एक गाली की तरह प्रयुक्त हो रहा है) कहकर उन्हें हे दृष्टि से देखा जाने लगता है.

(उपर्युक्त पुस्तक गूगल बुक्स पर इस पते पर देखी जा सकती है-
http://www.google.com/books?id=B9_b5iySOMAC&source=gbs_slider_thumb

और इस जगह ऑर्डर देकर मंगाई जा सकती है अपने पते पर, मैंने इसी तरह मंगाई है-
http://www.vaniprakashan.in/book_detail.php?id=224

शनिवार, 31 जुलाई 2010

मैं ऐसा क्यों करती हूँ?

ये प्रश्न मैंने अपने आप से तब पूछा, जब किसी ने सीधे-सीधे मुझसे पूछ लिया कि मैं ये औरतों वाले मुद्दों के पीछे क्यों पड़ी रहती हूँ??? यह भी कहा कि आप नारीवादियों का बस एक ही काम है औरतों को उनके घर के पुरुषों के खिलाफ भड़काना और पुरुषों के विरुद्ध तरह-तरह के इल्जाम लगाना. आप ये सोच सकते हैं कि कोई मुझसे इतना सब कह गया और मैं सुनती गयी...हाँ, क्योंकि मैं जिस विषय पर शोध कर रही हूँ, जो मेरा मिशन है, उसका पूर्वपक्ष और प्रतिपक्ष सुनना ज़रूरी है. ये देखना ज़रुरी है कि ये मानसिकता हमारे समाज में कितनी गहरी पैठी है कि कोई नारी-सशक्तीकरण की बात सुनना ही नहीं चाहता, या फिर उसे सिर्फ गरीब औरतों से जोड़कर देखता है, पर इससे पहले ये जानना ज़रुरी है कि मैं ऐसा क्यों करती हूँ ? मतलब नारी मुद्दों पर लेख लिखना, कवितायें लिखना, बहस करना, विरोध करना और जिस जगह नारी-सम्बन्धी कोई अनुचित बात दिखे वहाँ कूद पड़ना.

मेरे मन में नारी-मुद्दों को लेकर जो अत्यधिक संवेदनशीलता है, वो सिर्फ इसलिए नहीं है कि मैं अपने जीवन में पुरुषों द्वारा सताई गयी हूँ, हालांकि मैंने भी बहुत कुछ झेला है, जो किसी भी भावुक औरत को विद्रोही बनाने के लिए पर्याप्त है. पर बात इतनी सी ही नहीं है... इससे कहीं आगे की है. मैं गहन अध्ययन और विचार-विमर्श में विश्वास करती हूँ और यह अध्ययन सिर्फ किताबी नहीं है, वास्तविक समाज का अध्ययन है, लोगों का अध्ययन है. इसी कारण मैं समाज को एक नए नजरिये से देखना चाहती हूँ, जो कि कोई भी तार्किक और संवेदनशील व्यक्ति कर सकता है, भले ही उसने उतनी पढ़ाई ना की हो.

हमारा समाज बहुत ही रुढिवादी है, जो कि ना सिर्फ परिवर्तन से डरता है बल्कि चीज़ों को नए दृष्टिकोण से देखना तक नहीं चाहता, पर मैं इतना कहूँगी कि अगर आप किसी बात को बस एक आयाम से देखते हैं, तो कभी भी प्रगति नहीं कर सकते. अगर आपने सिर्फ इतिहास पढ़ा और सबाल्टर्न इतिहास नहीं पढ़ा, तो आपका ज्ञान अधूरा है; सिर्फ संस्कृत पढ़ी, प्राकृत नहीं, तो आप अधूरी जानकारी रखते हैं, इसी तरह मनोविज्ञान के साथ समाजशास्त्र और मानवशास्त्र जुड़ा हुआ है. ये सच है कि कोई भी व्यक्ति एक साथ सभी अंतर्संबंधित विषयों पर मास्टरी नहीं हासिल कर सकता, पर फिर भी एक विषय के साथ अन्य विषयों का सामान्य ज्ञान होना चाहिए और विषय को अलग-अलग दृष्टिकोणों से पढ़ना चाहिये.

अब बात नारीवादी दृष्टिकोण की आती है. मेरा समाज को देखने का यह एक नजरिया है... ध्यान देने योग्य बात है कि 'एक मात्र' नजरिया नहीं. जैसे-जैसे मैं संस्कृत के नए ग्रंथों और अन्य लोकोक्तियों की बारे में पढ़ती जा रही हूँ,  इतिहास और समकालीन समाज को देखने का नारीवादी दृष्टिकोण और भी स्पष्ट होता जा रहा है. इतिहास को देखने के नारीवादी नजरिये के बारे में अपने पिछले लेख में मैं एक संक्षिप्त परिचय दे चुकी हूँ. जैसा कि हम सभी विश्वास करते हैं कि हमारी संस्कृति में नारी का सर्वोच्च स्थान था और उसमें कालान्तर में ह्रास आ गया, मुख्यतः मुस्लिम आक्रमणकारियों के कारण. इसका मतलब यह कि यदि मुस्लिम आक्रमणकारी नहीं आते तो हमारे देश में नारी की स्थिति घर-बाहर दोनों जगह सर्वोच्च होती. नारीवादी विचारक इस बात को सही नहीं मानते और विभिन्न तर्कों से अपने पक्ष को पुष्ट करते हैं. पिछले लेख में मैं इसे बता चुकी हूँ.

मैंने जब इन नारीवादी विचारकों के विचार पढ़े थे, तो उस पर आँख मूंदकर विश्वास नहीं किया था, क्योंकि मैं बहुत तार्किक हूँ और किसी की भी बात को बिना अपने तर्क की कसौटी पर उतारे नहीं मानती, लेकिन जैसे-जैसे मैं संस्कृत का अध्ययन और अधिक करती गयी मेरा यह नजरिया पुष्ट होता गया. मैं अभी शोध कर रही हूँ, इसलिए पूरी बात तो यहाँ नहीं रख सकती क्योंकि जो संस्था मुझे फेलोशिप दे रही है, उसकी नियमावली में है कि मैं थीसिस पूरी होने से पहले सम्बंधित विषय पर कुछ प्रकाशित नहीं कर सकती. पर कुछ निष्कर्ष जो मेरे अपने हैं उन्हें कुछ बिंदुओं में रखने का प्रयास कर रही हूँ---

(1.)-- सबसे पहले तो ये बात पूरी तरह सत्य नहीं है कि प्राचीनकाल में भारत में नारी की स्थिति सर्वोच्च थी. यह आंशिक सत्य है. समाज में विवाहिता स्त्री और माता का स्थान अन्य स्त्रियों की अपेक्षा उच्च था. विवाहिता तो अपने पति के अधीन थी, परन्तु माँ सबसे ऊपर थी. यहाँ तक कि उसे ईश्वर से भी उच्च माना गया. परन्तु इसके ठीक विपरीत जो स्त्री माँ नहीं बन पाती, उसे समाज की उपेक्षा झेलनी पड़ती, जो अब भी कायम है. इसी तरह अविवाहित अथवा विधवा को समाज में बिल्कुल सम्मान नहीं मिलता था. स्त्रियों की स्थिति पुरुषों से उनके संबंध के सापेक्ष थी. ये परम्परा अब भी कायम है. समाज में जो सम्मान विवाहित स्त्रियों को प्राप्त है, वह अविवाहित, तलाकशुदा या विधवा को नहीं और उस पर विडम्बना यह कि विवाहित स्त्री के घरेलू कार्य को उपेक्षा से देखकर समय-समय पर उसकी औकात को बताया जाता रहता है.

(2.)--प्राचीन संस्कृत-साहित्य में स्थापित नारी की 'सती' वाली आदर्श छवि से इतर भी एक छवि रही है और वह थी एक स्वतन्त्र नारी की छवि, जिसे 'कन्या' कहा गया. यह नारी अपने कार्यों और निर्णयों के लिए और यहाँ तक कि यौन-संबंधों के लिए भी किसी एक पुरुष के अधीन नहीं थी. वह अपने निर्णय लेने के लिए पूरी तरह स्वतन्त्र थी. शास्त्रों में नहीं, अपितु लोक में उसे मान्यता प्राप्त थी. कुंती, द्रौपदी, देवयानी, उर्वशी और सूर्पनखा इसी श्रेणी में आती हैं. यह सभी लोग जानते हैं कि सूर्पनखा ने राम और लक्ष्मण से प्रणय-निवेदन किया था और इसी प्रकार देवयानी ने कच से और उर्वशी ने अर्जुन से प्रणय-निवेदन किया था. ये अलग बात है कि इन सभी को इस कार्य के लिए दंड भोगना पड़ा. क्योंकि तब भी पुरुषप्रधान समाज का एक वर्ग था जो कि स्त्रियों की इस विषय में स्वतंत्रता नहीं पसंद करता था. और भी उदाहरण हैं, विस्तार के भय से और नहीं लिख रही हूँ.

(3.)-- यह भी गलत तथ्य है कि औरतों की स्थिति में ह्रास अर्थात पर्दाप्रथा, सतीप्रथा, बालविवाह आदि मुस्लिमों के आक्रमण के बाद समाज में आये. घूँघट डालना संभ्रांत घरों की स्त्रियों में प्राचीनकाल से प्रचलित है और (उदाहरण- अभिज्ञान शाकुंतल का पाँचवाँ अंक, जब शकुंतला घूँघट डालकर दुष्यंत की सभा में जाती है और बाणभट्ट की कादम्बरी में चांडाल कन्या)  इसी प्रकार बालविवाह ( मनुस्मृति) और सती प्रथा (महाभारत) भी. मात्र जौहरप्रथा मुस्लिमकाल के बहुत बाद मुख्यतः राजपूतों में प्रचलित हुयी.

(4.)-- तत्कालीन विभेदकारी सामाजिक व्यवस्था को लेकर नारियों के एक वर्ग में असंतोष था, जो कि समय-समय पर बाहर आ जाता था, जैसा कि मैंने अपने इस लेख में लिखा है कि किस प्रकार प्राचीन भारत में भी नारी द्वारा सामाजिक विरोध के उदाहरण मिलते हैं.

इस प्रकार मेरे लिए नारीवाद ना सिर्फ एक आंदोलन है, एक विचारधारा है, बल्कि समाज को समझने का एक दृष्टिकोण और उपागम भी है. हमें इतिहास को अवश्य एक नए नज़रिए से देखना होगा और इसके लिए संस्कृत साहित्य को भी नए प्रकार से पढ़ना होगा, ताकि उन लोगों को जवाब दिया जा सके जो भारतीय संस्कृति में औरतों की सर्वोच्च स्थिति के विषय में एक-आध ग्रंथों से कुछ श्लोक उद्धृत करके यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि हमारे देश में इस प्रकार के आंदोलनों की कोई ज़रूरत नहीं है. सच तो यह है कि औरतों के लिए सरकारी स्तर पर, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा, एन.जी.ओज द्वारा और स्वयंसेवी संगठनों द्वारा किये जा रहे इतने प्रयासों के बावजूद उनका सशक्तीकरण इसलिए नहीं हो पा रहा है क्योंकि हमारे यहाँ के पुरुष अभी भी यह मानने को ही तैयार नहीं होते कि औरतों के साथ भेदभाव होता है और सदियों से होता आया है. हम आज भी अतीत की स्वर्णिम कल्पनाओं में डूबे हुए हैं और जाने कब उबर पायेंगे???
   

गुरुवार, 1 जुलाई 2010

प्राचीन भारत में स्त्री

प्राचीन भारत में स्त्रियों की दशा के विषय में इतिहासकारों के अलग-अलग दृष्टिकोण हैं. स्थूल रूप में इन ऐतिहासिक दृष्टिकोणों को चार श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है -
  1. राष्ट्रवादी दृष्टिकोण
  2. वामपंथी दृष्टिकोण
  3. नारीवादी दृष्टिकोण
  4. दलित लेखकों का दृष्टिकोण
    जहाँ राष्ट्रवादी विचारक यह मानते हैं कि वैदिक-युग में भारत में नारी को उच्च-स्थिति प्राप्त थी. नारी की स्थिति में विभिन्न बाह्य कारणों से ह्रास हुआ. परिवर्तित परिस्थितियों के कारण ही नारी पर विभिन्न बन्धन लगा दिये गये जो कि उस युग में अपरिहार्य थे. इसी प्रकार वर्ण-व्यवस्था को भी कर्म पर आधारित और बाद के काल की अपेक्षा लचीला बताते हुये ये विचारक उसका बचाव करते हैं. वामपंथी विचारक राष्ट्रवादी विद्वानों के इन विचारों से सर्वथा असहमत हैं. उनके अनुसार स्त्रियों तथा शूद्रों की अधीन स्थिति तत्कालीन उच्च-वर्ग का षड्यंत्र है, जिससे वे वर्ग-संघर्ष को दबा सकें. उच्च-वर्ग अर्थात्मुख्यतः ब्राह्मण (क्योंकि समाज के लिये नियम बनाने का कार्य ब्राह्मणों का ही था) शूद्रों को अस्पृश्यता के नाम पर तथा नारियों को परिवारवाद के नाम पर संगठित नहीं होने देना चाहते थे.
    नारीवादी विचारक भी राष्ट्रवादी दृष्टिकोण का विरोध करते हैं. उनके अनुसार तत्कालीन सामाजिक ढाँचा पितृसत्तात्मक था और धर्मगुरुओं ने जानबूझकर नारी की अधीनता की स्थिति को बनाये रखा. ये विचारक यह भी नहीं मानते कि वैदिक युग में स्त्रियों की बहुत अच्छी थी, हाँ स्मृतिकाल से अच्छी थी, इस बात पर सहमत हैं. दलित विचारक स्मृतियों और विषेशत मनुस्मृति के कटु आलोचक हैं. वे यह मानते हैं कि शूद्रों की युगों-युगों की दासता इन्हीं स्मृतियों के विविध प्रावधानों का परिणाम है. वे मनुस्मृति के प्रथम अध्याय के ३१वें[i] और ९१वें[ii] श्लोक का मुख्यतः विरोध करते हैं जिनमें क्रमशः शूद्रों की ब्रह्मा की जंघा से उत्पत्ति तथा सभी वर्णों की सेवा शूद्रों का कर्त्तव्य बताया गया है.
     प्राचीन भारत में नारी की स्थिति के विषय में सबसे अधिक विस्तार से वर्णन राष्ट्रवादी विचारक ए.एस. अल्टेकर ने अपनी पुस्तक में किया है. उन्होंने नारी की शिक्षा, विेवाह तथा विवाह-विच्छेद, गृहस्थ जीवन, विधवा की स्थिति, नारी का सार्वजनिक जीवन, धार्मिक जीवन, सम्पत्ति के अधिकार, नारी का पहनावा और रहन-सहन, नारी के प्रति सामान्य दृष्टिकोण आदि पर प्रकाश डाला है. अल्टेकर के अनुसार प्राचीन भारत में वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति समाज और परिवार में उच्च थी, परन्तु पश्चातवर्ती काल में कई कारणों से उसकी स्थिति में ह्रास होता गया. परिवार के भीतर नारी की स्थिति में अवनति का प्रमुख कारण अल्टेकर अनार्य स्त्रियों का प्रवेश मानते हैं. वे नारी को संपत्ति का अधिकार देने, नारी को शासन के पदों से दूर रखने, आर्यों द्वारा पुत्रोत्पत्ति की कामना करने आदि के पीछे के कारणों को जानने का प्रयास करते हैं तथा उन्होंने कई बातों का स्पष्टीकरण भी दिया है. उदाहरण के लिये उनके अनुसार महिलाओं को सम्पत्ति का अधिकार देने का कारण यह है कि उनमें लड़ाकू क्षमता का अभाव होता है, जो कि सम्पत्ति की रक्षा के लिये आवश्यक होता है. इस प्रकार अल्टेकर ने उन अनेक बातों में भारतीय संस्कृति का पक्ष लिया है, जिसके लिये हमारी संस्कृति की आलोचना की जाती है. उन्होंने अपनी पुस्तक के प्रथम संस्करण की भूमिका में स्वयं यह स्वीकार किया है कि निष्पक्ष रहने के प्रयासों के पश्चात्भी वे कहीं-कहीं प्राचीन संस्कृति के पक्ष में हो गये हैं. प्रसिद्ध राष्ट्रवादी इतिहासकार आर. सी. दत्त ने भी अल्तेकर के दृष्टिकोण का समर्थन किया है उनके अनुसार, "महिलाओं को पूरी तरह अलग-अलग रखना और उन पर पाबन्दियाँ लगाना हिन्दू परम्परा नहीं थी. मुसलमानों के आने तक यह बातें बिल्कुल अजनबी थीं... . महिलाओं को ऐसी श्रेष्ठ स्थिति हिन्दुओं के अलावा और किसी प्राचीन राष्ट्र में नहीं दी गयी थी."[iii] शकुन्तला राव शास्त्री ने अपनी पुस्तकवूमेन इन सेक्रेड लॉज़में इसी प्रकार के निष्कर्ष प्रस्तुत किये हैं.
     आधुनिक काल के प्रमुख नारीवादी इतिहासकारों तथा विचारकों ने अल्टेकर और शास्त्री के उपर्युक्त स्पष्टीकरणों की आलोचना की है. आर.सी. दत्त के विरोध में प्रसिद्ध नारीवादी विचारक डा. उमा चक्रवर्ती कहती हैं, "... ... मनु तथा अन्य कानून-निर्माताओं ने लड़कियों की कम उम्र में ही शादी की हिमायत की थी. सातवीं सदी में हर्षवर्धन के प्राम्भिक काल से संबंधित विवरणों में सती-प्रथा उच्च जति की महिलाओं के साथ साफ़ जुड़ी देखी जा सकती है. महिलाओं का अधीनीकरण सुनिश्चित करने वाली संस्थाओं का ढाँचा अपने मूलरूप में मुस्लिम धर्म के उदय से भी काफ़ी पहले अस्तित्व में चुका था. इस्लाम के अनुयायियों का आना तो इन तमाम उत्पीड़क कुरीतियों को वैधता देने के लिये एक आसान बहाना भर है."[iv]
    नारीवादी विचारकों ने यह माना है कि प्राचीन भारत में नारी की स्थिति में ह्रास का कारण हिन्दू समाज की पितृसत्तात्मक संरचना थी कि कोई बाहरी कारण. इसके लिये नारीवादी विचारक प्रमुख दोष स्मृतियों के नारी-सम्बन्धी नकारात्मक प्रावधानों को देते हैं, क्योंकि तत्कालीन समाज में स्मृतिग्रन्थ सामाजिक आचारसंहिता के रूप में मान्य थे और उनमें लिखी बातों का जनजीवन पर व्यापक प्रभाव था. प्रमुख स्मृतियों में नारी-शिक्षा पर रोक, उनका कम उम्र में विवाह करने सम्बन्धी प्रावधान, उनको सम्पत्ति में समान अधिकार देना आदि प्रावधानों के कारण समाज में स्त्रियों की स्थिति में अवनति होती गयी. नारीवादी विचारकों के अनुसार हमें अपनी कमियों का स्पष्टीकरण देने के स्थान पर उनको स्वीकार करना चाहिये ताकि वर्तमान में नारी की दशा में सुधार लाने के उपाय ढूँढे़ जा सकें.


सन्दर्भ :
[i]  “लोकानां तु विवृद्धि अर्थं मुख- बाहु- ऊरु- पादतः
   ब्राह्मणं  क्षत्रिय  वैश्यं  शूद्रं        निरवर्तयत्‌“ /३१ मनुस्मृति.
[ii]  “एकम्एव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्
  एतेषाम्एव वर्णानां  शुश्रूषाम्‌   अनुसूयया/९१ मनुस्मृति.
[iii] पृष्ठ संख्या २३, द सिविलाइजेशन ऑफ इण्डिया, आर.सी. दत्त, प्रकाशक-रूपा कंपनी, नई दिल्ली, २००२.
[iv] पृष्ठ संख्या १२९, अल्टेकेरियन अवधारणा के परे : प्रारंभिक भारतीय इतिहास में जेंडर संबंधों का नई समझ, उमा चक्रवर्ती, नारीवादी राजनीति, संघर्ष एवं मुद्दे, साधना आर्य, निवेदिता मेनन, जिनी लोकनीता, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, २००१.

शुक्रवार, 18 जून 2010

लिंग समानता बनाम नारी-सशक्तीकरण

    ये पोस्ट मेरे शोध कार्य का अंश है. मैं इस विषय पर शोध कर रही हूँ कि किस प्रकार हमारे धर्मशास्त्रों ने नारी-सशक्तीकरण पर प्रभाव डाला है? क्या ये प्रभाव मात्र नकारात्मक है अथवा सकारात्मक भी है? जहाँ एक ओर हम मनुस्मृति के "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते" वाला श्लोक उद्धृत करके ये बताने का प्रयास करते हैं कि हमारे देश में प्राचीनकाल में नारी की पूजा की जाती थी, वहीं कई दूसरे ऐसे श्लोक हैं (न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति आदि) जिन्हें नारी के विरुद्ध उद्धृत किया जाता है और ये माना जाता है कि इस तरह के श्लोकों ने पुरुषों को बढ़ावा दिया कि वे औरतों को अपने अधीन बनाए रखने को मान्य ठहरा सकें. मेरे शोध का उद्देश्य यह पता लगाना है कि इन धर्मशास्त्रीय प्रावधानों का नारी की स्थिति पर किस प्रकार का प्रभाव अधिक पड़ा है.
    आज से कुछ दशक पहले हमारा समाज इन धर्मशास्त्रों से बहुत अधिक प्रभावित था. अनपढ़ व्यक्ति भी "अरे हमारे वेद-पुराण में लिखा है" कहकर अपनी बात सिद्ध करने का प्रयास करते थे, चाहे उन्होंने कभी उनकी सूरत तक न देखी हो. आज स्थिति उससे बहुत भिन्न है, कम से कम प्रबुद्ध और पढ़ा-लिखा वर्ग तो सदियों पहले लिखे इन ग्रंथों की बात नहीं ही करता है. पर फिर भी कुछ लोग हैं, जो आज भी औरतों के सशक्तीकरण की दिशा इन शास्त्रों के आधार पर तय करना चाहते हैं... अथवा अनेक उद्धरण देकर यह सिद्ध करना चाहते हैं कि 'हमारा धर्म अधिक श्रेष्ठ है' और 'हमारे धर्म में तो औरतें कभी निचले दर्जे पर समझी ही नहीं गयी' और मजे की बात यह कि यही लोग अपने घर की औरतों को घर में रखने के लिए भी शास्त्रों से उदाहरण खोज लाते हैं. यानी  चित भी मेरी पट भी मेरी. 
    मेरा कार्य इससे थोड़ा अलग हटकर है. मैं इन शास्त्रों द्वारा न ये सिद्ध करने की कोशिश कर रही हूँ कि प्राचीन भारत में नारी की स्थिति सर्वोच्च थी और उसके साथ कोई भेदभाव होता ही नहीं था (क्योंकि ये सच नहीं है गार्गी-याज्ञवल्क्य संवाद इसका उदाहरण है) और न ये सिद्ध करने की कोशिश कर रही हूँ कि नारी की वर्तमान स्थिति के लिए पूरी तरह शास्त्र उत्तरदायी हैं... मैं यह जानने का प्रयास कर रही हूँ कि धर्मशास्त्रों के प्रावधान वर्तमान में हमारे समाज में कहाँ तक प्रवेश कर पाए हैं और पुनर्जागरण काल से लेकर आज तक नारी-सशक्तीकरण पर कितना और किस प्रकार का प्रभाव डाल पाए हैं? 
    वस्तुतः धर्मशास्त्रीय प्रावधानों ने नारी की स्थिति मुख्यतः उसके सशक्तीकरण की प्रक्रिया पर क्या प्रभाव डाला है... इसे जानने से पूर्व सशक्तीकरण को जानना आवश्यक है. सशक्तीकरण को अलग-अलग विद्वानों ने भिन्न-भिन्न रूप में परिभाषित किया है. कैम्ब्रिज शब्दकोष इसे प्राधिकृत करने के रूप में परिभाषित करता है. लोगों के सम्बन्ध में इसका अर्हत होता है उनका अपने जीवन पर नियंत्रण. सशक्तीकरण की बात समाज के कमजोर वर्ग के विषय में की जाती है, जिनमें गरीब, महिलायें, समाज के अन्य दलित और पिछड़े वर्ग के लोग सम्मिलित हैं. औरतों को सशक्त बनाने का अर्थ है 'संसाधनों पर नियंत्रण स्थापित करना और उसे बनाए रखना ताकि वे अपने जीवन के विषय में निर्णय ले सकें या दूसरों द्वारा स्वयं के विषय में लिए गए निर्णयों को प्रभावित कर सकें.'  एक व्यक्ति सशक्त तभी कहा जा सकता है, जब उसका समाज के एक बड़े हिस्से के संसाधन शक्ति पर स्वामित्व होता है. वह संसाधन कई रूपों में हो सकता है जैसे- निजी संपत्ति, शिक्षा, सूचना, ज्ञान, सामाजिक प्रतिष्ठा, पद, नेतृत्व तथा प्रभाव आदि. स्वाभाविक है कि जो अशक्त है उसे ही सशक्त करने की आवश्यकता है और यह एक तथ्य है कि हमारे समाज में औरतें अब भी बहुत पिछड़ी हैं... ये बात हमारे नीति-निर्माताओं, प्रबुद्ध विचारकों, अर्थशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों के द्वारा मान ली गयी है.  कुछ लोग चाहे जितना कहें कि औरतें अब तो काफी सशक्त हो गयी हैं या फिर यदि औरतें सताई जाती हैं तो पुरुष भी तो कहीं-कहीं शोषित हैं. 
    विभिन्न विचारकों द्वारा ये मान लिया गया है कि भारत में औरतों की दशा अभी बहुत पिछड़ी है... इसीलिये विगत कुछ दशकों से प्रत्येक स्तर पर नारी-सशक्तीकरण के प्रयास किये जा रहे हैं. इन प्रयासों के असफल होने या अपने लक्ष्य को न प्राप्त कर पाने का बहुत बड़ा कारण अशिक्षा है, परन्तु उससे भी बड़ा कारण समाज की पिछड़ी मानसिकता है. जब हम आज भी इस बात को स्वीकार नहीं कर पाए हैं कि हमारे समाज में लैंगिक भेदभाव है, तो उसे दूर करने और नारी को सशक्त बनाने की बात ही कहाँ उठती है? हम अब भी नारी के साथ हो रही हिंसा के लिए सामाजिक संरचना को दोष न देकर व्यक्ति की मानसिक कुवृत्तियों को दोषी ठहराने लगते हैं...हम में से अब भी कुछ लोग औरतों को पिछड़ा नहीं मानते बल्कि कुछ गिनी-चनी औरतों का उदाहरण देकर ये सिद्ध करने लगते हैं कि औरतें कहाँ से कहाँ पहुँच रही हैं...?
   हाँ, कुछ औरतें पहुँच गयी हैं अपने गंतव्य तक संघर्ष करते-करते, पर अब भी हमारे देश की अधिकांश महिलायें आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से भी पिछड़ी हैं. उन्हें आगे लाने की ज़रूरत है.

मंगलवार, 30 मार्च 2010

छेड़छाड़ की समस्या : समाधान के कुछ सुझाव (2.)

हम प्रायः इस ग़लतफ़हमी में रहते हैं कि हमारे घर-परिवार के पुरुष सदस्य छेड़छाड़ कर ही नहीं सकते और जब ऐसा हो जाता है, तो हम या फिर आश्चर्य करते हैं या उनके अपराध को छिपाने की कोशिश. ऐसा बहुत से केसों में देखने को मिला है कि अपराधी के घर वाले उल्टा पीड़ित पर ही आरोप लगाने लगते हैं.

अभी कुछ दिनों पहले का चर्चित केस है. पूर्वी यू.पी. के एक लड़के ने गोवा में एक नौवर्षीय रूसी लड़की के साथ यौन-दुर्व्यवहार किया. जब पुलिस लड़के के घर पूछताछ करने पहुँची, तो उसके घर वाले आश्चर्य में पड़ गये. उसकी बूढ़ी माँ ने कहा,"पता नहीं ऐसा कैसे हुआ? लड़का तो ऐसा नहीं था. हमने तो देखा नहीं. पता नहीं सच क्या है?" अब इसमें ग़लती इस माँ की नहीं है. उसने तो अपने बेटे को ये सब सिखाया नहीं.

कोई भी अपने बेटों को ग़लत शिक्षा नहीं देता, पर अगर कुछ बातों का ध्यान रखा जाये, तो ऐसी दुर्घटना से बचा जा सकता है. मेरा ये कहना बिल्कुल नहीं है कि हम अपने घर के पुरुष सदस्यों को शक की निगाह से देखें और उनकी हर गतिविधि पर नज़र रखें. ऐसा करना न व्यावहारिक होगा और न ही उचित. और परिवार की शान्ति भंग होगी सो अलग से. पर विशेषकर किशोरावस्था के लड़कों के पालन-पोषण में सावधानी बहुत ज़रूरी है. मैं अपने अनुभवों और अध्ययन के आधार पर कुछ सुझाव दे रही हूँ, शेष...जो भी लोग इस मुद्दे को लेकर संवेदनशील हैं और कुछ सुझाव देना चाहते हैं, वे दे सकते हैं---
---अपने बेटों को बचपन से ही नारी का सम्मान करना सिखायें, इसलिये नहीं कि वह नारी होने के कारण पूज्य है, बल्कि इसलिये कि वह एक इन्सान है और उसे पूरी गरिमा के साथ जीने का हक़ है.
---उन्हें यह बतायें कि उनकी बहन का भी परिवार में वही स्थान है, जो उनका है, न उससे ऊँचा और न नीचा.
---उसे अपनी बहन का बॉडीगार्ड न बनायें. ऐसा करने पर लड़के अपने को श्रेष्ठतर समझने लगते हैं.
---अपने किशोरवय बेटे की गतिविधियों पर ध्यान दें, परन्तु अनावश्यक टोकाटाकी न करें.
---उन्हें उनकी महिलामित्रों को लेकर कभी भी चिढ़ायें नहीं, एक स्वस्थ मित्रता का अधिकार सभी को है.
---किशोरावस्था के लड़कों को यौनशिक्षा देना बहुत ज़रूरी है. मेरे ख्याल से परिवार इसके लिये बेहतर जगह होती है. यह कार्य उनके बड़े भाई या पिता कर सकते हैं. इसके लिये घर का माहौल कम से कम इतना खुला होना चाहिये कि लड़का अपनी समस्याएँ पिता को बता सके. ( यहाँ मैं यौनशिक्षा पर विचार उतने विस्तार से नहीं रख रही क्योंकि इस विषय में मैं खुशदीप भाई की पोस्ट से शत-प्रतिशत सहमत हूँ)

छेड़छाड़ की समस्या के कारणों और समाधान के पड़ताल की यह समापन किस्त है. मैं दिनोदिन औरतों के साथ बढ़ रहे यौन शोषण और बलात्कार के मामलों से बहुत चिन्तित हूँ. मुझे ये नहीं लगता कि ये सब कुछलोगों की कुत्सित मानसिकता या औरतों के पहनावे का परिणाम है. इस तरह के विश्लेषण ऐसी गम्भीर समस्या को उथला और समाधान को असंभव बना देते हैं. यौन शोषण की समस्या की जड़ें हमारी सामाजिक संरचना में कहीं गहरे निहित हैं. वर्तमान काल की परिवर्तित होती परिस्थितियाँ, सांस्कृतिक संक्रमण, विभिन्न वर्गों के बीच बढ़ता अन्तराल आदि इस समस्या को और जटिल बना देते हैं. इस समस्या के कारण और समाधान खोजने के लिये समाज में एक लम्बी बहस चलाने की आवश्यकता है.

शनिवार, 20 मार्च 2010

भारत में नारीवाद की क्या आवश्यकता है???



मैं छेड़छाड़ की समस्या पर एक श्रृँखला लिख रही थी, जिसकी समापन किस्त तैयार करके रखी है. बस टाइप करनी है. पर इसी बीच मेरे एक मित्र ने एक लेख लिखा जिसका शीर्षक है-"Do We Need Feminism At All?" मैं अपने इस लेख के माध्यम से उसका उत्तर देने का प्रयास कर रही हूँ.यद्यपि अपने एक लेख में मैं पहले भी लिख चुकी हूँ कि जब हम यह कहते हैं कि नारीवाद की भारत में क्या ज़रूरत है? तो यह मानकर चलते हैं कि यह एक पश्चिम की अवधारणा है, जबकि ऐसा नहीं है. इसके उद्धरण में मैंने कुछ प्राचीन साहित्य और स्मृतियों के अंश दिये थे. 
     इस बात का उत्तर कि भारत में नारीवाद की क्या ज़रूरत है, एक वाक्य में दूँ तो यह होगा कि " नारीवाद नारी की उन परिस्थितियों को बदलने की बात करता है, जिनके कारण उनके व्यक्तित्व का विकास नहीं हो पाता और उन्हें वे अधिकार नहीं मिल पाते, जो पुरुषों को प्राप्त हैं. नारीवाद नारी को बदलने की बात नहीं करता." भारत में नारीवाद की उपयोगिता पर प्रश्न लगाने वाले तर्क देते हैं कि भारतीय नारी तो नारीत्व का, ममता का, करुणा का मूर्तिमान रूप है और पश्चिम की नारीवादी महिलाएँ उसे भी अपनी तरह भ्रष्ट कर डालना चाहती हैं. मैं यह कहती हूँ कि दुनिया सिर्फ़ भारत और अमेरिका या यूरोप ही नहीं है, एशिया, दक्षिण अमेरिका, अफ़्रीका के भी देशों में नारी आज अपनी परिस्थितियों को बदलने की माँग कर रही है और वह भी बिना अपनी संस्कृति को छोड़े. मुस्लिम देशों में औरतें बुर्क़े के साथ पढ़ना-लिखना और बाहर का काम करना चाहती हैं. इस्लाम में नारी की स्थिति पर  शीबा असलम फ़हमी अपने एक लेख में लिखती हैं, " तसलीमा ही नहीं आज विश्वभर में मुसलमान औरतें अपने-अपने समाजों में व्याप्त लिंग भेद पर सवाल खड़े कर रही हैं लेकिन इस्लाम पर हमला बोल कर नहीं। उनके यहां धर्म और समाज का फर्क साफ है। वह इस्लाम में रह कर इस्लामी न्यायप्रियता, बराबरी और आजादी के दर्शन से अपने लिए रास्ता निकाल रही हैं। वह मुसलमान मर्दों से ज्‍यादा स्पष्‍ट हैं इन मुद्दों को लेकर." आज बुर्क़ा हटाने का प्रश्न नहीं है. प्रश्न यह है कि औरत किस पहनावे में अपने आप को सुरक्षित और सहज पाती है. हम अपने देश में साड़ी की तारीफ़ करते नहीं थकते और मुस्लिम औरतों के पर्दे को बुरा-भला कहते हैं, बिना यह जाने कि औरत क्या चाहती है? साड़ी ठीक से पहनी जाये तो शालीन पहनावा है, नहीं तो आजकल की हिरोइनों के लिये वह सबसे सेक्सी ड्रेस है. बस फ़र्क इतना है कि उसे कौन किस उद्देश्य से पहनना चाहता है. पर्दा अगर ज़बर्दस्ती करवाया जाये तो ग़लत है, पर यदि औरत अपनी मर्ज़ी से पर्दा करना चाहती है, तो ये उस पर छोड़ देना चाहिये. बस परिस्थितियाँ ऐसी होनी चाहिये कि चयन का अधिकार औरत का हो और वह बिना किसी दबाव के अपना निर्णय खुद ले सके. 
     ठीक इसी तरह भारत में अगर नारी अपने नारीसुलभ गुण बनाये रखना चाहती है (जैसा कि अधिकतर औरत वास्तव में चाहती है) तो इस बात से उसे नारीवाद रोक नहीं रहा है, और न रोक सकता है. बात सिर्फ़ इतनी है कि उस पर ये गुण थोपे न जायें. ऐसा न कर दिया जाये कि उसे ज़बर्दस्ती शर्माना पड़े, चाहे शर्म आये या न आये. नारीवाद औरतों की निर्णय लेने और चयन की स्वतन्त्रता की बात करता है, न कि सभी औरतों को अपने स्वाभाविक गुण छोड़ देने की, चाहे वे नारीसुलभ गुण हों या कोई और. 
     नारीवाद का मुख्य उद्देश्य है नारी की समस्याओं को दूर करना. आज हमारे समाज में भ्रूण-हत्या, लड़का-लड़की में भेद, दहेज, यौन शोषण, बलात्कार आदि ऐसी कई समस्याएँ हैं, जिनके लिये एक संगठित विचारधारा की ज़रूरत है. जिसके लिये आज लगभग हर शोध-संस्था में वूमेन-स्टडीज़ की शाखा खोली गयी है. नारी-सशक्तीकरण, वूमेन स्टडीज़, स्त्रीविमर्श इन सब के मूल में नारीवाद ही है. नारी सशक्तीकरण और नारी सम्बन्धी शोध में हम नारी के सामाजिक विकास के लिये रणनीतियाँ बनाने के विषय में पढ़ते हैं और नारीवाद इन सभी समस्याओं की जड़ों की पहचान कराता है. इसलिये आज भारत में नारीवाद की सख्त ज़रूरत है. भारतीय नारीवाद, जो कि भारत में नारी की विशेष परिस्थितियों के मद्देनज़र एक सही और संतुलित सोच तैयार करे ताकि नारी-सशक्तीकरण के कार्य में सहायता मिले. 

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

छेड़छाड़ की समस्या: समाधान के कुछ सुझाव (1.)

पिछली पोस्ट में मैंने छेड़छाड़ के कारणों को ढूढ़ने का प्रयास किया था. इस बार मैं कुछ समाधान सुझाने की कोशिश कर रही हूँ. इसके पहले मैं स्पष्ट कर दूँ कि छेड़छाड़ से मेरा मतलब उस घटिया हरकत से है, जिसे यौन-शोषण की श्रेणी में रखा जाता है. यह वो हल्की-फुल्की छींटाकशी नहीं है, जो विपरीतलिंगियों में स्वाभाविक है, क्योंकि वह कोई समस्या नहीं है. कोई भी इस प्रकार की हरकत समस्या तब बनती है, जब वह समाज के किसी एक वर्ग को कष्ट या हानि पहुँचाने लगती है.
समस्या यह है कि हम यौनशोषण को तो बलात्कार से तात्पर्यित करने लगते हैं और छेड़छाड़ को हल्की-फुल्की छींटाकशी समझ लेते हैं, जबकि छेड़छाड़ की समस्या भी यौन-शोषण की श्रेणी में आती है. मैं अपनी बात थोड़ी शिष्टता से कहने के लिये छेड़छाड़ शब्द का प्रयोग कर रही हूँ. किसी को अश्लील फब्तियाँ कसना, अश्लील इशारे करना, छूने की कोशिश करना आदि इसके अन्तर्गत आते हैं. लिस्ट तो बहुत लम्बी है. पर यहाँ चर्चा का विषय दूसरा है. मेरा कहना है कि ये हरकतें भी गम्भीर होती हैं. यदि इन्हें रोका नहीं जाता, तो यही बलात्कार में भी परिणत हो सकती हैं.
पिछली पोस्ट में छेड़छाड़ की समस्या के कारणों को खोजने के पीछे मेरा उद्देश्य था, इसे जैविक निर्धारणवाद के सिद्धान्त से अलग करना, क्योंकि जैविक निर्धारणवाद किसी भी समस्या के समाधान की संभावनाओं को सीमित कर देता है. मेरा कहना था कि यह समस्या जैविक और मनोवैज्ञानिक से कहीं अधिक सामाजिक है. समाजीकरण की प्रक्रिया में हम जाने-अनजाने ही लड़कों में ऐसी बातों को बढ़ावा दे देते हैं कि वे छेड़छाड़ को स्वाभाविक समझने लगते हैं. इसी प्रकार हम लड़कियों को इतना दब्बू बना देते हैं कि वे इन हरकतों का विरोध करने के बजाय डरती हैं और शर्मिन्दा होती हैं. चूँकि इस समस्या के मूल में समाजीकरण की प्रक्रिया है, अतः इसका समाधान भी उसी में ढूँढ़ा जा सकता है. वैसे तो सरकारी स्तर पर अनेक कानून और सामाजिक और नैतिक दबाव इसके समाधान में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं, पर इसे रोकने का सबसे अच्छा और प्राथमिक उपाय अपने बच्चों के पालन-पोषण में सावधानी बरतना है. भले ही यह एक दीर्घकालीन समाधान है, पर कालान्तर में इससे एक अच्छी पीढ़ी तैयार हो सकती है.
मैं यहाँ लड़कियों के प्रति रखी जाने वाली सावधानियों की चर्चा कर रही हूँ, जिससे उन्हें ऐसी हरकतों से बचाया जा सके| याद रहे कि ये सुझाव लडकियों के माता-पिता और अन्य परिजनों के लिए हैं, लडकियों के लिए नहीं| लड़कियों को वैसे भी इतनी सीखें दी जाती हैं कि वे दब्बू बन जाती हैं|
-लड़कियों में आत्मविश्वास जगायें. घर का माहौल इतना खुला हो कि वे अपने साथ हुई किसी भी ऐसी घटना के बारे में बेहिचक बता सकें.
-लड़की के साथ ऐसी कोई घटना होने पर उसे कभी दोष न दें, नहीं तो वह अगली बार आपको बताने में हिचकेगी और जाने-अनजाने बड़ी दुर्घटना का शिकार हो सकती है.
-लड़कियों को आत्मरक्षा की ट्रेनिंग ज़रूर दिलवाएँ. इससे उनमें आत्मविश्वास जगेगा और वो किसी दुर्घटना के समय घबराने के स्थान पर साहस से काम लेंगी.
-लड़कियों को कुछ बातें समझाये. जैसे कि-
  -वे रात में आने-जाने के लिये सुनसान रास्ते के बजाय भीड़भाड़ वाला रास्ता चुनें.
  -भरसक किसी दोस्त के साथ ही जायें, अकेले नहीं.
  -किसी दोस्त पर आँख मूंदकर भरोसा न करें.
  -अपने मोबाइल फोन में फ़ास्ट डायलिंग सुविधा का उपयोग करें और सबसे पहले घर का नम्बर रखें.
ऐसी एक दो नहीं अनेक बातें हैं. पर सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात बेटियों को आत्मविश्वासी बनाना है और अति आत्मविश्वास से बचाना है. उपर्युक्त बातें एक साथ न बताने लग जायें, नहीं तो वो या तो चिढ़ जायेगी या डर जायेगी. आप अपनी ओर से भी कुछ सुझाव दे सकते हैं. अगली कड़ी में मैं लड़कों के पालन-पोषण में ध्यान रखने वाली बातों की चर्चा करूँगी.

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

छेड़छाड़ की समस्या के कारणों की पड़ताल

     छेड़छाड़ की समस्या हमारे समाज की एक गम्भीर समस्या है. इसके बारे में बातें बहुत होती हैं, परन्तु इसके कारणों को लेकर गम्भीर बहस नहीं हुयी है. अक्सर इसको लेकर महिलाएँ पुरुषों पर दोषारोपण करती रहती हैं और पुरुष सफाई देते रहते हैं, पर मेरे विचार से बात इससे आगे बढ़नी चाहिये.
    मैंने पिछले कुछ दिनों ब्लॉगजगत्‌ के कुछ लेखों को पढ़कर और कुछ अपने अनुभवों के आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि लोगों के अनुसार छेड़छाड़ की समस्या के कारणों की पड़ताल तीन दृष्टिकोणों से की जा सकती है-
जैविक दृष्टिकोण- जिसके अनुसार पुरुषों की जैविक बनावट ऐसी होती है कि उसमें स्वाभाविक रूप से आक्रामकता होती है. पुरुषों के कुछ जीन्स और कुछ हार्मोन्स (टेस्टोस्टेरोन) होते हैं, जिसके फलस्वरूप वह यौन-क्रिया में ऐक्टिव पार्टनर होता है. यही प्रवृत्ति अनुकूल माहौल पाकर कभी-कभी हावी हो जाती है और छेड़छाड़ में परिणत होती है.
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण - इसके अनुसार छेड़छाड़ की समस्या कुछ कुत्सित मानसिकता वाले पुरुषों से सम्बन्धित है. सामान्य लोगों से इसका कुछ लेना-देना नहीं है.
समाजवैज्ञानिक दृष्टिकोण-इसके अनुसार इस समस्या की जड़ें कहीं गहरे हमारी समाजीकरण की प्रक्रिया में निहित है. इसकी व्याख्या आगे की जायेगी.
    यदि हम इस समस्या को सिर्फ़ जैविक दृष्टि से देखें तो एक निराशाजनक तस्वीर सामने आती है, जिसके अनुसार पुरुषों की श्रेष्ठता की प्रवृत्ति युगों-युगों से ऐसी ही रही है और सभ्यता के विकास के बावजूद कम नहीं हुयी है. इस दृष्टिकोण के अनुसार तो इस समस्या का कोई समाधान ही नहीं हो सकता. लेकिन इस समस्या को जैविक मानने के मार्ग में एक बाधा है. यह समस्या भारत में अलग-अलग क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न ढँग से पायी जाती है. जहाँ उत्तर भारत में छेड़छाड़ की घटनाएँ अधिक होती हैं, वहीं दक्षिण भारत में नाममात्र की. इसके अलावा सभी पुरुष इस कुत्सित कर्म में लिप्त नहीं होते. यदि यह समस्या केवल जैविक होती तो सभी जगहों पर और सभी पुरुषों पर ये बात लागू होती. यही बात मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखने पर सामने आती है. लगभग दो-तिहाई पुरुष छेड़छाड़ करते हैं, तो क्या वे सभी मानसिक रूप से "एबनॉर्मल" होते हैं?
    नारीवादी छेड़छाड़ की समस्या को सामाजिक मानते हैं. चूँकि समाजीकरण के कारण पुरुषों में इस प्रकार की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है कि वे महिलाओं से छेड़छाड़ करें, इसलिये समाजीकरण के द्वारा ही इस समस्या का समाधान हो सकता है. अर्थात्‌ कुछ बातों का ध्यान रखकर, पालन-पोषण में सावधानी बरतकर हम अपने बेटों को "जेंडर सेंसटाइज़" कर सकते हैं. यहाँ पर यह प्रश्न उठ सकता है कि क्या कोई अपने बेटे से यह कहता है कि छेड़छाड़ करो? तो इसका जवाब है-नहीं. यहाँ इस समस्या का जैविक पहलू सामने आता है. हाँ, यह सच है कि पुरुष ऐक्टिव पार्टनर होता है और इस कारण उसमें कुछ आक्रामक गुण होते हैं, पर स्त्री-पुरुष सिर्फ़ नर-मादा नहीं हैं और न ही छेड़छाड़ का यौन-क्रिया से कोई सम्बन्ध है. मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. अतः समाज में रहने के लिये जिस प्रकार सभ्यता की आवश्यकता होती है, वह होनी चाहिये. हम लड़कों के पालन-पोषण के समय उसकी आक्रामक प्रवृत्तियों को रचनात्मक मोड़ देने के स्थान पर उसको यह एहसास दिलाते हैं कि वह स्त्रियों से श्रेष्ठ है. यह पूरी प्रक्रिया अनजाने में होती है और अनजाने में ही हम अपने बच्चों में लिंग-भेद व्याप्त कर देते हैं.
     हमें यह समझना चाहिये कि छेड़छाड़ की समस्या का स्त्री-पुरुष के स्वाभाविक आकर्षण या यौन-सम्बन्धों से कोई सम्बन्ध नहीं है. छेड़छाड़ के द्वारा पुरुष अपनी श्रेष्ठता को स्त्रियों पर स्थापित करना चाहता है और यह उस दम्भ की अभिव्यक्ति है जो समाजीकरण की क्रिया द्वारा उसमें धीरे-धीरे भर जाती है. शेष अगले लेख में...

सोमवार, 4 जनवरी 2010

स्त्रीलिंग-पुल्लिंग विवाद के व्यापक संदर्भ

स्त्रीलिंग-पुल्लिंग विवाद भले ही सबको निरर्थक बहस लगती हो, परन्तु नारीवादी आन्दोलन में भाषा के इस विवाद के व्यापक मायने हैं. जैसा कि हम जानते हैं कि हमारे समाज में स्त्री-पुरुष के कार्यक्षेत्र तय थे और इसी अनुसार भाषा भी विकसित होती गयी. भाषा लोकानुगामिनी होती है. जो शब्द प्रचलन में होते हैं वे भाषा का अंग बन जाते हैं और इस प्रकार भाषा हमारे समाज की मनोवृत्ति को दर्शाती है. समाज में चूँकि घर के अन्दर के कार्य औरतें करती हैं, इसलिये "गृहिणी" शब्द स्त्रीलिंग है और बाहर का कार्य पुरुष करते हैं, इसलिये समाज के सभी महत्त्वपूर्ण पदों से सम्बन्धित शब्द पुल्लिंग है.
    जब नारीवादी आन्दोलन ने सर्वप्रथम यह प्रश्न उठाया था कि अधिकतर माहत्त्वपूर्ण शब्द पुल्लिंग क्यों हैं? तब उनका अभिप्राय था कि ये शब्द "जेंडर न्यूट्रल" होने चाहिये. इसका सबसे प्रासंगिक उदाहरण "राष्ट्रपति" शब्द है, जो पूरी तरह से पुल्लिंग है. विडम्बना यह है कि हमारा संविधान अंग्रेजी में लिखा गया, जिसमें "प्रेसिडेंट" शब्द जेंडर न्यूट्रल है. जब हमारे देश के विद्वान अनुवादकों ने संविधान का हिन्दी अनुवाद किया तो उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि राष्ट्र की प्रमुख कभी कोई महिला भी हो सकती है और आज जब महिला राष्ट्रपति बन गयी हैं, तो उनके साथ राष्ट्रपति शब्द कितना अटपटा लगता है, ये तो सभी जानते हैं.
    यहाँ मैं स्पष्ट करना चाहती हूँ कि इस संदर्भ में नारीवादियों की माँग क्या थी. उनका यह मतलब नहीं था कि प्रत्येक पुल्लिंग शब्द का स्त्रीलिंग शब्द भी होना चाहिये, बल्कि उनका अभिप्राय था कि महत्त्वपूर्ण पदों और कार्यों से सम्बन्धित शब्द ऐसे होने चाहिये जो कि अधिक व्यापक अर्थ वाले और अधिक समावेशी हों. इसीलिये "न्यूट्रल जेंडर" नहीं "जेंडर न्यूट्रल" कहा जाता है. न्यूट्रल जेंडर शब्द नकारात्मक है जिसका अर्थ है- न स्त्रीलिंग और न ही पुल्लिंग (नपुंसकलिंग). जबकि जेंडर न्यूट्रल सकारात्मक है जो कि स्त्रीलिंग, पुल्लिंग और ट्रान्स जेंडर को भी समावेशित करता है.
     नारीवादियों की इस माँग का ही परिणाम है कि अब अधिकतर लोकप्रिय और महत्त्वपूर्ण शब्द जेंडर न्यूट्रल हो गये हैं. अब चेयरमैन, कैमरामैन में मैन के स्थान पर "पर्सन" शब्द प्रयुक्त होता है. न्यूज़रीडर, एंकर, जर्नलिस्ट आदि जेंडर न्यूट्रल शब्द हैं. बेशक ये शब्द अंग्रेजी के हैं. हिन्दी में अब भी एक कार्य के लिये स्त्रीलिंग और पुल्लिंग का भेद बना हुआ है, जिससे कभी-कभी असुविधाजनक स्थिति उत्पन्न हो जाती है. इसकी ज़िम्मेदारी हम पर है कि हम अधिकतर जेंडर न्यूट्रल भाषा का प्रयोग करें. इसका बहुत अच्छा उदाहरण एन.सी.ई.आर.टी. की पुस्तके हैं, जिनमें किसान और मजदूरों के विषय में भी महिलाओं का उदाहरण दिया जाता है. यदि आप दस साल पहले और अब की पुस्तकों की तुलना करें तो आपको अन्तर स्पष्ट पता चलेगा.
     संक्षेप में, मेरा कहना है कि हमें ऐसी भाषा का प्रयोग करना चाहिये जो अधिक से अधिक समावेशी हो. व्यावहारिक दिक्कतों से बचने के लिये उन शब्दों के आगे महिला या पुरुष लगाकर काम चलाया जा सकता है. या ऐसे शब्द प्रयुक्त हों जिनका स्त्रीलिंग शब्द उचित और व्यावहारिक हों जिससे कि "राष्ट्रपति" शब्द जैसी स्थिति न उत्पन्न हो. वैसे, मैं भी यह मानती हूँ कि ये प्रश्न उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, जितना कि अन्य मुद्दे, परन्तु अब भी यह नारीवाद के अनेक सैद्धान्तिक मुद्दों में से एक है.