शनिवार, 26 दिसंबर 2009

महिला ब्लॉगर्स बनाम पुरुष ब्लॉगर्स तथा नारीवाद बनाम समानतावाद

आजकल ब्लॉगजगत में महिला ब्लॉगर्स और महिला मुद्दों को लेकर कुछ अधिक चर्चाएँ हो रही हैं. इनमें दो मुद्दे प्रमुख हैं- पहला मुद्दा यह है कि एक लेखक, लेखक होता है. क्या उसे स्त्री या पुरुष के वर्ग में बाँटना उचित है? इस बात से एक और बात निकलती है कि नारी ब्लॉगर्स एक ओर तो स्त्री-पुरुष समानता की बात करते हैं, दूसरी ओर महिला ब्लॉगर का बिल्ला लगाये भी घूमना चाहते हैं. दूसरा मुद्दा यह है कि नारीवाद जब स्त्री-पुरुष दोनों की समानता की बात करता है तो उसे नारीवाद क्यों कहा जाय, समानतावाद क्यों नहीं?  देखने में ये दोनों बातें अलग-अलग लग सकती हैं,परन्तु ये दोनों ही बातें एक बात से जुड़ी हैं और वह है-समानतावाद.
     मैं इन दोनों ही मुद्दों पर नारीवादी दृष्टिकोण को स्पष्ट करुँगी. पहली बात के जवाब में मैं यह कहना चाहुँगी कि जिस प्रकार हमारा समाज विभिन्न जाति, धर्म, सम्प्रदाय में बँटा हुआ है, उसी तरह स्त्री और पुरुष से मिलकर भी बना है. सामाजिक व्यवस्था इस प्रकार की है कि लड़की और लड़के का पालन-पोषण अलग-अलग ढँग से होता है. समाज की एक विशेष मानसिकता के चलते लड़कियों को कुछ ऐसे अनुभव होते हैं, जिनके बारे में कोई लड़का सोच भी नहीं सकता. खुद लड़कियाँ भी ये नहीं जानतीं कि ऐसा प्रायः हर लड़की के साथ होता है. जब एक लड़की, औरत बनती है तो उसके सामने दूसरे तरह की समस्याएँ और अनुभव आते हैं. इन सब बातों के कारण स्त्रियों के विशेष प्रकार के लेखन की ज़रूरत होती है. और यह लेखन सामुदायिक इसलिये होना चाहिये क्योंकि औरतों के ये अनुभव उनकी विशेष प्रकृति के साथ-साथ समाज की विशेष व्यवस्था के कारण होते हैं. इस प्रकार के व्यक्तिगत अनुभवों की बातें एक मंच पर होने से हमें यह पता चलता है कि कोई समस्या कितनी गम्भीर है और उसके कितने आयाम हो सकते हैं. महिला लेखन ही क्यों, दलित लेखन भी उसी प्रकार उचित है, क्योंकि एक दलित अपने समस्याओं, अपने अनुभवों के बारे में जितना अच्छा लिख सकता है, उतना और कोई नहीं. मेरे विचार से इस प्रकार के अलग-अलग वर्गों के लेखन से साहित्यिक समाज में फूट नहीं पड़ती, बल्कि वह समृद्ध होता है.
     दूसरी बात जो यह उठी थी कि नारीवाद को समानतावाद क्यों न कहा जाय तो इसके जवाब में मैं यह कहूँगी कि नारीवाद और समानतावाद दो अलग सिद्धान्त हैं. यद्यपि समानतावाद के अन्तर्गत ही नारीवाद आता है, तथापि नारीवाद ने कभी निरपेक्ष समानता की बात नहीं की. नारीवाद ने कभी नहीं कहा कि स्त्री-पुरुष को एक समतल पर लाकर खड़ा कर दिया जाय. बल्कि नारीवाद ने विकल्प और अवसरों की समानता की बात कही है. नारीवाद ने कभी समाज के नियमों या नारी के उत्तरदायित्त्व से स्वतन्त्रता की माँग नहीं की, बल्कि निर्णय लेने की स्वतन्त्रता की माँग की है. स्त्री और पुरुष पूरी तरह से समान न हैं और न हो सकते हैं. पर दो लोग समान नहीं हैं, इससे यह कहाँ सिद्ध होता है कि एक दूसरे से श्रेष्ठ है? कौन क्या कर सकता है, इसका पता तो तब चले जब दोनों को बराबर अवसर मिले. पर हमारे समाज में तो पहले से ही यह मान लिया जाता है कि औरतें अमुक-अमुक कार्य कर ही नहीं सकतीं. मेरे विचार से हर लड़की और लड़के को समान अवसर मिलना चाहिये यह सिद्ध करने के लिये. और चूँकि यह अवसर आज सिर्फ़ पुरुषों को मिला हुआ है औरतों को नहीं, इसलिये नारीवाद ने यह माँग उठाई है. नारीवाद को समानतावाद कहने से समस्या के मूल का पता ही नहीं चलेगा क्योंकि फिर हर कोई यह पूछेगा कौन समान, किसके समान आदि.
     हमारे भारतीय समाज में विविधता है और हमें प्रत्येक विविधता का सम्मान करना चाहिये क्योंकि विविधता होना ग़लत नहीं है, उसके आधार पर भेदभाव ग़लत है.

बुधवार, 23 दिसंबर 2009

नारीवाद से सम्बन्धित भ्रान्तियाँ-३(नारीवाद और गृहकार्य)

नारीवाद के विषय में बहुत से लोगों को यह ग़लतफ़हमी भी है कि वह गृहिणियों को उपेक्षित दृष्टि से देखता है और चाहता है कि सभी महिलाएँ गृहकार्य छोड़कर नौकरी करने लग जायें, जबकि असलियत यह है कि सर्वप्रथम नारीवादी आन्दोलन ने ही औरतों के गृहकार्य को भी एक उत्पादक कार्य मानने की वक़ालत की थी.
    समाजवादी नारीवाद ने यह सिद्धान्त दिया था कि पूँजीवाद के विकास में औरतों द्वारा किये जाने वाले घरेलू कार्य का बहुत बड़ा योगदान है, जबकि उसे एक अनुत्पादक कार्य मानकर महत्त्व नहीं दिया जाता है. उनके अनुसार घरेलू कार्य निम्न प्रकार से पूँजीवाद को लाभ पहुँचाता है-
१. उद्योगों में कार्य करने वाले मज़दूरों को उनकी गृहिणियों द्वारा ठीक समय पर भोजन और सुख-सुविधा उपलब्ध कराने के फलस्वरूप मज़दूरों की कार्य-क्षमता बढ़ती है और वे अधिक देर गुणात्मक कार्य कर पाते हैं.
२. मज़दूरों को पत्नी के रूप में एक मुफ़्त की नौकरानी मिल जाती है जो कि अपने चौबीस घंटे के कार्य के बदले कोई नगद वेतन नहीं लेती है.
३. मज़दूरों की पत्नियाँ बच्चों के रूप में भावी मज़दूरों को जन्म देकर पुनरुत्पादन का काम करती हैं.
     यदि उपर्युक्त बातों का विश्लेषण किया जाये तो गृहकार्य के आर्थिक महत्त्व का पता चलता है. पहली बात, यदि मज़दूरों को समय पर आराम और भोजन न मिले तो उनकी कार्य-क्षमता घटेगी, इसके फलस्वरूप उद्योगों का उत्पादन घटेगा और पूँजीपतियों का नुकसान होगा. दूसरी बात, जो कार्य पत्नी करती है, यदि उसके लिये नौकर रखा जाये तो वह नगद वेतन लेगा, जिससे मज़दूरों में वेतन-वृद्धि की माँग बढ़ेगी और इससे भी पूँजीपतियों का घाटा होगा. इसलिये पूँजीपति वर्ग यही चाहेगा कि औरतें गृहकार्य करें और उसे कार्य न मानकर कर्त्तव्य माना जाये. यूरोप में औद्योगीकरण के युग में ऐसी ही प्रवृत्ति थी.
     मार्क्सवाद और समाजवादी नारीवाद की इस आर्थिक व्याख्या के पूर्व गृहिणियों के कार्य को उनका कर्त्तव्य मानकर उसे महत्त्व नहीं दिया जाता था. जब इन विचारकों ने गृहकार्य की आर्थिक व्याख्या करके आँकड़े सामने रखे तब जाकर घरेलू कार्य के महत्त्व को समझा गया. आज स्थिति यह है कि कोई किसी गृहिणी से यह नहीं कह सकता कि "तुम करती ही क्या हो."
    नारीवादियों ने गृहकार्य की आर्थिक व्याख्या उसके आर्थिक महत्त्व को बताने के लिये की, जबकि एक गृहिणी के कार्य को मात्र आर्थिक आधार पर व्याख्यायित नहीं किया जा सकता. एक औरत जो अपना संपूर्ण जीवन अपने परिवार की देख-रेख में लगा देती है, उसकी किसी से तुलना हो ही नहीं सकती. पर चूँकि आर्थिक व्याख्या को आकलित किया जा सकता है, इसलिये वही आधार लिया गया. नारीवाद ने यह माँग उठायी थी कि एक औरत गृहिणी बनना चाहती है या सिर्फ़ नौकरी करना चाहती है या दोनों जिम्मेदारियाँ साथ निभाना चाहती है, यह निर्णय लेने का अधिकार सिर्फ़ उस औरत का हो. उस पर कोई निर्णय जबरन थोपा न जाये. पर, मामला फिर वही ढाक के तीन पात...कार्य करने की स्वतन्त्रता के नाम पर जब औरतों को नौकरी करने पड़ी तो उन पर घर-बाहर का दोहरा बोझ पड़ गया. इसलिये अब नारीवादियों के मुद्दे बदल गये हैं.
    अब नारीवाद की माँग यह है कि यदि कोई पत्नी घर भी सँभालती है और नौकरी भी करती है तो पति को उसका थोड़ा हाथ गृहकार्य में बँटाना चाहिये. वैसे तो यह मामला पति-पत्नी के आपसी सामंजस्य का है, परन्तु यह सामाजिक तब बन जाता है जब रसोई में काम करने पर पतियों को उपहास का पात्र बनना पड़ता है और पति से काम कराने वाली पत्नी को ताने सुनने पड़ते हैं... ... ...उद्देश्य इसी मानसिकता को बदलना है.

सोमवार, 21 दिसंबर 2009

नारीवाद से सम्बन्धित भ्रान्तियाँ--२ (नारीवाद पुरुष विरोधी है)

नारीवाद को अधिकतर लोग पुरुष-विरोधी समझते हैं. नारीवादी औरत को एक ऐसी एबनॉर्मल, फ़्रस्टेटेड, सख़्तमिजाज़, और झगड़ालू औरत समझा जाता है, जो बात-बात में पुरुषों से झगड़ा कर बैठती है और खोद-खोदकर ऐसे मुद्दे उछालती है, जिससे पुरुषों को नीचा दिखाया जा सके. नारीवादी औरत को लोग अपने व्यक्तिगत जीवन की कुंठा को सार्वजनिक जीवन में लागू करने वाली समझते हैं. लोगों के अनुसार ऐसी औरतें अपने जीवन में सामंजस्य नहीं बैठा पातीं, एडजस्टमेंट नहीं करना चाहतीं और इसका दोष पुरुषों के मत्थे मढ़ती हैं. जबकि अन्य अनेक भ्रान्तियों की तरह यह भी एक भ्रान्ति है. नारीवाद पुरुषों का विरोध नहीं करता, बल्कि समाज की पितृसत्तात्मक संरचना का विरोध करता है. पितृसत्ता एक पारिभाषिक शब्द है, जिसकी चर्चा मैं इसी ब्लॉग के पिछले आलेखों में कर चुकी हूँ.
     यह जानकर शायद कुछ लोगों को आश्चर्य होगा कि नारीवादी आन्दोलन के प्रारम्भिक चरण में जिस एक विचारक ने नारी-अधिकारों की पुरज़ोर वक़ालत की थी, वह एक पुरुष था-जॉन स्टुअर्ट मिल जो एक प्रसिद्ध उपयोगितावादी राजनीतिक विचारक थे. उन्होंने अपनी पुस्तक "स्त्री और पराधीनता" (The Subjection of Women ) में कहा था कि समाज का पूरी तरह विकास तब तक नहीं हो सकता, जब तक कि आधी आबादी को उसके नागरिक और राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं हो जाते. उन्होंने मानवता, उदारता और लोकतांत्रिक मूल्यों के आधार पर नारी-अधिकारों की बात की थी. उन दिनों नारीवाद मात्र नागरिक व राजनीतिक अधिकारों की बात कर रहा था. अतः उसे उदारवादी नारीवाद नाम दिया गया.
     बाद में नारीवाद का विकास हुआ. पितृसत्तात्मक समाज की संरचना को समझने और नारी की स्थिति को सुधारने के विभिन्न उपायों के अधार पर नारीवाद की कई धाराओं का विकास हुआ, जिनमें से कुछ अतिवादी धाराएँ थीं. इन अतिवादी धाराओं ने अपने कुछ विवादित कदमों के फलस्वरूप अधिक प्रसिद्धि प्राप्त कर ली. ब्रा बर्निंग मूवमेंट, समलैंगिकता को पुरुष-संसर्ग का वैकल्पिक समाधान सिद्ध करने की कोशिश, नारीत्व(feminity) का विरोध आदि कुछ ऐसे ही विवादित कदम थे. इन बातों के फलस्वरूप लोगों में ये बात घर कर गयी कि नारीवाद पुरुष  विरोधी विचारधारा है, जो कि पुरुषों को समाज से हटाकर स्त्रियों की सत्ता स्थापित करना चाहती है.
     यदि तार्किक ढँग से विचार किया जाय तो यह भ्रान्ति बहुत ही हास्यास्पद लगती है. स्त्री और पुरुष दोनों से मिलकर समाज बना है. अतः दोनों में से किसी एक के बिना समाज की कल्पना नहीं की जा सकती और न ही ऐसी कोई विचारधारा सफल हो सकती है, जो किसी एक के विरोध पर टिकी हो. नारीवाद एक ऐसे समाज की स्थापना करना चाहता है, जहाँ स्त्री और पुरुष दोनों को समान अवसर प्राप्त हों, विकल्प की स्वतंत्रता हो और निर्णय लेने की स्वतंत्रता हो. कोई सिर्फ़ इसलिये किसी अधिकार से वंचित न रह जाय कि वह स्त्री है या पुरुष. जहाँ पुरुषों को रोने का अधिकार हो और स्त्री को हँसने का, जहाँ पुरुष गुलाबी शर्ट पहन सके और स्त्री भूरे कपड़े, जहाँ नर्सिंग का काम पुरुष भी कर सके और नारी भी विमान उड़ा सके, जहाँ कोई पति यह निर्णय ले सके कि यदि उसकी पत्नी अपनी इच्छा से नौकरी कर रही है तो वह घर का कार्य कर सके और इस बात पर कोई उसकी खिल्ली न उड़ाये...
.......क्या यह सिर्फ़ एक सपना है जो सच नहीं हो सकता? मेरे विचार से हो सकता है यदि पुरुष अपने पुरुषत्त्व का अहंकार त्याग दे और आगे कदम बढ़ाये......
मुझे यह बात कहने में कोई हिचक नहीं है कि पुरुषों के साथ के बिना नारीवाद अधूरा है.

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

नारीवाद से सम्बन्धित भ्रान्तियाँ-१ ( नारीवाद पश्चिमी अवधारणा है )

नारीवाद पर अक्सर यह आरोप लगाया जाता है कि वह पश्चिम से आयातित अवधारणा है और उसका भारतीय संस्कृति से कोई लेना-देना नहीं है. प्रतिपक्षियों के अनुसार चूँकि भारत में नारी की पूजा होती है, उसका सर्वोच्च स्थान है. इसलिये नारीवाद की भारतीय समाज में न कोई आवश्यकता कभी थी और न है.
    यह बात बिल्कुल सही है कि "नारीवाद" को इस नाम से सर्वप्रथम पश्चिम में ही जाना गया और इसे एक विचारधारा का रूप भी वहीं प्रदान किया गया. परन्तु प्राचीन भारतीय साहित्य में आपको ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे , जिनमें नारी का विद्रोही स्वरूप सामने आया है. भले ही नारी के इस विद्रोह को नारीवाद नाम न दिया गया हो पर इससे यह पता चलता है कि विभिन्न युगों में नारी ने तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में अपनी स्थिति पर क्षोभ व्यक्त किया है. "अभिज्ञान शाकुन्तल" कालिदास का प्रसिद्ध नाटक है, जिसकी नायिका शकुन्तला "निसर्ग कन्या" के रूप में वर्णित की गयी है. परन्तु शकुन्तला का वह रूप विद्रोह का प्रतीक है, जब वह अपने धर्मभाईयों के साथ ऋषि कण्व के आश्रम से विदा होकर दुष्यन्त के पास आती है और वह उसे पहचानने से मना कर देता है, उल्टे आरोप लगाता है कि आपलोग बलपूर्वक अपनी बहन को मेरे मत्थे मढ़ रहे हैं. उस समय शकुन्तला निर्भीक होकर कहती है कि आप जिस प्रकार स्वयं छली  हैं, उसी प्रकार दूसरों को भी समझते हैं. इस समय भोली-भाली शकुन्तला का रोष देखते बनता है. इसी प्रकार सीता अपनी पवित्रता पर उंगली उठाये जाने पर अपनी माँ (पृथ्वी) की गोद में शरण लेना उचित समझती हैं. अभिज्ञान शाकुन्तल की शकुन्तला और उत्तर रामायण की सीता अपने पुत्रों का अकेले ही (बिना पति के) ऋषियों के आश्रम में  पालन-पोषण करती हैं. बृहदारण्यकोपनिषद्‌ का गार्गी-याज्ञवल्क्य संवाद प्रसिद्ध है, जिसमें गार्गी याज्ञवल्क्य से शास्त्रार्थ करते हुये ब्रह्मविद्या से सम्बन्धित ऐसे-ऐसे प्रश्न पूछती हैं कि वे परेशान होकर कह उठते हैं कि इससे आगे प्रश्न करने पर तुम्हारा सर धड़ से अलग हो जायेगा ( कुछ व्याख्याकारों के अनुसार याज्ञवल्क्य ने गार्गी को सर काटने की धमकी दी थी). गार्गी जानती थीं कि याज्ञवल्क्य एक प्रतिष्ठित महर्षि हैं, परन्तु उन्होंने शास्त्रार्थ करने में निर्भीकता दिखाई और बाद में विनम्रतापूर्वक अपनी पराजय भी स्वीकार कर लेती हैं. याज्ञवल्क्य की पत्नी मैत्रेयी गार्गी के आश्रम में शिक्षा प्राप्त करती है. वह उच्चशिक्षा प्राप्त करना चाहती है, परन्तु उस युग में उच्चशिक्षा पर पुरुषों का वर्चस्व था, अतः वह ऋषियों के आश्रम में ही प्राप्त की जा सकती थी और किसी युवती के लिये यह असंभव था. अतः मैत्रेयी याज्ञवल्क्य से विवाह करके उनके साथ रहकर उच्चशिक्षा प्राप्त करती है.
    ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि अन्य समाजों की तरह हमारा समाज भी पितृसत्तात्मक था, जिसमें नारी की स्थिति दोयम थी, परन्तु तब भी नारी अपनी स्थिति के विरुद्ध संघर्ष करती रहती थी. वस्तुतः प्रत्येक देश और प्रत्येक काल में नारी अपनी स्थिति से संतुष्ट नहीं थी और जब तकनीकी विकास के फलस्वरूप वह एक-दूसरे के संपर्क में आयी तो उसके विद्रोह ने नारीवाद का रूप ले लिया. नारीवाद न पश्चिमी अवधरणा है और न ही भारतीय. यह नारी के अन्दर पल रहे रोष और क्षोभ की सर्वव्यापक अभिव्यक्ति है.

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

आप कहाँ खड़े हैं?

    समाज में बहुत से मुद्दे ऐसे हैं, जिन पर लोगों की राय बिल्कुल अलग-अलग होती है, परन्तु नारी की स्थिति से सम्बन्धित बहुत सी ऐसी बातें हैं, जिनके बारे में लोगों को पता ही नहीं होता कि वे क्या सोचते हैं? यहाँ तक कि नारी स्वयं नहीं जानती कि उनकी स्थिति जैसी है, वैसी क्यों है? और वह सही है या ग़लत? समाज में नारी की स्थिति के विषय में निम्नलिखित मत हो सकते हैं-
१. स्त्री और पुरुष दोनों में जैविक रूप से भेद है, अतः सामाजिक भेद भी होना चाहिये. इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है. दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं. जहाँ तक पुरुषों द्वारा स्त्री के शोषण का प्रश्न है तो स्त्रियाँ भी ऐसा करती हैं और पुरुष भी. इसमें कहने वाली कोई बात नहीं है. नारी अधिकार जैसी कोई बात भी नहीं होनी चाहिये.
२. स्त्री और पुरुष दोनों जैविक रूप से भिन्न हैं तथा सामाजिक रूप से भी. पुरुषों द्वारा स्त्रियों को हमेशा से दबाया गया है. परन्तु अब स्थिति पहले से बहुत अच्छी है और धीरे-धीरे और भी परिवर्तन आयेगा. अब नारी भी पुरुषों के कन्धे से कन्धा मिलाकर चल रही है. इसलिये नारी-अधिकार जैसे किसी आन्दोलन की अब कोई आवश्यकता ही नहीं.
३. स्त्री और पुरुष दोनों जैविक रूप से भिन्न हैं, परन्तु सामाजिक भेद हमारी सामाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा उत्पन्न किया जाता है. पुरुष-प्रधान समाज में नारी की स्थिति दूसरे दर्जे़ की नागरिक की रही है. ऐसा प्रत्येक देश और प्रत्येक युग में होता रहा है. नारी ने अपने अधिकारों के लिये लम्बी लड़ाई लड़कर कुछ अधिकार प्राप्त किये हैं. परन्तु स्थिति अब भी बहुत बेहतर नहीं है. इसलिये संघर्ष जारी है. अगर ये कहा जाता है कि नारी भी तो पुरुष पर अत्याचार करती है, तो एक तो ऐसे उदाहरण बहुत कम हैं, दूसरी बात, जो नारी ऐसे शोषण के कार्य में शामिल होती है, वह स्वयं भी पितृसत्ता की वाहक होती है. क्योंकि पितृसत्ता ऐसी विचारधारा है, जिसमें जो शक्तिशाली होता है, वह शक्तिहीनों का शोषण करता है. इसमें शोषक या शोषित स्त्री या पुरुष दोनों में से कोई भी हो सकता है. यह सच है कि स्त्री शारीरिक रूप से पुरुष जितनी सक्षम नहीं है, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि उसे दूसरे दर्जे़ का नागरिक मान लिया जाये. इसीलिये हमारे संविधान में अन्य भेदों के निराकरण के साथ लिंगभेद का भी निराकरण किया गया है.
    नारीवाद तीसरे मत का समर्थन करता है. अब आप तय करें कि आप कहाँ खड़े हैं?

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

नारीवाद से परहेज़ क्यों?

इस ब्लॉग पर मेरी पिछली पोस्ट से किसी को बुरा लगा हो तो मैं क्षमाप्रार्थिनी हूँ. वाणीगीत जी, आपने सच कहा है कि मुझे आपकी टिप्पणी को इतने हल्के में नहीं लेना चाहिये था. पर विश्वास कीजिये मेरा तात्पर्य किसी मुद्दे को उछालकर विवादित बनाने का बिल्कुल नहीं था. मेरा उद्देश्य तो नारीवाद और नारीवादियों को लेकर कुछ ग़लतफ़हमियों को दूर करना था. वस्तुतः मैंने इस ब्लॉग को आरम्भ ही किया था नारीवाद से सम्बन्धित कुछ सैद्धान्तिक बातों को स्पष्ट करने के लिये. नारी से सम्बन्धित समस्याओं,विमर्शों और व्यावहारिक मुद्दों पर अन्य लोकप्रिय और महत्त्वपूर्ण ब्लॉग हैं, जिनमें प्रमुख हैं- नारी, नारी का कविता ब्लॉग, स्त्रीविमर्श और चोखेरबाली.
     मुझे लगता है कि हमारे समाज में नारीवाद को लेकर कुछ भ्रान्तियाँ हैं, जिन्हें दूर करने का प्रयास मैं इस ब्लॉग से करती रहती हूँ. सबसे पहले तो मैं यह बताना चाहुँगी कि मैं ये सारी कवायद कर क्यों रही हूँ, तो मेरा मानना है कि समाज के किसी उपेक्षित वर्ग के लिये कार्य करना एक बात है और उसकी स्थिति ऐसी क्यों है? इसके क्या प्रभाव हैं और इसे किस तरह दूर करना है, इन मुद्दों पर शोध करना दूसरी बात है. दोनों ही बातें अपने-अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण हैं. मेरा सरोकार दूसरी बात से है, जो कि सैद्धान्तिक है और जब यह उपेक्षित वर्ग नारी हो तो इसे नारीवाद कहेंगे. अतः नारीवाद एक विचारधारा है, जिसके अन्तर्गत उपर्युक्त बातों पर शोध किया जाता है और सिद्धान्त बनाये जाते हैं. समाज के एक वर्ग को यह बुद्धिजीवियों की जुगाली लगती है. परन्तु विचारणीय प्रश्न है कि यदि सिद्धान्त ही नहीं होंगे तो उसे व्यवहार में लाने की दिशा कैसे तय होगी? इसे एक उदाहरण से समझ सकते हैं कि नारी की स्थिति में सुधार होना चाहिये इस पर सभी सहमत हैं, पर यह सुधार किस प्रकार होगा? कौन-कौन से उपाय अपनाये जाने चाहिये? क्या सिर्फ़ अधिकार मात्र दे देने से या कानून बना देने से योजनायें लागू कर देने से समस्या हल हो जायेगी? क्या हमें सारी औरतों को एक वर्ग में रखना चाहिये या उनका वर्गीकरण करना चाहिये(जैसे-ग्रामीण बनाम शहरी औरतें, धनी बनाम निर्धन औरतें, नौकरी करने वाली बनाम घरेलू औरतें) आदि. यदि हम औरतों की बेहतरी के लिये कुछ करना चाहते हैं तो इन सब बातों पर शोध करना होगा. इसीलिये नारीवाद की प्रासंगिकता बनी हुयी है.
     जब हम यह कहते हैं कि नारीवाद को छोड़ो और नारी की बेहतरी की कोशिश करो तो यह ऐसा लगता है कि जैसे हम कह रहे हों समाजवाद को छोड़कर सामाजिक समता की बात करो. भले ही हम किसी विचारधारा से सहमत हों या नहीं, पर उसकी प्रासंगिकता कभी समाप्त नहीं होती, चाहे वह गाँधीवाद हो, मार्क्सवाद हो या नारीवाद. यह अवश्य है कि विभिन्न वादों के अन्तर्गत जो शोध या अध्ययन होते हैं उन्हें व्यवहार में लाने का प्रयास भी किया जाना चाहिये. कहीं ऐसा न हो कि मीटिंग, सेमिनार, वर्कशाप करते रहें और स्थिति जहाँ की तहाँ बनी रहे. पर यह भी मानना चाहिये कि इन बौद्धिक बहसों का भी उतना ही महत्त्व है जितना कि फ़ील्ड में जाकर कार्य करने का.
     मेरा प्रयास है कि नारी के लिये कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं और शोधकर्ताओं के बीच सामंजस्य स्थापित हो ताकि दोनों मिलकर औरतों की बेहतरी के लिये रणनीति बनाकर उसे अमल में लाने के लिये नीतिनिर्माताओं पर दबाव डाल सकें, न कि सिर्फ़ आपसी बहसों में उलझे रह जायें. मैं चाहती हूँ कि ब्लॉगिंग "विमर्शी लोकतंत्र" का माध्यम बने. इसलिये मैं उन सभी से क्षमा माँगती हूँ, जिनको मेरी बातों का बुरा लगा हो.
     ...अपनी अगली पोस्ट में मैं नारीवाद से सम्बन्धित कुछ अन्य भ्रान्तियों तथा उनके निराकरण के विषय में लिखुँगी...

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

नारी, प्रेम और नारीवादी

परसों एक कविता लिखी औरत के प्रेम के पागलपन पर, कमेंट मिला कि यह किसी नारीवादी की कविता नहीं हो सकती. सही बात है. इसी प्रेम वाली बात को लेकर मेरे कई वामपंथी दोस्तों को मेरे ब्लॉग का "फ़ेमिनिस्ट पोएम्स" शीर्षक नहीं ठीक लगता. वे कहते हैं कि या तो ये शीर्षक हटा दो या इस पर प्रेम की कविताएँ मत लिखो. पर, मैं अपने भावों को किसी वाद में बाँधने के पक्ष में नहीं.
     अब मैं मुद्दे पर आ जाती हूँ. प्रेम प्रकृति का एक अनुपम उपहार है, स्त्री और पुरुष दोनों के लिये. दोनों ही प्यार करते हैं और प्यार में पागल भी होते हैं. पर दोनों के प्रेम के परिणाम अलग-अलग होते हैं. प्रायः स्त्रियाँ प्रेम में धोखा खाने के बाद भी अपने प्रेमी से प्रेम करती रहती हैं. पर पुरुष धोखा खाकर मरने-मारने पर उतर आता है. यहाँ मैंने 'प्रायः' शब्द का इसलिये प्रयोग किया क्योंकि अपवाद भी होते हैं. मैंने औरतों की इसी धोखा खाकर प्रेम करने की प्रवृत्ति पर कविता लिखी थी. इसका यह मतलब बिल्कुल भी नहीं है कि मैं इस बात का समर्थन करती हूँ. पर इस प्रेम के मामले में कोई कुछ नहीं कर सकता क्योंकि यह जितना अनुपम उपहार है उतना ही गूढ़ भी. कोई जब प्रेम में पड़ जाता है तो उसे कोई वाद नहीं समझाया जा सकता, उसे उस राह पर जाने से रोका भी नहीं जा सकता.  अंग्रेजी में सही कहते हैं 'प्रेम में गिर पड़ना' (to fall in love). ऐसी स्थिति में प्रेमी से सिर्फ़ सहानुभूति जतायी जा सकती है.
     अब सवाल यहाँ यह है कि क्या एक नारीवादी को इस तरह के प्रेम का वर्णन करना चाहिये? पुरुषों से धोखा खाकर भी उसके प्रेम में डूबी रहने वाली औरत के साथ सहानुभूति का व्यवहार करना चाहिये या भर्त्सना करनी चाहिये. तो अपने आप से पूछिये अपनी ग़लती से एक्सीडेंट करके बिस्तर पर पड़े रोगी को बुरा-भला कहेंगे क्या?
     यह एक ऐसा गूढ़ विषय है कि इस पर बहस करके किसी नतीजे तक नहीं पहुँचा जा सकता. पर एक बात मैं कहना चाहुँगी कि मुझे प्रेमी जनों से पूरी सहानुभूति होती है. औरतें इमोशनल फ़ूल होती हैं, इसमें उनका दोष नहीं. दोष उस माहौल का है, जिसमें उन्हें पाला-पोसा  जाता है और इसी तरह पुरुष प्रेम से अधिक महत्त्व प्रतिष्ठा को देते हैं, अपने अहं को देते हैं तो इसमें दोष उनका नहीं सामाजिक व्यवस्था का है.और कुछ दोष नारी की प्राकृतिक प्रवृत्ति का भी है. उसे बच्चे को जन्म देना होता है और पालन-पोषण करना होता है. अतः वह स्वभाव से अधिक कोमल, प्रेमी, और देखभाल करने वाली (caring) होती है. पुरुष इसी प्रवृत्ति का फ़ायदा उठाता है. इसीलिये मैंने औरतों को 'इमोशनल फ़ूल' कहा है.
     'प्रेम में धोखा  है' यह सोचकर कोई प्यार करना तो नहीं छोड़ देगा. और यदि कोई धोखा खाने के बाद भी प्रेमी को प्रेम किये जाता है, तो उसे भी रोका नहीं जा सकता. हाँ, इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि उसे अपने प्रेम को अपनी ताक़त बना लेना चाहिये. और स्वाभिमान की की़मत पर प्यार नहीं करना चाहिये. पर, फिर वही बात, प्यार कोई करता थोड़े ही है, वो तो प्यार में गिर पड़ता है. अब ये मत कहियेगा कि यह किसी नारीवादी का लेख नहीं हो सकता. क्या नारीवादियों के पास दिल नहीं होता?

रविवार, 8 नवंबर 2009

संस्कृत नाट्‌यशास्त्रों में नायक-भेद: कुछ प्रश्न

संस्कृत काव्यशात्रों तथा नाट्‌यशास्त्रों में नायिका-भेद और नायक-भेदों का वर्णन श्रृंगार-रस के परिप्रेक्ष्य में हुआ है. नायिका-भेद के विषय में अरविन्द जी अपने ब्लॉग पर लिख रहे हैं. मैं यहाँ नायक-भेदों का उल्लेख मात्र करके कुछ प्रश्न उठाना चाहती हूँ. ये प्रश्न मुख्यतः उनलोगों से है जो यह कहते हैं कि मुस्लिम आक्रमणकारियों के आने से पूर्व भारत में नारी की स्थिति अपेक्षाकृत अच्छी थी.
    दशरूपक संस्कृत नाट्‍यशास्त्रों में एक सम्माननीय स्थान रखता है. इसके अनुसार नायक के चार भेद होते हैं- धीरललित, धीरशान्त, धीरोदात्त तथा धीरोद्धत. अधिक विस्तार में न जाते हुये मैं इतना बताना चाहुँगी कि इनमें से प्रथम मृदु स्वभाव वाला और संगीतप्रेमी क्षत्रिय राजा होता है. दूसरा मुख्यतः सामान्य गुणयुक्त ब्राह्मण अथवा वणिक होता है. तीसरा गम्भीर, क्षमावान, निरहंकारी वीर और दृढ़व्रत क्षत्रिय राजा होता है तथा चौथा अहंकारी, आत्मप्रशंसक और ईर्ष्यालु प्रकार का होता है. ध्यान देने योग्य बात है कि नायक के ये चार प्रकार चार विभिन्न प्रकृति के पुरुषों को प्रदर्शित करते हैं, जबकि नायिकाओं के भेद मुख्यतः श्रृंगार-रस के प्रसंग में उनके नायक से सम्बन्ध के आधार पर किये गये हैं. उदाहरण के लिये जिस नायिका का पति उसके पास हो वह प्रसन्न रहती है और स्वाधीनपतिका कहलाती है. जिस नायिका का पति विदेश में हो वह प्रोषितप्रिया कही जाती है. जिसके पति या प्रेमी ने उससे छल करके किसी और से प्रेम किया हो वह खंडिता कहलाती है आदि.
   अब यहाँ से मैं अपने प्रश्न और आशंकाएँ प्रारम्भ करती हूँ. नायक-भेद समाप्त करने के बाद आचार्य धनंजय नायक के पुरुषत्वयुक्त आठ सात्त्विक गुणों उल्लेख करते हैं, "शोभा विलासो माधुर्यं गाम्भीर्यं स्थैर्यंतेजसी, ललितौदार्यमित्यष्टौ सात्त्विकाः पौरुषा गुणा." अर्थात्‌ शोभा, विलास, माधुर्य, गाम्भीरता, धैर्य, तेज, ललित तथा उदारता. सोचने की बात यह है कि दशरूपककार ने ये जो आठ गुण बताये हैं क्या ये गुण स्त्रियों में नहीं हो सकते जो इन्हें पुरुषयुक्त कहा है और मात्र नायकों में ही आवश्यक बताया है. इस बात को थोड़ा विस्तार से देखते हैं. "शोभा" नामक गुण की व्याख्या करते हुये धनंजय कहते हैं, "शोभा नामक सात्त्विक गुण वहाँ होता है, जहाँ नायक में शौर्य तथा दक्षता पाई जाती हो तथा नीच के प्रति घृणा एवं अपने से अधिक के प्रति स्पर्धा पाई जाती हो." अब प्रश्न यह है कि इस गुण में ऐसा क्या है जो एक स्त्री में नहीं हो सकता. उसके अन्दर उपर्युक्त सभी गुण उसी प्रकार पाये जा सकते हैं, जिस प्रकार किसी पुरुष में. गुणों का तो कोई लिंग नहीं होता. वे तो सभी में समान होते हैं, फिर नायक के गुणों और नायिका के गुणों में इतना भेद क्यों? यदि आप यह कहें कि तब की बात और थी और नायक को बाहर निकलना पड़ता था, युद्ध लड़ने पड़ते थे और स्त्रियाँ घर में रहती थीं. तो फिर मान लीजिये कि स्त्रियाँ मात्र पुरुषों के मनोरंजन का साधन थीं. और जो लोग यह कहते हैं कि प्राचीन भारत में नारी की स्त्री उच्च थी वे मात्र स्वयं को और दूसरों को भुलावा देते हैं. यदि आप यह कहते हैं कि यह तो साहित्य की बातें हैं, वास्तविक समाज से इसका कुछ लेना-देना नहीं है, तो आपको अन्य साहित्यों में भारत की समृद्धि आदि के बारे में कही गयी बातें भी गलत माननी होंगी.
  सच यही है कि प्राचीनकाल से लेकर अब तक पुरुष समाज, राजनीति, कला और साहित्य के केन्द्र में रहा है और नारी परिधि पर. यही कारण है कि प्राचीनकाल में नायक-भेद गुणों के आधार पर किये गये और नायिका-भेद नायक से उसके प्रेम-सम्बन्धों के आधार पर और आज भी हिन्दी फिल्मों में नायक केन्द्र में होता है और अधिक पारिश्रमिक पाता है और नायिका मात्र उसकी प्रेमिका बनकर रह जाती है.

गुरुवार, 5 नवंबर 2009

बच्चों की पोशाक और जेंडर-भेद

आज अपने इस लेख के माध्यम से मैं एक नयी बहस करने जा रही हूँ. पिछले कुछ दिनों मैं अपनी दीदी के यहाँ रहकर आयी हूँ. दीदी की नौ साल की बेटी है. किशोरावस्था की ओर कदम बढ़ाती इस बच्ची की कुछ बातों को सुनकर आश्चर्य होता है कि कैसे बचपन से ही हम बच्चों के मन में जेंडर-भेद के बीज बो देते हैं. हाँलाकि हमारे परिवार में इस बात का ध्यान दिया जाता है, पर बच्चों को आस-पड़ोस की बातों से तो नहीं बचाया जा सकता.
    हुआ यह कि हमें कहीं जाना था तो उसे दीदी ने एक ड्रेस पहनानी चाही इस पर बच्ची ने उसे इसलिये पहनने से मना कर दिया क्योंकि उसकी किसी दोस्त ने उससे कह दिया था कि यह ब्वायज़ की ड्रेस है. जब मैंने उसे समझाया कि यह एक कार्गो पैंट है जिसे लड़का-लड़की दोनों पहनते हैं तो वह मान गयी. इस छोटी सी बात ने मुझे सोचने के लिये मज़बूर कर दिया कि इस तरह की बातें बच्चों को सिखाना उचित है या नहीं? वैसे तो बच्चों को अपने पसंद की पोशाक चुनने का अधिकार होना चाहिये, परन्तु प्रश्न यह है कि इस चयन का आधार क्या हो? मेरे विचार से बच्चों को मौसम और आराम के अनुसार कपड़े पहनना सिखाना चाहिये न कि केवल फ़ैशन के आधार पर. मैंने यह भी देखा है कि आजकल छोटी लड़कियाँ "स्लीवलेस" पोशाक ही पहनना चाहती हैं. उन्हें यह बताना चाहिये कि शाम को बाहर खेलते समय छोटे कपड़े पहनने से उन्हें कीड़े और मच्छर काट सकते हैं, जिससे उनकी तबीयत ख़राब हो सकती है. इसके अतिरिक्त कम कपड़े पहनने से गिरने पर चोट भी लग सकती है. मैं यह मानती हूँ कि बच्चों को यह अहसास दिलाया जाना चाहिये कि वे लड़का हैं या लड़की, पर इसके आधार पर उनके साथ भिन्न-भिन्न ढँग से व्यवहार करना उचित नहीं है.
    हम पता नहीं लिंग-भेद के प्रति इतने आग्रही क्यों होते हैं. पहले लड़कियों को सिखाया जाता था कि अपने शरीर को ढँककर रखो, पूरी बाँह के कपड़े पहनो. मुझे याद है कि जब मैंने सलवार-कुर्ता पहनना शुरू किया था तो बहुत दिनों तक पूरी बाँह के कुर्ते ही पहनती थी. आजकल लोग अपनी बेटियों को पूरी छूट देते हैं उनके मनपसंद कपड़े पहनने की. पर मानसिकता अब भी वही है. अब भी हम स्वास्थ्य और आराम की अपेक्षा चलन पर अधिक ध्यान देते हैं. यह सच है कि छोटी बच्चियाँ "क्यूट" पोशाकों में प्यारी लगती हैं, पर कहीं ऐसा न हो कि इसके चलते उनमें कोई कुंठा बैठ जाये.
   ये मेरे विचार हैं, आपको क्या लगता है... ...

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2009

स्त्री की स्वतंत्रता : दूबे की पोस्ट का जवाब

आमतौर पर मैं किसी के ब्लॉगपोस्ट के प्रत्युत्तर में कुछ कहती नहीं पर ये लेख मैं दूबे जी की पोस्ट के जवाब में लिख रही हूँ. सबसे पहले मैं उनको ये सलाह देना चाहुँगी कि वे महिला संगठनों के बारे में लिखने से पहले कुछ जानकारी जुटा लेते तो अच्छा होता. सबसे पहले मैं उनकी महिला "शरीर के बाज़ारीकरण" की बात का जवाब देना चाहती हूँ. जब हम बाज़ार में महिलाओं के शरीर की नुमाइश के बारे में बात करते हैं तो दोष महिलाओं को देते हैं. हम ये भूल जाते हैं कि लगभग सभी बड़ी विज्ञापन कम्पनियों पर पुरुषों का कब्ज़ा है. हम बात करते हैं कि क्यों कोई महिला संगठन इसका विरोध क्यों नहीं करता? मैं ये पूछती हूँ कि किस संगठन ने इसका समर्थन किया है, बल्कि बहुत बार महिला संगठनों ने इस बात का जोर-शोर से विरोध किया है. पर ये बात तो सभी जानते हैं कि बाज़ार किसी की नहीं सुनता. न सरकार की, न जनता की, न संगठनों की. वह सुनता है तो सिर्फ़ पैसे वालों की. ख़ैर, बाज़ार की कहानी से बात विषयान्तरण हो जायेगा. देखिये, प्रायः बहुत सी बातों के साथ नारी की स्वतंत्रता की बात को भी लेकर लोगों में बहुत सी ग़लतफ़हमियाँ हैं. नारी संगठन जिस स्वतंत्रता की बात करते हैं वह बिल्कुल भी पश्चिम की स्वतंत्रता जैसी नहीं है. वस्तुतः इस बात को लेकर भी बहुत मतभेद हैं. पर लगभग सभी नारीवादी पितृसत्ता का विरोध करते हैं, जो कि हमारे समाज की संरचना से जुड़ी अवधारणा है. मैं अपने पुराने लेखों में इस विषय पर चर्चा कर चुकी हूँ. यहाँ मैं अपनी बात को बिन्दुवार रखने का प्रयास कर रही हूँ.
-नारी की स्वतंत्रता का मुख्य अर्थ है "निर्णय लेने की स्वतंत्रता" न कि समाज के नियम न मानने की. वो विवाह करे या न करे, करे तो कब और किससे करे इस बात का निर्णय और ऐसे ही अन्य निर्णय. इससे नारी अपने पैरों पर खड़ी हो सकेगी और अपने विरुद्ध हो रहे अत्याचार का विरोध कर सकेगी.
-यौन-शिक्षा एक अलग बहस का विषय है. यौन-उच्छृँखलता के लिये लड़का-लड़की दोनों दोषी होते हैं तो केवल लड़कियों को ही दोषी क्यों ठहराया जाता है? अति किसी भी बात की घातक होती है, यौन-सम्बन्धों की भी, यह बात युवा वर्ग को समझाना किस तरह से ग़लत है?
-हम औरतों के किसी भी तरह के शोषण के विरुद्ध हैं. आपने कहा है कि आजकल राजनीतिक सभाओं में भी औरतों को छोटे-छोटे कपड़ों में नचाया जाता है. आपने यह नहीं देखा कि उन्हें नचवाता कौन है? और उन्हें देखने कौन जाता है? औरतें तो नहीं जाती. और आपने कभी यह जानने की कोशिश की है कि ये लड़कियाँ कौन हैं और किन परिस्थितियों में ये काम करती हैं? मैंने दूध के लिये अपने बच्चे को बिलखता छोड़ कर नाचने वाली लड़कियों को देखा है. रात में बिना कुछ खाये-पिये घंटों नाचकर बेहोश होते हुये देखा है, अपनी आँखों के सामने. एक बार आप भी सहानुभूति से देखिये.
-कोई भी औरत जानबूझकर अपना घर तोड़ना नहीं चाहती. मैंने डॉक्टर, प्रवक्ता और वकील जैसे पद पर प्रतिष्ठित महिलाओं को अपना परिवार टूटने से बचाने के लिये पति से पिटकर भी चुप रहते देखा है. घर तब टूटते हैं जब बात हद से गुज़र जाती है.
दूबे जी मैं एक महिला संगठन के साथ कार्यकर्ता (एक्टिविस्ट) के रूप में काम कर चुकी हूँ और अपने अनुभव से ये बात कर रही हूँ. हमने घरेलू हिंसा से पीड़ित औरतों की काउंसलिंग की है और देखा है कि जिन पढ़ी-लिखी औरतों लोग तरह-तरह के आरोप लगाते हैं वही अपने परिवार को छोड़ना नहीं चाहती, जबकि अपेक्षाकृत निर्धन और अनपढ़ औरतें अपने पति और परिवार  को छोड़ने को तैयार हो जाती हैं. मैं अपने अनुभव से आपको बता रही हूँ न कि सुनी-सुनायी.

Posted on 10/06/2009 12:36:00 am | Categories:

शनिवार, 19 सितंबर 2009

छेड़छाड़ की समस्या

बहुत दिनों से मैं इस लेख पर अच्छी प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा कर रही थी. आज सोचा कि कुछ लिख ही लिया जाये. मेरे एक मित्र ने छेड़छाड़ की समस्या को एक मानसिक समस्या बताया है. मैं उनकी इस बात से बिल्कुल भी सहमत नहीं हूँ. यह समस्या केवल मनोवैज्ञानिक नहीं बल्कि सामाजिक समस्या है. अगर इस समस्या को केवल मनोवैज्ञानिक मान लें तो दुनिया के साठ से सत्तर प्रतिशत पुरुष मनोरोगी सिद्ध हो जायेंगे. यह इतनी सीधी-सादी सी बात नहीं है. जिस तरह भारत में दलितों की समस्या की जड़ें इसके इतिहास और सामाजिक ढाँचे में निहित हैं, उसी प्रकार पूरे विश्व में नारी की समाज में दोयम स्थिति की जड़ें भी इतिहास और समाज में हैं. ये बात अलग है कि यह समस्या अलग-अलग देशों और समाजों में भिन्न-भिन्न रूप और स्तर लिये हुये है. एक बात और है कि कुछ देशों और समाजों ने इस समस्या पर काफी पहले ध्यान दिया और इसे दूर करने के प्रयास भी किये. हमारे सामने स्कैंडेनेवियाई देशों का उदाहरण है, जहाँ लिंग-भेद दूर तो नहीं हुआ, पर अन्य स्थानों से कम ज़रूर है.
     महिलाओं के साथ छेड़छाड़ की समस्या हमारे समाज में गहरे पैठी लिंग-भेद से ही उपजती है, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती. हम देखते हैं कि बचपन से ही लड़के और लड़की के पालन-पोषण में दो अलग-अलग मानदंडों का प्रयोग किया जाता है. जहाँ लड़कों को बहिर्मुखी गुणों की शिक्षा दी जाती है, लड़कियों को कोमल गुणों की. लड़के के रोने पर रोक लगायी जाती है और लड़कियों के ज़ोर से हँसने पर. यदि आप लोगों के व्यवहार पर सूक्ष्म दृष्टि डालें तो आप देखेंगे कि विशेषतः गावों में लोग छोटे लड़कों के जननांगों को तरह-तरह से पुकारते और लाड़ करते हैं. यह सामाजीकरण की एक विशेष प्रक्रिया है, जिससे लड़कों में बचपन से ही एक उच्च्तर भावना आ जाती है जिसे अंग्रेजी में सुपीरियरिटी काम्प्लेक्स कहते हैं और लड़कियों में हीन-भावना आ जाती है. क्योंकि वे सोचती हैं कि कोई ऐसी चीज़ लड़कों के पास है जो उनके पास नहीं है. यदि आप सीमोन द बुआ की सेकेन्ड सेक्स पढ़ें तो ये सब बातें आपको और अधिक स्पष्ट हो जायेंगी. धीरे-धीरे यही ग्रन्थि आगे चलकर लड़कों में अपने शरीर के प्रति एक ख़ास तरह का अहंकार पैदा करती है और वे बात-बात में अपनी शारीरिक शक्ति का प्रदर्शन करने लगते हैं. लड़कों द्वारा लड़कियों से छेड़छाड़ के पीछे उनकी यही मानसिकता है. इसके द्वारा वे खुद को लड़कियों से श्रेष्ठ दिखाना चाहते हैं.
     इस प्रकार भले ही यह समस्या मनोवैज्ञानिक हो पर इसके मूल में सामाजीकरण की प्रक्रिया है. इस प्रकार दोष किसी एक पुरुष या समाज के किसी एक हिस्से का नहीं बल्कि पूरे सामाजिक ढाँचे का है. मज़े की बात यह है कि माँ-बाप कब अपने बच्चे में ये ग्रन्थि पैदा कर देते हैं उन्हें खुद ही नहीं मालूम होता क्योंकि ये तो हमेशा से होता आया है और हमारे समाज की संरचना में रचा-बसा है. मैं मानती हूँ कि और भी बातें हो सकती हैं जो इस समस्या को गंभीर बना देती हैं. और बहुत बार एक व्यक्ति  के व्यक्तित्व पर भी कुछ निर्भर करता है. पर सामान्यतः छेड़छाड़ की समस्या सामाजिक है और यदि हम अपने बच्चों के पालन-पोषण में कुछ बातों का ध्यान रखें तो इसे दूर भी कर सकते हैं.

मंगलवार, 5 मई 2009

मेरे कुछ सवाल...जवाब कौन देगा?

मेरा पालन-पोषण बचपन से ही लड़कों की तरह हुआ था. मैं अपने भाई से सिर्फ़ एक साल बड़ी हूँ. मेरे घर में हम दोनों के लिये एक जैसी चीज़ें आती थीं. मुझे कभी नहीं लगा कि मैं उससे किसी भी मामले में अलग हूँ. पढ़ने-लिखने में उससे ज़्यादा तेज थी, इसलिये मेरे पिताजी मेहमानों के सामने मेरी बडा़ई करते थे. मैं उनकी दुलारी बिटिया थी. पर धीरे-धीरे मेरे बड़े होने के साथ ही चीज़ें बदलने लगीं. माँ मुझे लड़कों के साथ खेलने के लिये मना करने लगी. मेरा भाई शाम को देर से खेलकर घर आता था, पर मेरा बाहर आना-जाना बन्द हो गया. हम पढ़ने गाड़ी(ट्रेन) से आते-जाते थे. गाड़ी में अनचाहे स्पर्शों का सामना करना पड़ता था. मेरा भाई भीड़ में भी घुसकर बैठ जाता था और मैं किनारे बच-बचाकर खड़ी रहती थी .जिन लड़कियों को बस या ट्रेन से दैनिक यात्रा करनी पड़ती है ,उन्हें पता है कि कैसे गन्दे अनुभवों से गुज़रना पड़ता है. उफ़... धीरे-धीरे पता चला कि मैं अपने भाई जैसी नहीं हूँ, मैं उससे अलग कोई और ही "जीव" हूँ, जिसे जब चाहे छेड़ा जा सकता है, जैसे चिड़ियाघर में बन्द जानवरों को कुछ कुत्सित मानसिकता वाले लोग छेड़ते हैं. जब भी मेरे साथ ऐसी कोई घटना होती मुझे लगता कि मेरे अन्दर ही कोई कमी है ,मेरे शरीर में कुछ ऐसा है जो लोगों को आकर्षित करता है .ऐसी बातें सोचकर मैं अपने शरीर को लेकर हीनभावना का शिकार हो गयी. मैं अपनी लम्बाई के कारण उम्र से बड़ी दिखने लगी थी, इसलिये मैं झुककर चलने लगी. मैं अपने उन अंगों को छिपाने लगी जो मुझे मेरे लड़की होने का एहसास कराते थे. इस तरह एक लड़की जो बचपन में तेज-तर्रार और हँसमुख थी ,एक गंभीर, चुप ,डरी-डरी सी लड़की बन गयी. स्नातक की पढाई करने के लिये जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय आई और हास्टल में रहने लगी तब अन्य लड़कियों से बात करके पता चला कि छेड़छाड़ की समस्या सिर्फ़ मेरी ही नहीं थी. हर लड़की कभी न कभी इस कड़वे अनुभव से गुज़र चुकी है. ...अब सवाल यह है कि इस अप्रिय परिस्थिति का ज़िम्मेदार कौन है- मेरे परिवार वाले, हर लड़की के परिवार वाले या समाज........और... इसका जवाब कौन देगा या किसे देना चाहिये... क्या आप जवाब देंगे... कोशिश कीजिये ... नहीं तो मैं ही जवाब दूँगी... इसी ब्लोग पर.

शनिवार, 25 अप्रैल 2009

पितृसत्ता :एक अवलोकन

पितृसत्ता का तात्पर्य आमतौर पर पुरुष-प्रधान समाज से लिया जाता है,जिसमें सम्पत्ति का उत्तराधिकार पिता से पुत्र को प्राप्त होता है. परन्तु नारीवादी दृष्टि से पितृसत्ता की अवधारणा अत्यन्त व्यापक है. यह मात्र पुरुषों के वर्चस्व से सम्बन्धित नहीं है, अपितु इसका सम्बन्ध उस सामाजिक ढाँचे से है, जिसके अन्तर्गत सत्ता सदैव शक्तिशाली के हाथ में होती है, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष. इस प्रकार पितृसत्तात्मक विचारधारा स्त्री और पुरुष दोनों को प्रभावित करती है.
पितृसत्ता के इस अर्थ को समझ लेने पर हम उस आक्षेप का स्पष्टीकरण दे सकते हैं,जिसके अनुसार कहा जाता है "नारी ही नारी की दुश्मन होती है." इस सन्दर्भ में ग़ौर करने लायक बात यह है कि कोई भी सीधी-सादी और कमज़ोर स्त्री दूसरी स्त्री पर अत्याचार नहीं करती. ऐसा करने वाली स्त्रियाँ पितृसत्तात्मक विचारधारा से प्रभावित होती हैं, वे ख़ुद को श्रेष्ठ समझती हैं और दूसरी औरतों को नीचा दिखाने की कोशिश करती हैं.
हमारे समाज को ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक समाज कहा जाता है क्योंकि यहाँ जाति-व्यवस्था समाज के ढाँचे का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जो कि भारतीय समाज को एक पद-सोपानीय स्वरूप प्रदान करता है. इस क्रम में सवर्ण पुरुष सबसे ऊपर के पायदान पर स्थित होता है और दलित स्त्री सबसे निचले क्रम पर.
पितृसत्तात्मक व्यवस्था की यह महत्वपूर्ण विशेषता है कि यह समाज के प्रत्येक सदस्य को एक समान न मानकर ऊँचा या नीचा स्थान प्रदान करती है. इस प्रकार पितृसत्तात्मक व्यवस्था लोकतान्त्रिक मूल्यों के सर्वथा विपरीत है, जिसमें जाति, लिंग, वर्ण, वर्ग, धर्म आदि के भेद से ऊपर "एक व्यक्ति, एक मत" के सिद्धांत को अपनाकर मानवीय गरिमा को सर्वोपरि माना गया है. पितृसत्ता को पहचानकर उसका गहराई से विश्लेषण करना तथा उसका सही स्वरूप सामने लाना नारीवादी आन्दोलन का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है.

गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

नारीवाद और नारी-सशक्तीकरण

नारीवाद और नारीसशक्तीकरण एक-दूसरे से भिन्न अवश्य हैं, परन्तु विरोधी नहीं। नारीवाद एक दर्शन है,जिसका उद्देश्य है-समाज में नारी की विशेष स्थिति के कारणों का पता लगाना और उसकी बेहतरी के लिये वैकल्पिक समाधान प्रस्तुत करना, जबकि महिला-सशक्तीकरण एक आन्दोलन है,एक कार्य-योजना है,एक प्रक्रिया है,जिसे मुख्यत: सरकार और गैरसरकारी संगठन करते हैं।
नारीवाद चूँकि नारी की समस्याओं का अध्ययन है,इसलिये यह तब तक अप्रसांगिक नहीं हो सकता जब तक कि समाज में नारी और पुरुष एक बराबर की स्थिति में न आ जाएं। women studies में हम दोनों का ही अध्ययन करते हैं- सिद्धांतों का भी और उसके अनुप्रयोगों का भी.
अब प्रश्न उठता है नारीवाद के प्रासंगिक या अप्रासंगिक होने का। नारी-सशक्तीकरण इस समय प्रमुख उद्देश्य है,इस से सभी सहमत हैं,परन्तु सशक्तीकरण की आवश्यकता क्यों है ? इसीलिये क्योंकि नारी अशक्त है। परन्तु नारी अशक्त क्यों और किस तरह है, इसका जवाब नारीवाद ही दे सकता है। नारीवाद ही बता सकता है कि किस समाज में नारी-सशक्तीकरण के कौन-कौन से तरीके या रणनीति अपनानी चाहिये। पर, अफ़सोस अभी हमारे समाज में बहुत से लोग यह मानते ही नहीं कि महिलाओं की स्थिति दोयम दर्ज़े की है। महिलायें किसी भी मामले में पुरुषों से कम नहीं हैं,परन्तु उन्हें अवसरों से वन्चित कर दिया जाता है-नारीवाद ऐसी परिस्थितियों के विषय में बताता है और उस दिशा में प्रयास करने का कार्य ही नारी-सशक्तीकरण कहलाता है।

सोमवार, 13 अप्रैल 2009

सेक्स और जेंडर में अन्तर

नारीवाद का सबसे बड़ा योगदान है "सेक्स" और "जेन्डर" में भेद स्थापित करना . सेक्स एक जैविक शब्दावली है ,जो स्त्री और पुरुष में जैविक भेद को प्रदर्शित करती है . वहीं जेन्डर शब्द स्त्री और पुरुष के बीच सामाजिक भेदभाव को दिखाता है . जेन्डर शब्द इस बात की ओर इशारा करता है कि जैविक भेद के अतिरिक्त जितने भी भेद दिखते हैं,वे प्राकृतिक न होकर समाज द्वारा बनाये गये हैं और इसी में यह बात भी सम्मिलित है कि अगर यह भेद बनाया हुआ है तो दूर भी किया जा सकता है . समाज में स्त्रियों के साथ होने वाले भेदभाव के पीछे पूरी सामाजीकरण की प्रक्रिया है,जिसके तहत बचपन से ही बालक-बालिका का अलग-अलग ढंग से पालन-पोषण किया जाता है और यह फ़र्क कोई भी अपने आसपास देख सकता है . लड़कियों को घर के अन्दर का कामकाज अच्छी तरह सिखाया जाता है,जबकि लड़कों को बाहर का . लड़्कियों को दयालु, कोमल, सेवाभाव रखने वाली और घरेलू समझा जाता है और लड़कों को मजबूत,ताकतवर, सख्त और वीर समझा जाता है .हालाँकि अब स्थिति में थोड़ा सुधार आया है पर हर जगह नहीं और हर स्तर पर नहीं .यह नहीं कहा जा सकता कि किसी तरह के किसी काम में कोई बुराई है पर काम के इस वर्गीकरण से बहुत सी लड़कियों की प्रतिभा दबी रह जाती है और बहुत से लड़के मानसिक विकृतियों के शिकार हो जाते हैं .यह सुनने में अटपटा लग सकता है,पर सामान्यतया छोटे लड़कों को यह कहकर चुप कराते हैं कि मर्दों को रोना नहीं चाहिये,हम उनसे भावनात्मक बातें नहीं करते ,जिससे वे अन्दर ही अन्दर घुटते रहते हैं . कुछ लड़के बहुत भावुक होते हैं और अक्सर अपनी बात कहकर इसलिये रो नहीं पाते कि लोग उन्हें चिढाएंगे . कुल मिलाकर, जेन्डर-आधारित भेदभाव न सिर्फ़ औरतों को, बल्कि पुरुषों को भी एक बने-बनाये ढाँचे में जीवन जीने के लिये मजबूर कर देता है.

शनिवार, 11 अप्रैल 2009

नारीवाद का मतलब

ऑरकुट पर नारीवाद से सम्बंधित कम्युनिटी ढूँढते हुए मैंने नारीवाद-विरोधी कम्युनिटी भी देखीं .कुछ ऐसी भी हैं जिनका कहना है की वे feminists से नफरत करते हैं पर humanists से प्यार करते हैं .वैसे ,इस democratic देश में सभी को अपनी पसंद और विचार जाहिर करने का अधिकार है ,पर मैंने देखा है कि जो लोग जिसके बारे में नहीं जानते ,वे ही सबसे अधिक विरोध करते हैं .नारीवाद की ना कभी पुरुषों से दुश्मनी रही है और ना ही मानववाद से . तो जब कोई यह कह रहा होता है कि वह नारीवाद को इसलिए पसंद नहीं करता कि वह पुरुषों का विरोधी है ,तो वह अपने इस विषय में कम ज्ञान को दिखा रहा होता है .नारीवाद एक ऐसा सिद्धांत है जो समाज के उस पक्ष को प्रस्तुत करता है ,जहाँ सदियों से औरत को दूसरे स्थान पर रखा गया .अब लोग यह भी कह सकते हैं की हमारे देश में कभी नारी की पूजा होती थी ,यह बात भी पूरी तरह सच नहीं है ,इसके विषय में भी किसी को अच्छी तरह पढ़ के ही बोलना चाहिए .anti-feminism आज-कल उसी तरह fashion हो गया है ,जैसे किसी समय feminism का था .पर किसी भी विचार का समर्थन या विरोध करते समय कम से कम उसका कुछ ज्ञान तो होना ही चाहिए और मेरे विचार से एक बार नारीवाद को जान लेने के बाद कोई उसका विरोध नहीं करेगा , सहमत भले ही ना हो .

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009

संदेश

जब मैंने ब्लॉग लिखना शुरू किया था ,तो सोचा था कि सिर्फ़ कवितायें ही लिखूंगी .पर मुझे लगने लगा कि कविताओं में अपनी भावनाएँ तो सुन्दरता से अभिव्यक्त की जा सकती हैं ,पर विचार नहीं .तो मैंने यह नया ब्लॉग शुरू किया .इसके माध्यम से मैं अपने विचारों को अपने ब्लॉग-जगत के साथियों तक पहुँचाना चाहूँगी .मैं चाहूँगी की यह ब्लॉग नारी मुद्दों से सरोकार रखने वालों के लिए एक मंच का काम करे .मैं इस ब्लॉग को अन्य नारी सम्बन्धी ब्लॉग से जोड़ने का प्रयास भी करुँगी .मैं कुछ प्रश्न उठाऊंगी और अपने साथियों से अपेक्षा करुँगी कि वे इसका उत्तर बेहिचक दें।
Posted on 4/03/2009 12:17:00 am | Categories:

रविवार, 11 जनवरी 2009

आज की नारी

हम इस ब्लॉग पर बातें करेंगे आज की नारी की आकांक्षाओं और सपनों की ,और दार्शनिकों में इन सपनों तथा उन्हें पूरा करने के रास्तों को लेकर चल रही बहसों की .ब्लॉग लेखक कोई बड़ा /बड़ी फेमिनिस्ट नहीं है ,लेकिन इन मामलों की थोड़ी बहुत समझ ज़रूर है .पाठक इस ब्लॉग पर बहस के लिए तथा ब्लोगर की बातों से सहमत और असहमत होने के लिए सादर आमंत्रित हैं .