बुधवार, 1 अप्रैल 2015

परम्परागत विवाह या...

मेरे एक मित्र ने कहा था कि "हिन्दुस्तान में नब्बे प्रतिशत संयुक्त परिवार इसलिए चल रहे हैं कि स्त्रियाँ 'सह' रही हैं, जिस दिन वे सहना छोड़ देंगी, परिवार भरभराकर ढह जायेंगे." उन्होंने उस मंदिर का जिक्र किया, जहाँ विधवा-विधुर और तलाकशुदा स्त्रियों और पुरुषों का विवाह करवाने के लिए उनके माता-पिता और सम्बन्धी नाम दर्ज कराते हैं. मुझे आश्चर्य हुआ कि ऐसी भी जगहें होती हैं. उन्होंने कहा कि वहाँ ज़्यादा संख्या तलाकशुदा लोगों की ही थी. और तलाक क्यों बढ़ रहे हैं उसका कारण भी उन्होंने यही दिया क्योंकि अब बहुत सी लड़कियाँ 'सह' नहीं रही हैं. पहले लड़कियाँ 'किसी भी तरह' निभाती रहती थीं, वैसे ही जैसे पिछली पीढ़ी संयुक्त परिवार की ज़िम्मेदारियाँ निभा रही है.

मैं मानती हूँ कि यह सच है कि स्त्रियाँ अब 'जैसे-तैसे' अपना गृहस्थ जीवन खींचना नहीं चाहतीं, जीना चाहती हैं. इसलिए उन्होंने 'लड़की की मायके से डोली उठती है और ससुराल से अर्थी' वाली कहावत को मानने से इंकार कर दिया है. लेकिन कितने प्रतिशत लड़कियों ने? यह सोचने की बात है.

तलाक सिर्फ इसलिए नहीं हो रहे कि लड़कियों ने सहना छोड़ दिया है, बल्कि इसलिए भी कि परम्परागत विवाह (अरेंज्ड मैरिज) की प्रक्रिया ही सिरे से बकवास है. मेरी एक मित्र जो कि राज्य प्रशासनिक सेवा की ऑफिसर है, कई लड़कों को 'देख' चुकी है '(मिलना' शब्द यहाँ किसी भी तरह उपयुक्त लग ही नहीं रहा है) लेकिन वह समझ ही नहीं पाती कि एक-दो या ज़्यादा से ज़्यादा तीन घंटे की देखन-दिखाई, वह भी परिवार वालों के बीच किसी व्यक्ति को जीवनसाथी के रूप में परखने में किस प्रकार सहायक हो सकती है? यहाँ लड़का-लड़की दोनों का अहं भी आ जाता है. यदि वे बात करें और सामने वाले ने उसके बाद मना कर दिया तो उनकी तो बेइज्जती हो जायेगी. यह भी बात है कि कहीं एकतरफा लगाव हो गया और सामने से अस्वीकार, तो?

एक नहीं, हज़ार बातें हैं. उस पर भी इतने झूठ बोले जाते हैं परम्परागत विवाह के लिए कि पूछिए मत. मेरे उन्हीं मित्र ने एक बात और कही कि न जाने कितने तलाक तो एक-दूसरे के झूठ खुलने की वजह से होते हैं. दोनों ओर से एक-दूसरे के बारे में खूब बढ़ा-चढ़ाकर बातें की जाती हैं, जिनमें से आधी झूठ होती हैं. देख-परखकर विवाह करना अच्छी बात है, लेकिन उसका अवकाश तो मिले. कम से कम थोड़ी देर के लिए तो अकेले में बात कर सकें. वैसे मेरे विचार से तो उन्हें कई दिन तक बात करनी चाहिए जिससे एक-दूसरे के बारे में गहराई से जान सकें...लेकिन यहाँ पर एक तो लड़का-लड़की का अहं और ठुकराए जाने का डर होता है दूसरे "झूठ बोलकर रिश्ता लगवाने वाले" उनको ऐसा नहीं करने देना चाहते. आश्चर्य है कि अपने देश में ऐसे कूढ़मगज आज भी हैं. माफ कीजियेगा ऐसा कहने के लिए, लेकिन जीवन भर के साथ के लिए इस तरह से शुरुआत मुझे बहुत हास्यास्पद लगती है.

वास्तवकिता यह है कि हममें से कुछ लोग किसी न किसी तरह से जल्द से जल्द अपने बच्चों की शादी कर देना चाहते हैं बस. ये बात लड़के-लड़की दोनों के लिए एक जैसी है. अरेंज्ड शादियों में इतना अवकाश नहीं होता कि एक-दूसरे को ठीक से जान-समझ सकें. प्रेम विवाह में भी कभी-कभी पता नहीं चल पाता कि हम वास्तव में एक-दूसरे से प्रेम करते हैं या नहीं. लेकिन मेरे मित्र ने जिन लोगों का जिक्र किया था वे सभी अरेंज्ड यानि पारंपरिक विवाह के सताए हुए ही थे. माता-पिता ने बिना गहराई से जाँच-पड़ताल किये और बिना लड़का-लड़की को एक-दूसरे को समझने का मौका दिए विवाह कर दिया. जब वे दोनों वैवाहिक जीवन में मिले तो पाया कि वैसा कुछ भी नहीं था, जैसा उन्होंने सोचा था. फिर भी कोशिश की टूटे दिल और रिश्ते को बचाने की और जब निभाते-निभाते ऊब गए तो आखिर अलग होने का फैसला ले लिया. मित्र के मुताबिक़ कुछ शादियाँ छः महीनों में टूट गयीं.

मैं यह नहीं मानती कि विवाह जन्म-जन्मांतर का बंधन होते हैं, लेकिन किसी रिश्ते के टूटने पर दर्द तो होता ही है, गुस्सा और पछतावा भी होता है, खासकर के जब वह उस "तरीके" के अनुसार हुआ हो, जिसे हम भारतीय सबसे आदर्श विवाह मानते हैं- "शादी दो लोगों के बीच नहीं, दो परिवारों के बीच होती है" क्या कर पाते हैं परिवारवाले जब रिश्ता टूटता है तो? कुछ नहीं न? तो इसे इतना अनुल्लंघनीय क्यों बना दिया है उन्होंने? इसी को आदर्श विवाह क्यों मानते हैं? ये मान क्यों नहीं लेते कि इसमें खामियाँ हैं और यदि सुधार न हुआ तो इसी तरह से आपके बच्चे मानसिक संत्रास से गुजरते रहेंगे.

मेरे विचार से विवाह का निर्णय उन दोनों लोगों के लिए ही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होता है, जिन्हें एक-दूसरे के साथ जीवन बिताना है. इसलिए निर्णय भी उन्हीं को केन्द्र में रखकर लिया जाना चाहिए और सबसे बेहतर है कि निर्णय ही उन्हीं को लेने दिया जाय. ये बात माँ-बाप को बुरी लग सकती है, लेकिन बेहतर तो यही है. लड़का-लड़की को भी समझना चाहिए कि रात-दिन एक साथ रहकर ज़िंदगी उन्हें बाँटनी है, माँ-बाप को नहीं, इसलिए खुद निर्णय लें, भले ही इसके लिए माँ-बाप के विरुद्ध जाना पड़े. और बेशक, जब लगे कि नहीं निभनी है तो अलग हो जाएँ. कोई भी रिश्ता इतना महत्त्वपूर्ण नहीं होता कि उसे निभाने के लिए आप अपनी ज़िंदगी नरक बना लीजिए.