आजकल ब्लॉगजगत में महिला ब्लॉगर्स और महिला मुद्दों को लेकर कुछ अधिक चर्चाएँ हो रही हैं. इनमें दो मुद्दे प्रमुख हैं- पहला मुद्दा यह है कि एक लेखक, लेखक होता है. क्या उसे स्त्री या पुरुष के वर्ग में बाँटना उचित है? इस बात से एक और बात निकलती है कि नारी ब्लॉगर्स एक ओर तो स्त्री-पुरुष समानता की बात करते हैं, दूसरी ओर महिला ब्लॉगर का बिल्ला लगाये भी घूमना चाहते हैं. दूसरा मुद्दा यह है कि नारीवाद जब स्त्री-पुरुष दोनों की समानता की बात करता है तो उसे नारीवाद क्यों कहा जाय, समानतावाद क्यों नहीं? देखने में ये दोनों बातें अलग-अलग लग सकती हैं,परन्तु ये दोनों ही बातें एक बात से जुड़ी हैं और वह है-समानतावाद.
मैं इन दोनों ही मुद्दों पर नारीवादी दृष्टिकोण को स्पष्ट करुँगी. पहली बात के जवाब में मैं यह कहना चाहुँगी कि जिस प्रकार हमारा समाज विभिन्न जाति, धर्म, सम्प्रदाय में बँटा हुआ है, उसी तरह स्त्री और पुरुष से मिलकर भी बना है. सामाजिक व्यवस्था इस प्रकार की है कि लड़की और लड़के का पालन-पोषण अलग-अलग ढँग से होता है. समाज की एक विशेष मानसिकता के चलते लड़कियों को कुछ ऐसे अनुभव होते हैं, जिनके बारे में कोई लड़का सोच भी नहीं सकता. खुद लड़कियाँ भी ये नहीं जानतीं कि ऐसा प्रायः हर लड़की के साथ होता है. जब एक लड़की, औरत बनती है तो उसके सामने दूसरे तरह की समस्याएँ और अनुभव आते हैं. इन सब बातों के कारण स्त्रियों के विशेष प्रकार के लेखन की ज़रूरत होती है. और यह लेखन सामुदायिक इसलिये होना चाहिये क्योंकि औरतों के ये अनुभव उनकी विशेष प्रकृति के साथ-साथ समाज की विशेष व्यवस्था के कारण होते हैं. इस प्रकार के व्यक्तिगत अनुभवों की बातें एक मंच पर होने से हमें यह पता चलता है कि कोई समस्या कितनी गम्भीर है और उसके कितने आयाम हो सकते हैं. महिला लेखन ही क्यों, दलित लेखन भी उसी प्रकार उचित है, क्योंकि एक दलित अपने समस्याओं, अपने अनुभवों के बारे में जितना अच्छा लिख सकता है, उतना और कोई नहीं. मेरे विचार से इस प्रकार के अलग-अलग वर्गों के लेखन से साहित्यिक समाज में फूट नहीं पड़ती, बल्कि वह समृद्ध होता है.
दूसरी बात जो यह उठी थी कि नारीवाद को समानतावाद क्यों न कहा जाय तो इसके जवाब में मैं यह कहूँगी कि नारीवाद और समानतावाद दो अलग सिद्धान्त हैं. यद्यपि समानतावाद के अन्तर्गत ही नारीवाद आता है, तथापि नारीवाद ने कभी निरपेक्ष समानता की बात नहीं की. नारीवाद ने कभी नहीं कहा कि स्त्री-पुरुष को एक समतल पर लाकर खड़ा कर दिया जाय. बल्कि नारीवाद ने विकल्प और अवसरों की समानता की बात कही है. नारीवाद ने कभी समाज के नियमों या नारी के उत्तरदायित्त्व से स्वतन्त्रता की माँग नहीं की, बल्कि निर्णय लेने की स्वतन्त्रता की माँग की है. स्त्री और पुरुष पूरी तरह से समान न हैं और न हो सकते हैं. पर दो लोग समान नहीं हैं, इससे यह कहाँ सिद्ध होता है कि एक दूसरे से श्रेष्ठ है? कौन क्या कर सकता है, इसका पता तो तब चले जब दोनों को बराबर अवसर मिले. पर हमारे समाज में तो पहले से ही यह मान लिया जाता है कि औरतें अमुक-अमुक कार्य कर ही नहीं सकतीं. मेरे विचार से हर लड़की और लड़के को समान अवसर मिलना चाहिये यह सिद्ध करने के लिये. और चूँकि यह अवसर आज सिर्फ़ पुरुषों को मिला हुआ है औरतों को नहीं, इसलिये नारीवाद ने यह माँग उठाई है. नारीवाद को समानतावाद कहने से समस्या के मूल का पता ही नहीं चलेगा क्योंकि फिर हर कोई यह पूछेगा कौन समान, किसके समान आदि.
हमारे भारतीय समाज में विविधता है और हमें प्रत्येक विविधता का सम्मान करना चाहिये क्योंकि विविधता होना ग़लत नहीं है, उसके आधार पर भेदभाव ग़लत है.
मैं इन दोनों ही मुद्दों पर नारीवादी दृष्टिकोण को स्पष्ट करुँगी. पहली बात के जवाब में मैं यह कहना चाहुँगी कि जिस प्रकार हमारा समाज विभिन्न जाति, धर्म, सम्प्रदाय में बँटा हुआ है, उसी तरह स्त्री और पुरुष से मिलकर भी बना है. सामाजिक व्यवस्था इस प्रकार की है कि लड़की और लड़के का पालन-पोषण अलग-अलग ढँग से होता है. समाज की एक विशेष मानसिकता के चलते लड़कियों को कुछ ऐसे अनुभव होते हैं, जिनके बारे में कोई लड़का सोच भी नहीं सकता. खुद लड़कियाँ भी ये नहीं जानतीं कि ऐसा प्रायः हर लड़की के साथ होता है. जब एक लड़की, औरत बनती है तो उसके सामने दूसरे तरह की समस्याएँ और अनुभव आते हैं. इन सब बातों के कारण स्त्रियों के विशेष प्रकार के लेखन की ज़रूरत होती है. और यह लेखन सामुदायिक इसलिये होना चाहिये क्योंकि औरतों के ये अनुभव उनकी विशेष प्रकृति के साथ-साथ समाज की विशेष व्यवस्था के कारण होते हैं. इस प्रकार के व्यक्तिगत अनुभवों की बातें एक मंच पर होने से हमें यह पता चलता है कि कोई समस्या कितनी गम्भीर है और उसके कितने आयाम हो सकते हैं. महिला लेखन ही क्यों, दलित लेखन भी उसी प्रकार उचित है, क्योंकि एक दलित अपने समस्याओं, अपने अनुभवों के बारे में जितना अच्छा लिख सकता है, उतना और कोई नहीं. मेरे विचार से इस प्रकार के अलग-अलग वर्गों के लेखन से साहित्यिक समाज में फूट नहीं पड़ती, बल्कि वह समृद्ध होता है.
दूसरी बात जो यह उठी थी कि नारीवाद को समानतावाद क्यों न कहा जाय तो इसके जवाब में मैं यह कहूँगी कि नारीवाद और समानतावाद दो अलग सिद्धान्त हैं. यद्यपि समानतावाद के अन्तर्गत ही नारीवाद आता है, तथापि नारीवाद ने कभी निरपेक्ष समानता की बात नहीं की. नारीवाद ने कभी नहीं कहा कि स्त्री-पुरुष को एक समतल पर लाकर खड़ा कर दिया जाय. बल्कि नारीवाद ने विकल्प और अवसरों की समानता की बात कही है. नारीवाद ने कभी समाज के नियमों या नारी के उत्तरदायित्त्व से स्वतन्त्रता की माँग नहीं की, बल्कि निर्णय लेने की स्वतन्त्रता की माँग की है. स्त्री और पुरुष पूरी तरह से समान न हैं और न हो सकते हैं. पर दो लोग समान नहीं हैं, इससे यह कहाँ सिद्ध होता है कि एक दूसरे से श्रेष्ठ है? कौन क्या कर सकता है, इसका पता तो तब चले जब दोनों को बराबर अवसर मिले. पर हमारे समाज में तो पहले से ही यह मान लिया जाता है कि औरतें अमुक-अमुक कार्य कर ही नहीं सकतीं. मेरे विचार से हर लड़की और लड़के को समान अवसर मिलना चाहिये यह सिद्ध करने के लिये. और चूँकि यह अवसर आज सिर्फ़ पुरुषों को मिला हुआ है औरतों को नहीं, इसलिये नारीवाद ने यह माँग उठाई है. नारीवाद को समानतावाद कहने से समस्या के मूल का पता ही नहीं चलेगा क्योंकि फिर हर कोई यह पूछेगा कौन समान, किसके समान आदि.
हमारे भारतीय समाज में विविधता है और हमें प्रत्येक विविधता का सम्मान करना चाहिये क्योंकि विविधता होना ग़लत नहीं है, उसके आधार पर भेदभाव ग़लत है.