शनिवार, 26 दिसंबर 2009

महिला ब्लॉगर्स बनाम पुरुष ब्लॉगर्स तथा नारीवाद बनाम समानतावाद

आजकल ब्लॉगजगत में महिला ब्लॉगर्स और महिला मुद्दों को लेकर कुछ अधिक चर्चाएँ हो रही हैं. इनमें दो मुद्दे प्रमुख हैं- पहला मुद्दा यह है कि एक लेखक, लेखक होता है. क्या उसे स्त्री या पुरुष के वर्ग में बाँटना उचित है? इस बात से एक और बात निकलती है कि नारी ब्लॉगर्स एक ओर तो स्त्री-पुरुष समानता की बात करते हैं, दूसरी ओर महिला ब्लॉगर का बिल्ला लगाये भी घूमना चाहते हैं. दूसरा मुद्दा यह है कि नारीवाद जब स्त्री-पुरुष दोनों की समानता की बात करता है तो उसे नारीवाद क्यों कहा जाय, समानतावाद क्यों नहीं?  देखने में ये दोनों बातें अलग-अलग लग सकती हैं,परन्तु ये दोनों ही बातें एक बात से जुड़ी हैं और वह है-समानतावाद.
     मैं इन दोनों ही मुद्दों पर नारीवादी दृष्टिकोण को स्पष्ट करुँगी. पहली बात के जवाब में मैं यह कहना चाहुँगी कि जिस प्रकार हमारा समाज विभिन्न जाति, धर्म, सम्प्रदाय में बँटा हुआ है, उसी तरह स्त्री और पुरुष से मिलकर भी बना है. सामाजिक व्यवस्था इस प्रकार की है कि लड़की और लड़के का पालन-पोषण अलग-अलग ढँग से होता है. समाज की एक विशेष मानसिकता के चलते लड़कियों को कुछ ऐसे अनुभव होते हैं, जिनके बारे में कोई लड़का सोच भी नहीं सकता. खुद लड़कियाँ भी ये नहीं जानतीं कि ऐसा प्रायः हर लड़की के साथ होता है. जब एक लड़की, औरत बनती है तो उसके सामने दूसरे तरह की समस्याएँ और अनुभव आते हैं. इन सब बातों के कारण स्त्रियों के विशेष प्रकार के लेखन की ज़रूरत होती है. और यह लेखन सामुदायिक इसलिये होना चाहिये क्योंकि औरतों के ये अनुभव उनकी विशेष प्रकृति के साथ-साथ समाज की विशेष व्यवस्था के कारण होते हैं. इस प्रकार के व्यक्तिगत अनुभवों की बातें एक मंच पर होने से हमें यह पता चलता है कि कोई समस्या कितनी गम्भीर है और उसके कितने आयाम हो सकते हैं. महिला लेखन ही क्यों, दलित लेखन भी उसी प्रकार उचित है, क्योंकि एक दलित अपने समस्याओं, अपने अनुभवों के बारे में जितना अच्छा लिख सकता है, उतना और कोई नहीं. मेरे विचार से इस प्रकार के अलग-अलग वर्गों के लेखन से साहित्यिक समाज में फूट नहीं पड़ती, बल्कि वह समृद्ध होता है.
     दूसरी बात जो यह उठी थी कि नारीवाद को समानतावाद क्यों न कहा जाय तो इसके जवाब में मैं यह कहूँगी कि नारीवाद और समानतावाद दो अलग सिद्धान्त हैं. यद्यपि समानतावाद के अन्तर्गत ही नारीवाद आता है, तथापि नारीवाद ने कभी निरपेक्ष समानता की बात नहीं की. नारीवाद ने कभी नहीं कहा कि स्त्री-पुरुष को एक समतल पर लाकर खड़ा कर दिया जाय. बल्कि नारीवाद ने विकल्प और अवसरों की समानता की बात कही है. नारीवाद ने कभी समाज के नियमों या नारी के उत्तरदायित्त्व से स्वतन्त्रता की माँग नहीं की, बल्कि निर्णय लेने की स्वतन्त्रता की माँग की है. स्त्री और पुरुष पूरी तरह से समान न हैं और न हो सकते हैं. पर दो लोग समान नहीं हैं, इससे यह कहाँ सिद्ध होता है कि एक दूसरे से श्रेष्ठ है? कौन क्या कर सकता है, इसका पता तो तब चले जब दोनों को बराबर अवसर मिले. पर हमारे समाज में तो पहले से ही यह मान लिया जाता है कि औरतें अमुक-अमुक कार्य कर ही नहीं सकतीं. मेरे विचार से हर लड़की और लड़के को समान अवसर मिलना चाहिये यह सिद्ध करने के लिये. और चूँकि यह अवसर आज सिर्फ़ पुरुषों को मिला हुआ है औरतों को नहीं, इसलिये नारीवाद ने यह माँग उठाई है. नारीवाद को समानतावाद कहने से समस्या के मूल का पता ही नहीं चलेगा क्योंकि फिर हर कोई यह पूछेगा कौन समान, किसके समान आदि.
     हमारे भारतीय समाज में विविधता है और हमें प्रत्येक विविधता का सम्मान करना चाहिये क्योंकि विविधता होना ग़लत नहीं है, उसके आधार पर भेदभाव ग़लत है.

बुधवार, 23 दिसंबर 2009

नारीवाद से सम्बन्धित भ्रान्तियाँ-३(नारीवाद और गृहकार्य)

नारीवाद के विषय में बहुत से लोगों को यह ग़लतफ़हमी भी है कि वह गृहिणियों को उपेक्षित दृष्टि से देखता है और चाहता है कि सभी महिलाएँ गृहकार्य छोड़कर नौकरी करने लग जायें, जबकि असलियत यह है कि सर्वप्रथम नारीवादी आन्दोलन ने ही औरतों के गृहकार्य को भी एक उत्पादक कार्य मानने की वक़ालत की थी.
    समाजवादी नारीवाद ने यह सिद्धान्त दिया था कि पूँजीवाद के विकास में औरतों द्वारा किये जाने वाले घरेलू कार्य का बहुत बड़ा योगदान है, जबकि उसे एक अनुत्पादक कार्य मानकर महत्त्व नहीं दिया जाता है. उनके अनुसार घरेलू कार्य निम्न प्रकार से पूँजीवाद को लाभ पहुँचाता है-
१. उद्योगों में कार्य करने वाले मज़दूरों को उनकी गृहिणियों द्वारा ठीक समय पर भोजन और सुख-सुविधा उपलब्ध कराने के फलस्वरूप मज़दूरों की कार्य-क्षमता बढ़ती है और वे अधिक देर गुणात्मक कार्य कर पाते हैं.
२. मज़दूरों को पत्नी के रूप में एक मुफ़्त की नौकरानी मिल जाती है जो कि अपने चौबीस घंटे के कार्य के बदले कोई नगद वेतन नहीं लेती है.
३. मज़दूरों की पत्नियाँ बच्चों के रूप में भावी मज़दूरों को जन्म देकर पुनरुत्पादन का काम करती हैं.
     यदि उपर्युक्त बातों का विश्लेषण किया जाये तो गृहकार्य के आर्थिक महत्त्व का पता चलता है. पहली बात, यदि मज़दूरों को समय पर आराम और भोजन न मिले तो उनकी कार्य-क्षमता घटेगी, इसके फलस्वरूप उद्योगों का उत्पादन घटेगा और पूँजीपतियों का नुकसान होगा. दूसरी बात, जो कार्य पत्नी करती है, यदि उसके लिये नौकर रखा जाये तो वह नगद वेतन लेगा, जिससे मज़दूरों में वेतन-वृद्धि की माँग बढ़ेगी और इससे भी पूँजीपतियों का घाटा होगा. इसलिये पूँजीपति वर्ग यही चाहेगा कि औरतें गृहकार्य करें और उसे कार्य न मानकर कर्त्तव्य माना जाये. यूरोप में औद्योगीकरण के युग में ऐसी ही प्रवृत्ति थी.
     मार्क्सवाद और समाजवादी नारीवाद की इस आर्थिक व्याख्या के पूर्व गृहिणियों के कार्य को उनका कर्त्तव्य मानकर उसे महत्त्व नहीं दिया जाता था. जब इन विचारकों ने गृहकार्य की आर्थिक व्याख्या करके आँकड़े सामने रखे तब जाकर घरेलू कार्य के महत्त्व को समझा गया. आज स्थिति यह है कि कोई किसी गृहिणी से यह नहीं कह सकता कि "तुम करती ही क्या हो."
    नारीवादियों ने गृहकार्य की आर्थिक व्याख्या उसके आर्थिक महत्त्व को बताने के लिये की, जबकि एक गृहिणी के कार्य को मात्र आर्थिक आधार पर व्याख्यायित नहीं किया जा सकता. एक औरत जो अपना संपूर्ण जीवन अपने परिवार की देख-रेख में लगा देती है, उसकी किसी से तुलना हो ही नहीं सकती. पर चूँकि आर्थिक व्याख्या को आकलित किया जा सकता है, इसलिये वही आधार लिया गया. नारीवाद ने यह माँग उठायी थी कि एक औरत गृहिणी बनना चाहती है या सिर्फ़ नौकरी करना चाहती है या दोनों जिम्मेदारियाँ साथ निभाना चाहती है, यह निर्णय लेने का अधिकार सिर्फ़ उस औरत का हो. उस पर कोई निर्णय जबरन थोपा न जाये. पर, मामला फिर वही ढाक के तीन पात...कार्य करने की स्वतन्त्रता के नाम पर जब औरतों को नौकरी करने पड़ी तो उन पर घर-बाहर का दोहरा बोझ पड़ गया. इसलिये अब नारीवादियों के मुद्दे बदल गये हैं.
    अब नारीवाद की माँग यह है कि यदि कोई पत्नी घर भी सँभालती है और नौकरी भी करती है तो पति को उसका थोड़ा हाथ गृहकार्य में बँटाना चाहिये. वैसे तो यह मामला पति-पत्नी के आपसी सामंजस्य का है, परन्तु यह सामाजिक तब बन जाता है जब रसोई में काम करने पर पतियों को उपहास का पात्र बनना पड़ता है और पति से काम कराने वाली पत्नी को ताने सुनने पड़ते हैं... ... ...उद्देश्य इसी मानसिकता को बदलना है.

सोमवार, 21 दिसंबर 2009

नारीवाद से सम्बन्धित भ्रान्तियाँ--२ (नारीवाद पुरुष विरोधी है)

नारीवाद को अधिकतर लोग पुरुष-विरोधी समझते हैं. नारीवादी औरत को एक ऐसी एबनॉर्मल, फ़्रस्टेटेड, सख़्तमिजाज़, और झगड़ालू औरत समझा जाता है, जो बात-बात में पुरुषों से झगड़ा कर बैठती है और खोद-खोदकर ऐसे मुद्दे उछालती है, जिससे पुरुषों को नीचा दिखाया जा सके. नारीवादी औरत को लोग अपने व्यक्तिगत जीवन की कुंठा को सार्वजनिक जीवन में लागू करने वाली समझते हैं. लोगों के अनुसार ऐसी औरतें अपने जीवन में सामंजस्य नहीं बैठा पातीं, एडजस्टमेंट नहीं करना चाहतीं और इसका दोष पुरुषों के मत्थे मढ़ती हैं. जबकि अन्य अनेक भ्रान्तियों की तरह यह भी एक भ्रान्ति है. नारीवाद पुरुषों का विरोध नहीं करता, बल्कि समाज की पितृसत्तात्मक संरचना का विरोध करता है. पितृसत्ता एक पारिभाषिक शब्द है, जिसकी चर्चा मैं इसी ब्लॉग के पिछले आलेखों में कर चुकी हूँ.
     यह जानकर शायद कुछ लोगों को आश्चर्य होगा कि नारीवादी आन्दोलन के प्रारम्भिक चरण में जिस एक विचारक ने नारी-अधिकारों की पुरज़ोर वक़ालत की थी, वह एक पुरुष था-जॉन स्टुअर्ट मिल जो एक प्रसिद्ध उपयोगितावादी राजनीतिक विचारक थे. उन्होंने अपनी पुस्तक "स्त्री और पराधीनता" (The Subjection of Women ) में कहा था कि समाज का पूरी तरह विकास तब तक नहीं हो सकता, जब तक कि आधी आबादी को उसके नागरिक और राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं हो जाते. उन्होंने मानवता, उदारता और लोकतांत्रिक मूल्यों के आधार पर नारी-अधिकारों की बात की थी. उन दिनों नारीवाद मात्र नागरिक व राजनीतिक अधिकारों की बात कर रहा था. अतः उसे उदारवादी नारीवाद नाम दिया गया.
     बाद में नारीवाद का विकास हुआ. पितृसत्तात्मक समाज की संरचना को समझने और नारी की स्थिति को सुधारने के विभिन्न उपायों के अधार पर नारीवाद की कई धाराओं का विकास हुआ, जिनमें से कुछ अतिवादी धाराएँ थीं. इन अतिवादी धाराओं ने अपने कुछ विवादित कदमों के फलस्वरूप अधिक प्रसिद्धि प्राप्त कर ली. ब्रा बर्निंग मूवमेंट, समलैंगिकता को पुरुष-संसर्ग का वैकल्पिक समाधान सिद्ध करने की कोशिश, नारीत्व(feminity) का विरोध आदि कुछ ऐसे ही विवादित कदम थे. इन बातों के फलस्वरूप लोगों में ये बात घर कर गयी कि नारीवाद पुरुष  विरोधी विचारधारा है, जो कि पुरुषों को समाज से हटाकर स्त्रियों की सत्ता स्थापित करना चाहती है.
     यदि तार्किक ढँग से विचार किया जाय तो यह भ्रान्ति बहुत ही हास्यास्पद लगती है. स्त्री और पुरुष दोनों से मिलकर समाज बना है. अतः दोनों में से किसी एक के बिना समाज की कल्पना नहीं की जा सकती और न ही ऐसी कोई विचारधारा सफल हो सकती है, जो किसी एक के विरोध पर टिकी हो. नारीवाद एक ऐसे समाज की स्थापना करना चाहता है, जहाँ स्त्री और पुरुष दोनों को समान अवसर प्राप्त हों, विकल्प की स्वतंत्रता हो और निर्णय लेने की स्वतंत्रता हो. कोई सिर्फ़ इसलिये किसी अधिकार से वंचित न रह जाय कि वह स्त्री है या पुरुष. जहाँ पुरुषों को रोने का अधिकार हो और स्त्री को हँसने का, जहाँ पुरुष गुलाबी शर्ट पहन सके और स्त्री भूरे कपड़े, जहाँ नर्सिंग का काम पुरुष भी कर सके और नारी भी विमान उड़ा सके, जहाँ कोई पति यह निर्णय ले सके कि यदि उसकी पत्नी अपनी इच्छा से नौकरी कर रही है तो वह घर का कार्य कर सके और इस बात पर कोई उसकी खिल्ली न उड़ाये...
.......क्या यह सिर्फ़ एक सपना है जो सच नहीं हो सकता? मेरे विचार से हो सकता है यदि पुरुष अपने पुरुषत्त्व का अहंकार त्याग दे और आगे कदम बढ़ाये......
मुझे यह बात कहने में कोई हिचक नहीं है कि पुरुषों के साथ के बिना नारीवाद अधूरा है.

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

नारीवाद से सम्बन्धित भ्रान्तियाँ-१ ( नारीवाद पश्चिमी अवधारणा है )

नारीवाद पर अक्सर यह आरोप लगाया जाता है कि वह पश्चिम से आयातित अवधारणा है और उसका भारतीय संस्कृति से कोई लेना-देना नहीं है. प्रतिपक्षियों के अनुसार चूँकि भारत में नारी की पूजा होती है, उसका सर्वोच्च स्थान है. इसलिये नारीवाद की भारतीय समाज में न कोई आवश्यकता कभी थी और न है.
    यह बात बिल्कुल सही है कि "नारीवाद" को इस नाम से सर्वप्रथम पश्चिम में ही जाना गया और इसे एक विचारधारा का रूप भी वहीं प्रदान किया गया. परन्तु प्राचीन भारतीय साहित्य में आपको ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे , जिनमें नारी का विद्रोही स्वरूप सामने आया है. भले ही नारी के इस विद्रोह को नारीवाद नाम न दिया गया हो पर इससे यह पता चलता है कि विभिन्न युगों में नारी ने तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में अपनी स्थिति पर क्षोभ व्यक्त किया है. "अभिज्ञान शाकुन्तल" कालिदास का प्रसिद्ध नाटक है, जिसकी नायिका शकुन्तला "निसर्ग कन्या" के रूप में वर्णित की गयी है. परन्तु शकुन्तला का वह रूप विद्रोह का प्रतीक है, जब वह अपने धर्मभाईयों के साथ ऋषि कण्व के आश्रम से विदा होकर दुष्यन्त के पास आती है और वह उसे पहचानने से मना कर देता है, उल्टे आरोप लगाता है कि आपलोग बलपूर्वक अपनी बहन को मेरे मत्थे मढ़ रहे हैं. उस समय शकुन्तला निर्भीक होकर कहती है कि आप जिस प्रकार स्वयं छली  हैं, उसी प्रकार दूसरों को भी समझते हैं. इस समय भोली-भाली शकुन्तला का रोष देखते बनता है. इसी प्रकार सीता अपनी पवित्रता पर उंगली उठाये जाने पर अपनी माँ (पृथ्वी) की गोद में शरण लेना उचित समझती हैं. अभिज्ञान शाकुन्तल की शकुन्तला और उत्तर रामायण की सीता अपने पुत्रों का अकेले ही (बिना पति के) ऋषियों के आश्रम में  पालन-पोषण करती हैं. बृहदारण्यकोपनिषद्‌ का गार्गी-याज्ञवल्क्य संवाद प्रसिद्ध है, जिसमें गार्गी याज्ञवल्क्य से शास्त्रार्थ करते हुये ब्रह्मविद्या से सम्बन्धित ऐसे-ऐसे प्रश्न पूछती हैं कि वे परेशान होकर कह उठते हैं कि इससे आगे प्रश्न करने पर तुम्हारा सर धड़ से अलग हो जायेगा ( कुछ व्याख्याकारों के अनुसार याज्ञवल्क्य ने गार्गी को सर काटने की धमकी दी थी). गार्गी जानती थीं कि याज्ञवल्क्य एक प्रतिष्ठित महर्षि हैं, परन्तु उन्होंने शास्त्रार्थ करने में निर्भीकता दिखाई और बाद में विनम्रतापूर्वक अपनी पराजय भी स्वीकार कर लेती हैं. याज्ञवल्क्य की पत्नी मैत्रेयी गार्गी के आश्रम में शिक्षा प्राप्त करती है. वह उच्चशिक्षा प्राप्त करना चाहती है, परन्तु उस युग में उच्चशिक्षा पर पुरुषों का वर्चस्व था, अतः वह ऋषियों के आश्रम में ही प्राप्त की जा सकती थी और किसी युवती के लिये यह असंभव था. अतः मैत्रेयी याज्ञवल्क्य से विवाह करके उनके साथ रहकर उच्चशिक्षा प्राप्त करती है.
    ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि अन्य समाजों की तरह हमारा समाज भी पितृसत्तात्मक था, जिसमें नारी की स्थिति दोयम थी, परन्तु तब भी नारी अपनी स्थिति के विरुद्ध संघर्ष करती रहती थी. वस्तुतः प्रत्येक देश और प्रत्येक काल में नारी अपनी स्थिति से संतुष्ट नहीं थी और जब तकनीकी विकास के फलस्वरूप वह एक-दूसरे के संपर्क में आयी तो उसके विद्रोह ने नारीवाद का रूप ले लिया. नारीवाद न पश्चिमी अवधरणा है और न ही भारतीय. यह नारी के अन्दर पल रहे रोष और क्षोभ की सर्वव्यापक अभिव्यक्ति है.

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

आप कहाँ खड़े हैं?

    समाज में बहुत से मुद्दे ऐसे हैं, जिन पर लोगों की राय बिल्कुल अलग-अलग होती है, परन्तु नारी की स्थिति से सम्बन्धित बहुत सी ऐसी बातें हैं, जिनके बारे में लोगों को पता ही नहीं होता कि वे क्या सोचते हैं? यहाँ तक कि नारी स्वयं नहीं जानती कि उनकी स्थिति जैसी है, वैसी क्यों है? और वह सही है या ग़लत? समाज में नारी की स्थिति के विषय में निम्नलिखित मत हो सकते हैं-
१. स्त्री और पुरुष दोनों में जैविक रूप से भेद है, अतः सामाजिक भेद भी होना चाहिये. इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है. दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं. जहाँ तक पुरुषों द्वारा स्त्री के शोषण का प्रश्न है तो स्त्रियाँ भी ऐसा करती हैं और पुरुष भी. इसमें कहने वाली कोई बात नहीं है. नारी अधिकार जैसी कोई बात भी नहीं होनी चाहिये.
२. स्त्री और पुरुष दोनों जैविक रूप से भिन्न हैं तथा सामाजिक रूप से भी. पुरुषों द्वारा स्त्रियों को हमेशा से दबाया गया है. परन्तु अब स्थिति पहले से बहुत अच्छी है और धीरे-धीरे और भी परिवर्तन आयेगा. अब नारी भी पुरुषों के कन्धे से कन्धा मिलाकर चल रही है. इसलिये नारी-अधिकार जैसे किसी आन्दोलन की अब कोई आवश्यकता ही नहीं.
३. स्त्री और पुरुष दोनों जैविक रूप से भिन्न हैं, परन्तु सामाजिक भेद हमारी सामाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा उत्पन्न किया जाता है. पुरुष-प्रधान समाज में नारी की स्थिति दूसरे दर्जे़ की नागरिक की रही है. ऐसा प्रत्येक देश और प्रत्येक युग में होता रहा है. नारी ने अपने अधिकारों के लिये लम्बी लड़ाई लड़कर कुछ अधिकार प्राप्त किये हैं. परन्तु स्थिति अब भी बहुत बेहतर नहीं है. इसलिये संघर्ष जारी है. अगर ये कहा जाता है कि नारी भी तो पुरुष पर अत्याचार करती है, तो एक तो ऐसे उदाहरण बहुत कम हैं, दूसरी बात, जो नारी ऐसे शोषण के कार्य में शामिल होती है, वह स्वयं भी पितृसत्ता की वाहक होती है. क्योंकि पितृसत्ता ऐसी विचारधारा है, जिसमें जो शक्तिशाली होता है, वह शक्तिहीनों का शोषण करता है. इसमें शोषक या शोषित स्त्री या पुरुष दोनों में से कोई भी हो सकता है. यह सच है कि स्त्री शारीरिक रूप से पुरुष जितनी सक्षम नहीं है, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि उसे दूसरे दर्जे़ का नागरिक मान लिया जाये. इसीलिये हमारे संविधान में अन्य भेदों के निराकरण के साथ लिंगभेद का भी निराकरण किया गया है.
    नारीवाद तीसरे मत का समर्थन करता है. अब आप तय करें कि आप कहाँ खड़े हैं?

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

नारीवाद से परहेज़ क्यों?

इस ब्लॉग पर मेरी पिछली पोस्ट से किसी को बुरा लगा हो तो मैं क्षमाप्रार्थिनी हूँ. वाणीगीत जी, आपने सच कहा है कि मुझे आपकी टिप्पणी को इतने हल्के में नहीं लेना चाहिये था. पर विश्वास कीजिये मेरा तात्पर्य किसी मुद्दे को उछालकर विवादित बनाने का बिल्कुल नहीं था. मेरा उद्देश्य तो नारीवाद और नारीवादियों को लेकर कुछ ग़लतफ़हमियों को दूर करना था. वस्तुतः मैंने इस ब्लॉग को आरम्भ ही किया था नारीवाद से सम्बन्धित कुछ सैद्धान्तिक बातों को स्पष्ट करने के लिये. नारी से सम्बन्धित समस्याओं,विमर्शों और व्यावहारिक मुद्दों पर अन्य लोकप्रिय और महत्त्वपूर्ण ब्लॉग हैं, जिनमें प्रमुख हैं- नारी, नारी का कविता ब्लॉग, स्त्रीविमर्श और चोखेरबाली.
     मुझे लगता है कि हमारे समाज में नारीवाद को लेकर कुछ भ्रान्तियाँ हैं, जिन्हें दूर करने का प्रयास मैं इस ब्लॉग से करती रहती हूँ. सबसे पहले तो मैं यह बताना चाहुँगी कि मैं ये सारी कवायद कर क्यों रही हूँ, तो मेरा मानना है कि समाज के किसी उपेक्षित वर्ग के लिये कार्य करना एक बात है और उसकी स्थिति ऐसी क्यों है? इसके क्या प्रभाव हैं और इसे किस तरह दूर करना है, इन मुद्दों पर शोध करना दूसरी बात है. दोनों ही बातें अपने-अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण हैं. मेरा सरोकार दूसरी बात से है, जो कि सैद्धान्तिक है और जब यह उपेक्षित वर्ग नारी हो तो इसे नारीवाद कहेंगे. अतः नारीवाद एक विचारधारा है, जिसके अन्तर्गत उपर्युक्त बातों पर शोध किया जाता है और सिद्धान्त बनाये जाते हैं. समाज के एक वर्ग को यह बुद्धिजीवियों की जुगाली लगती है. परन्तु विचारणीय प्रश्न है कि यदि सिद्धान्त ही नहीं होंगे तो उसे व्यवहार में लाने की दिशा कैसे तय होगी? इसे एक उदाहरण से समझ सकते हैं कि नारी की स्थिति में सुधार होना चाहिये इस पर सभी सहमत हैं, पर यह सुधार किस प्रकार होगा? कौन-कौन से उपाय अपनाये जाने चाहिये? क्या सिर्फ़ अधिकार मात्र दे देने से या कानून बना देने से योजनायें लागू कर देने से समस्या हल हो जायेगी? क्या हमें सारी औरतों को एक वर्ग में रखना चाहिये या उनका वर्गीकरण करना चाहिये(जैसे-ग्रामीण बनाम शहरी औरतें, धनी बनाम निर्धन औरतें, नौकरी करने वाली बनाम घरेलू औरतें) आदि. यदि हम औरतों की बेहतरी के लिये कुछ करना चाहते हैं तो इन सब बातों पर शोध करना होगा. इसीलिये नारीवाद की प्रासंगिकता बनी हुयी है.
     जब हम यह कहते हैं कि नारीवाद को छोड़ो और नारी की बेहतरी की कोशिश करो तो यह ऐसा लगता है कि जैसे हम कह रहे हों समाजवाद को छोड़कर सामाजिक समता की बात करो. भले ही हम किसी विचारधारा से सहमत हों या नहीं, पर उसकी प्रासंगिकता कभी समाप्त नहीं होती, चाहे वह गाँधीवाद हो, मार्क्सवाद हो या नारीवाद. यह अवश्य है कि विभिन्न वादों के अन्तर्गत जो शोध या अध्ययन होते हैं उन्हें व्यवहार में लाने का प्रयास भी किया जाना चाहिये. कहीं ऐसा न हो कि मीटिंग, सेमिनार, वर्कशाप करते रहें और स्थिति जहाँ की तहाँ बनी रहे. पर यह भी मानना चाहिये कि इन बौद्धिक बहसों का भी उतना ही महत्त्व है जितना कि फ़ील्ड में जाकर कार्य करने का.
     मेरा प्रयास है कि नारी के लिये कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं और शोधकर्ताओं के बीच सामंजस्य स्थापित हो ताकि दोनों मिलकर औरतों की बेहतरी के लिये रणनीति बनाकर उसे अमल में लाने के लिये नीतिनिर्माताओं पर दबाव डाल सकें, न कि सिर्फ़ आपसी बहसों में उलझे रह जायें. मैं चाहती हूँ कि ब्लॉगिंग "विमर्शी लोकतंत्र" का माध्यम बने. इसलिये मैं उन सभी से क्षमा माँगती हूँ, जिनको मेरी बातों का बुरा लगा हो.
     ...अपनी अगली पोस्ट में मैं नारीवाद से सम्बन्धित कुछ अन्य भ्रान्तियों तथा उनके निराकरण के विषय में लिखुँगी...

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

नारी, प्रेम और नारीवादी

परसों एक कविता लिखी औरत के प्रेम के पागलपन पर, कमेंट मिला कि यह किसी नारीवादी की कविता नहीं हो सकती. सही बात है. इसी प्रेम वाली बात को लेकर मेरे कई वामपंथी दोस्तों को मेरे ब्लॉग का "फ़ेमिनिस्ट पोएम्स" शीर्षक नहीं ठीक लगता. वे कहते हैं कि या तो ये शीर्षक हटा दो या इस पर प्रेम की कविताएँ मत लिखो. पर, मैं अपने भावों को किसी वाद में बाँधने के पक्ष में नहीं.
     अब मैं मुद्दे पर आ जाती हूँ. प्रेम प्रकृति का एक अनुपम उपहार है, स्त्री और पुरुष दोनों के लिये. दोनों ही प्यार करते हैं और प्यार में पागल भी होते हैं. पर दोनों के प्रेम के परिणाम अलग-अलग होते हैं. प्रायः स्त्रियाँ प्रेम में धोखा खाने के बाद भी अपने प्रेमी से प्रेम करती रहती हैं. पर पुरुष धोखा खाकर मरने-मारने पर उतर आता है. यहाँ मैंने 'प्रायः' शब्द का इसलिये प्रयोग किया क्योंकि अपवाद भी होते हैं. मैंने औरतों की इसी धोखा खाकर प्रेम करने की प्रवृत्ति पर कविता लिखी थी. इसका यह मतलब बिल्कुल भी नहीं है कि मैं इस बात का समर्थन करती हूँ. पर इस प्रेम के मामले में कोई कुछ नहीं कर सकता क्योंकि यह जितना अनुपम उपहार है उतना ही गूढ़ भी. कोई जब प्रेम में पड़ जाता है तो उसे कोई वाद नहीं समझाया जा सकता, उसे उस राह पर जाने से रोका भी नहीं जा सकता.  अंग्रेजी में सही कहते हैं 'प्रेम में गिर पड़ना' (to fall in love). ऐसी स्थिति में प्रेमी से सिर्फ़ सहानुभूति जतायी जा सकती है.
     अब सवाल यहाँ यह है कि क्या एक नारीवादी को इस तरह के प्रेम का वर्णन करना चाहिये? पुरुषों से धोखा खाकर भी उसके प्रेम में डूबी रहने वाली औरत के साथ सहानुभूति का व्यवहार करना चाहिये या भर्त्सना करनी चाहिये. तो अपने आप से पूछिये अपनी ग़लती से एक्सीडेंट करके बिस्तर पर पड़े रोगी को बुरा-भला कहेंगे क्या?
     यह एक ऐसा गूढ़ विषय है कि इस पर बहस करके किसी नतीजे तक नहीं पहुँचा जा सकता. पर एक बात मैं कहना चाहुँगी कि मुझे प्रेमी जनों से पूरी सहानुभूति होती है. औरतें इमोशनल फ़ूल होती हैं, इसमें उनका दोष नहीं. दोष उस माहौल का है, जिसमें उन्हें पाला-पोसा  जाता है और इसी तरह पुरुष प्रेम से अधिक महत्त्व प्रतिष्ठा को देते हैं, अपने अहं को देते हैं तो इसमें दोष उनका नहीं सामाजिक व्यवस्था का है.और कुछ दोष नारी की प्राकृतिक प्रवृत्ति का भी है. उसे बच्चे को जन्म देना होता है और पालन-पोषण करना होता है. अतः वह स्वभाव से अधिक कोमल, प्रेमी, और देखभाल करने वाली (caring) होती है. पुरुष इसी प्रवृत्ति का फ़ायदा उठाता है. इसीलिये मैंने औरतों को 'इमोशनल फ़ूल' कहा है.
     'प्रेम में धोखा  है' यह सोचकर कोई प्यार करना तो नहीं छोड़ देगा. और यदि कोई धोखा खाने के बाद भी प्रेमी को प्रेम किये जाता है, तो उसे भी रोका नहीं जा सकता. हाँ, इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि उसे अपने प्रेम को अपनी ताक़त बना लेना चाहिये. और स्वाभिमान की की़मत पर प्यार नहीं करना चाहिये. पर, फिर वही बात, प्यार कोई करता थोड़े ही है, वो तो प्यार में गिर पड़ता है. अब ये मत कहियेगा कि यह किसी नारीवादी का लेख नहीं हो सकता. क्या नारीवादियों के पास दिल नहीं होता?