रविवार, 8 नवंबर 2009

संस्कृत नाट्‌यशास्त्रों में नायक-भेद: कुछ प्रश्न

संस्कृत काव्यशात्रों तथा नाट्‌यशास्त्रों में नायिका-भेद और नायक-भेदों का वर्णन श्रृंगार-रस के परिप्रेक्ष्य में हुआ है. नायिका-भेद के विषय में अरविन्द जी अपने ब्लॉग पर लिख रहे हैं. मैं यहाँ नायक-भेदों का उल्लेख मात्र करके कुछ प्रश्न उठाना चाहती हूँ. ये प्रश्न मुख्यतः उनलोगों से है जो यह कहते हैं कि मुस्लिम आक्रमणकारियों के आने से पूर्व भारत में नारी की स्थिति अपेक्षाकृत अच्छी थी.
    दशरूपक संस्कृत नाट्‍यशास्त्रों में एक सम्माननीय स्थान रखता है. इसके अनुसार नायक के चार भेद होते हैं- धीरललित, धीरशान्त, धीरोदात्त तथा धीरोद्धत. अधिक विस्तार में न जाते हुये मैं इतना बताना चाहुँगी कि इनमें से प्रथम मृदु स्वभाव वाला और संगीतप्रेमी क्षत्रिय राजा होता है. दूसरा मुख्यतः सामान्य गुणयुक्त ब्राह्मण अथवा वणिक होता है. तीसरा गम्भीर, क्षमावान, निरहंकारी वीर और दृढ़व्रत क्षत्रिय राजा होता है तथा चौथा अहंकारी, आत्मप्रशंसक और ईर्ष्यालु प्रकार का होता है. ध्यान देने योग्य बात है कि नायक के ये चार प्रकार चार विभिन्न प्रकृति के पुरुषों को प्रदर्शित करते हैं, जबकि नायिकाओं के भेद मुख्यतः श्रृंगार-रस के प्रसंग में उनके नायक से सम्बन्ध के आधार पर किये गये हैं. उदाहरण के लिये जिस नायिका का पति उसके पास हो वह प्रसन्न रहती है और स्वाधीनपतिका कहलाती है. जिस नायिका का पति विदेश में हो वह प्रोषितप्रिया कही जाती है. जिसके पति या प्रेमी ने उससे छल करके किसी और से प्रेम किया हो वह खंडिता कहलाती है आदि.
   अब यहाँ से मैं अपने प्रश्न और आशंकाएँ प्रारम्भ करती हूँ. नायक-भेद समाप्त करने के बाद आचार्य धनंजय नायक के पुरुषत्वयुक्त आठ सात्त्विक गुणों उल्लेख करते हैं, "शोभा विलासो माधुर्यं गाम्भीर्यं स्थैर्यंतेजसी, ललितौदार्यमित्यष्टौ सात्त्विकाः पौरुषा गुणा." अर्थात्‌ शोभा, विलास, माधुर्य, गाम्भीरता, धैर्य, तेज, ललित तथा उदारता. सोचने की बात यह है कि दशरूपककार ने ये जो आठ गुण बताये हैं क्या ये गुण स्त्रियों में नहीं हो सकते जो इन्हें पुरुषयुक्त कहा है और मात्र नायकों में ही आवश्यक बताया है. इस बात को थोड़ा विस्तार से देखते हैं. "शोभा" नामक गुण की व्याख्या करते हुये धनंजय कहते हैं, "शोभा नामक सात्त्विक गुण वहाँ होता है, जहाँ नायक में शौर्य तथा दक्षता पाई जाती हो तथा नीच के प्रति घृणा एवं अपने से अधिक के प्रति स्पर्धा पाई जाती हो." अब प्रश्न यह है कि इस गुण में ऐसा क्या है जो एक स्त्री में नहीं हो सकता. उसके अन्दर उपर्युक्त सभी गुण उसी प्रकार पाये जा सकते हैं, जिस प्रकार किसी पुरुष में. गुणों का तो कोई लिंग नहीं होता. वे तो सभी में समान होते हैं, फिर नायक के गुणों और नायिका के गुणों में इतना भेद क्यों? यदि आप यह कहें कि तब की बात और थी और नायक को बाहर निकलना पड़ता था, युद्ध लड़ने पड़ते थे और स्त्रियाँ घर में रहती थीं. तो फिर मान लीजिये कि स्त्रियाँ मात्र पुरुषों के मनोरंजन का साधन थीं. और जो लोग यह कहते हैं कि प्राचीन भारत में नारी की स्त्री उच्च थी वे मात्र स्वयं को और दूसरों को भुलावा देते हैं. यदि आप यह कहते हैं कि यह तो साहित्य की बातें हैं, वास्तविक समाज से इसका कुछ लेना-देना नहीं है, तो आपको अन्य साहित्यों में भारत की समृद्धि आदि के बारे में कही गयी बातें भी गलत माननी होंगी.
  सच यही है कि प्राचीनकाल से लेकर अब तक पुरुष समाज, राजनीति, कला और साहित्य के केन्द्र में रहा है और नारी परिधि पर. यही कारण है कि प्राचीनकाल में नायक-भेद गुणों के आधार पर किये गये और नायिका-भेद नायक से उसके प्रेम-सम्बन्धों के आधार पर और आज भी हिन्दी फिल्मों में नायक केन्द्र में होता है और अधिक पारिश्रमिक पाता है और नायिका मात्र उसकी प्रेमिका बनकर रह जाती है.

गुरुवार, 5 नवंबर 2009

बच्चों की पोशाक और जेंडर-भेद

आज अपने इस लेख के माध्यम से मैं एक नयी बहस करने जा रही हूँ. पिछले कुछ दिनों मैं अपनी दीदी के यहाँ रहकर आयी हूँ. दीदी की नौ साल की बेटी है. किशोरावस्था की ओर कदम बढ़ाती इस बच्ची की कुछ बातों को सुनकर आश्चर्य होता है कि कैसे बचपन से ही हम बच्चों के मन में जेंडर-भेद के बीज बो देते हैं. हाँलाकि हमारे परिवार में इस बात का ध्यान दिया जाता है, पर बच्चों को आस-पड़ोस की बातों से तो नहीं बचाया जा सकता.
    हुआ यह कि हमें कहीं जाना था तो उसे दीदी ने एक ड्रेस पहनानी चाही इस पर बच्ची ने उसे इसलिये पहनने से मना कर दिया क्योंकि उसकी किसी दोस्त ने उससे कह दिया था कि यह ब्वायज़ की ड्रेस है. जब मैंने उसे समझाया कि यह एक कार्गो पैंट है जिसे लड़का-लड़की दोनों पहनते हैं तो वह मान गयी. इस छोटी सी बात ने मुझे सोचने के लिये मज़बूर कर दिया कि इस तरह की बातें बच्चों को सिखाना उचित है या नहीं? वैसे तो बच्चों को अपने पसंद की पोशाक चुनने का अधिकार होना चाहिये, परन्तु प्रश्न यह है कि इस चयन का आधार क्या हो? मेरे विचार से बच्चों को मौसम और आराम के अनुसार कपड़े पहनना सिखाना चाहिये न कि केवल फ़ैशन के आधार पर. मैंने यह भी देखा है कि आजकल छोटी लड़कियाँ "स्लीवलेस" पोशाक ही पहनना चाहती हैं. उन्हें यह बताना चाहिये कि शाम को बाहर खेलते समय छोटे कपड़े पहनने से उन्हें कीड़े और मच्छर काट सकते हैं, जिससे उनकी तबीयत ख़राब हो सकती है. इसके अतिरिक्त कम कपड़े पहनने से गिरने पर चोट भी लग सकती है. मैं यह मानती हूँ कि बच्चों को यह अहसास दिलाया जाना चाहिये कि वे लड़का हैं या लड़की, पर इसके आधार पर उनके साथ भिन्न-भिन्न ढँग से व्यवहार करना उचित नहीं है.
    हम पता नहीं लिंग-भेद के प्रति इतने आग्रही क्यों होते हैं. पहले लड़कियों को सिखाया जाता था कि अपने शरीर को ढँककर रखो, पूरी बाँह के कपड़े पहनो. मुझे याद है कि जब मैंने सलवार-कुर्ता पहनना शुरू किया था तो बहुत दिनों तक पूरी बाँह के कुर्ते ही पहनती थी. आजकल लोग अपनी बेटियों को पूरी छूट देते हैं उनके मनपसंद कपड़े पहनने की. पर मानसिकता अब भी वही है. अब भी हम स्वास्थ्य और आराम की अपेक्षा चलन पर अधिक ध्यान देते हैं. यह सच है कि छोटी बच्चियाँ "क्यूट" पोशाकों में प्यारी लगती हैं, पर कहीं ऐसा न हो कि इसके चलते उनमें कोई कुंठा बैठ जाये.
   ये मेरे विचार हैं, आपको क्या लगता है... ...