सोमवार, 20 मार्च 2023

हिन्दू स्त्रियों के सम्पत्ति -सम्बन्धी अधिकार (1.) स्त्रीधन क्या है?

प्राचीनकाल की अन्य सभ्यताओं की तरह ही भारतीय समाज भी पुरुषप्रधान था, जिसमें सम्पत्ति के उत्तराधिकार की पितृवंशीय व्यवस्था थी। इसके अंतर्गत किसी भी वंश या परिवार की संयुक्त सम्पत्ति (जो कि प्रायः कृषि भूमि के रूप में होती थी) पितामह से पिता को और उससे पुत्रों को प्राप्त होती थी। आज स्थिति बदल चुकी है। बेटियों को भी बेटों के ही समान पैतृक सम्पत्ति का उत्तराधिकार दिलाने वाला संशोधन लागू हो चुका है। लेकिन अब भी अधिकाँश महिलाओं को अपने आर्थिक अधिकारों के विषय में ज्ञान नहीं है। यह लेख स्त्रियों को उनके अधिकारों के विषय मेन जागरुक करने का एक प्रयास है। 

स्त्रीधन क्या है? स्त्रीधन किसे कहते हैं?

स्त्रीधन उस धन को कहते हैं, जो स्त्रियों को उपहारस्वरूप अपने घरवालों, रिश्तेदारों और दोस्तों से प्राप्त होती हैं। हिंदू मैरिज एक्ट के अनुसार, स्त्रीधन वे चीजें हैं, जो महिला को उसके जीवन में मिलती हैं। इसमें सभी प्रकार की चल-अचल सम्पत्ति जैसे नकद, गहने, बचतें (एफडी आदि), इनवेस्टमेंट, उपहार में मिली प्रॉपर्टी आदि शामिल हैं। माता-पिता, भाई-बहन द्वारा शादी से पहले और शादी में मिले उपहारों के अलावा सास-ससुर द्वारा पहनाए गए गहने और उपहार भी स्त्रीधन हैं। महिलाओं को शादी से पहले, शादी के समय, बच्चे के जन्म के समय और विधवा होने के दौरान जो भी चीजें उपहारस्वरूप मिलती हैं, वे सभी स्त्रीधन के अंतर्गत गिनी जाती हैं।

स्त्रीधन दहेज़ से किस प्रकार भिन्न है?

स्त्रीधन प्राचीनकाल से ही स्त्रियों का प्रमुख आर्थिक अधिकार रहा है। बाद में इसके नाम पर वर पक्ष वाले वधूपक्ष वालों से धन की माँग करने लगे, जिसने कालान्तर में दहेज़ का रूप ले लिया। जबकि स्त्रीधन दहेज़ नहीं है । यह विवाह के समय वधू को उसके बन्धु-बान्धवों, सहेलियों, माता-पिता और रिश्तेदारों द्वारा स्वेच्छा से दिया गया उपहार और नकदी आदि है । इसे कानूनन वैधता प्राप्त है और इस पर स्त्रियों का स्वामित्व होता है। देखा जाता है कि दहेज़ भले ही दिया जाय वधू के नाम से लेकिन उस पर ससुराल वाले अधिकार स्थापित कर लेते हैं, जबकि स्त्रीधन पूरी तरह स्त्रियों का अधिकार है।

वेदों में स्त्रीधन का उल्लेख

स्त्रीधन की परम्परा प्राचीन काल से ही चली आ रही है। ऋग्वेद के दसवें मंडल में विवाह-सम्बन्धी दो मंत्रों में वधू के साथ वर के घर के लिए उपहार और पशु आदि भेजने का वर्णन है। इसका भावार्थ इस प्रकार है "सूर्य के पतिगृह-गमन काल में सूर्य ने  पुत्री के प्रति स्नेहरूप जो धन स्रवित किया, उसे पहले ही भेज दिया था। मघा नक्षत्र में विदाई के समय दी गई गौवों को हाँका गया तथा अर्जुनी अर्थात पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में कन्या को पति के गृह भेजा गया।" सायण ने इस मंत्र में "वहतुः" को गायों एवं अन्य पदार्थों के, जो विवाहित होने वाली कन्या को प्रसन्न करने के लिए दिए जाते हैं, के अर्थ में लिया है किंतु लेन्मेन ने इसे विवाहरथ के अर्थ में लिया है। काणे ने सायण को ही ठीक माना है।  इससे यह प्रतीत होता है कि प्राचीन काल से ही विवाह के समय कन्या को कुछ वस्तुएँ उपहार स्वरूप दी जाती थी जिन पर स्त्रियों का ही नियंत्रण होता था। धीरे-धीरे कालांतर में स्मृतियों आदि की व्यवस्थाओं के अनुसार उन पर स्त्रियों का ही पूर्णतः अधिकार होता गया।

 स्मृतियों के अनुसार स्त्रीधन

स्मृतियों में स्त्रीधन की कोई परिभाषा नहीं दी गयी है, मात्र उनमें सम्मिलित सम्पत्तियों की गणना की गयी है| स्त्रीधन का शाब्दिक अर्थ है "स्त्री की संपत्ति", किंतु प्राचीन स्मृतियों ने इसे सम्पत्ति के कुछ विशिष्ट प्रकारों तक सीमित कर दिया, जो स्त्रियों को विशिष्ट अवसरों पर प्रदान किए जाते थे और मुख्यतः उसके उपयोग की वस्तु होते थे। धीरे-धीरे यह प्रकार, विस्तार एवं मूल्य में बढ़ते गए। स्त्रीधन की एक विशेषता यह रही है कि गौतम के काल से आज तक यह प्रथमतः स्त्रियों को ही प्राप्त होता रहा है।

मनुस्मृति में स्त्रीधन का उल्लेख  

मनुस्मृति में निम्नलिखित वस्तुओं और धन को सम्मिलित किया गया है- 

1. विवाह काल में अग्नि साक्ष्य के समय पिता आदि के द्वारा दिया गया

2. पिता के घर से पति के घर लायी जाती हुई कन्या के लिए दिया गया

3. प्रेम सम्बन्धी किसी शुभ अवसर पर पति आदि के द्वारा दिया गया

4. भाई

5. माता और

6. पिता

- के द्वारा विभिन्न अवसरों पर दिया 6 प्रकार का धन स्त्रीधन कहलाता है। इस श्लोक से अगले श्लोक में मनु ने उपर्युक्त छह प्रकारों में एक प्रकार "अन्वाधेय" और जोड़ दिया जिसका अर्थ है "विवाह के बाद पति या पितृकुल में मिले हुए उपहार या धन।

याज्ञवल्क्य स्मृति में उपर्युक्त 6 प्रकारों के अतिरिक्त एक अन्य प्रकार "आधिवेदनिक" का भी उल्लेख किया गया है। आधिवेदनिक का अर्थ है “दूसरा विवाह करते समय पति द्वारा पहली स्त्री के संतोष के लिए प्रदत्त धन।“ याज्ञवल्क्य के अनुसार ‘पिता, माता, पति, भाई से प्रायः वैवाहिक अग्नि के समक्ष और अन्य पत्नी लाते समय आदि जो उपहार औरत को मिलता है, वह उसका स्त्रीधन है।’ इसी ‘आदि’ शब्द को लेकर याज्ञवल्क्य की स्मृति पर टीका लिखने वाले विज्ञानेश्वर ने स्त्रीधन की सूची और भी बढ़ा दी है।

मिताक्षरा के अनुसार स्त्रीधन की परिभाषा

मिताक्षरा के प्रणेता विज्ञानेश्वर ने याज्ञवल्क्य की परिभाषा लेकर स्त्रीधन की संख्या बढ़ा दी है। विज्ञानेश्वर ने ‘आदि’ शब्द को लेकर निम्नलिखित सम्पत्ति को भी स्त्रीधन कहा है-

1. दाय से मिली सम्पत्ति

3. विभाजन से मिली सम्पत्ति

2. खरीद कर ली गई सम्पत्ति

4. प्रतिकूल कब्जा से मिली सम्पत्ति

5. अन्य मिली हुई सम्पत्ति

 विज्ञानेश्वर आगे अपनी व्याख्या में कहते हैं कि स्त्रीधन शब्द का प्रयोग शाब्दिक अर्थ में किया है न कि क्रियात्मक अर्थ में अतएव मिताक्षरा के अनुसार जो भी सम्पत्ति औरत के अधिकार में है, वह उसकी स्त्रीधन सम्पत्ति है। आधुनिक काल में न्यायालयों ने स्मृतियों के टीकाकारों द्वारा स्थापित मान्यताओं को प्रामाणिकता दी। इस हेतु याज्ञवल्क्यस्मृति की टीका मिताक्षरा की व्याख्या को अपनाया गया, जिसमें स्त्रीधन की परिभाषा अत्यधिक विस्तृत प्रकार से दी गयी है। शिवशंकर बनाम देवी सहाय, 30IA 202 में प्रिवी काउन्सिल ने अभिनिर्धारित किया था कि यदि कोई स्त्री किसी सम्पत्ति को दाय के बंटवारे में प्राप्त करती है, तो वह स्त्रीधन की सम्पत्ति नहीं होगी।

स्त्रीधन के अंतर्गत आने वाली वस्तुएँ एवं धन

वर्तमान में स्मृतियों और टीकाओं में उल्लिखित प्रावधानों और लोक परम्पराओं के आधार पर स्त्रीधन में निम्नलिखित वस्तुएँ सम्मिलित की जाती हैं.-

1.       विवाह में फेरों के समय दिए गये उपहार नकदी आदि

2.       पीहर से ससुराल जाते समय वधू को मिले उपहार

3.       आशीर्वाद और प्यार स्वरूप वधू को मिले उपहार

4.       सास-ससुर के प्रेमपूर्वक वधू को दिए गये उपहार

5.       वधू के बड़ों के पैर छूने और मुँह दिखाई की रस्म में मिले नकदी और उपहार

6.       वधू के अपने माता-पिता, भाई-बहन से मिले उपहार नकदी आदि

7.       वधू को शादी के समय वरपक्ष की ओर से मिले उपहार

8.       वर द्वारा वधू को प्रदत्त उपहार

9.       वधू के माता-पिता के रिश्तेदारों के दिये गये उपहार, नकदी (मामा, चाचा, मौसी आदि के द्वारा)

10.    विवाह के समय यदि वधू पक्ष द्वारा कुछ उपहार जैसे फर्नीचर, पलंग, टीवी आदि वधू के निमित्त दिया जाता है

11.    वधू की व्यक्तिगत बचत, खारीदारी, प्रॉपर्टी यदि उसके नाम हो, तो उसकी आमदनी भी स्त्रीधन है।

 स्त्रीधन पर किसका स्वामित्व होता है?

प्राचीनकाल में स्त्रीधन पर स्वामित्व स्त्री का ही होता था, चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित, वह उसका मनोनुकूल उपयोग कर सकती थी। काणे ने कात्यायन स्मृति के आधार पर स्त्री के स्त्रीधन पर स्वामित्व को इस प्रकार वर्णित किया है “अविवाहित स्त्री सभी प्रकार के स्त्रीधन का उपभोग अपनी इच्छा अनुसार कर सकती थी। विधवा स्त्री पति द्वारा प्रदत्त अचल संपत्ति को छोड़कर सभी प्रकार के स्त्रीधन का लेन-देन कर सकती है, किंतु सधवा स्त्री केवल सौदायिक ( पति को छोड़कर अन्य लोगों से प्राप्त दान) को ही मनोनुकूल स्वेच्छा से व्यय कर सकती है” स्त्रीधन को सामान्य अवस्था में कोई अन्य नहीं ले सकता था, किंतु कुछ विशेष परिस्थितियों में पति स्त्रीधन को ले सकता था या। याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार दुर्भिक्ष के समय, धर्मकार्य में, रोग में और बंदी होने पर लिए गए स्त्रीधन को पति स्त्री को पुनः देने का भागी नहीं होता। मनु कन्या-विक्रय की भर्त्सना के प्रसंग में स्त्रीधन को लेने की निंदा करते हैं। वे कहते हैं कि जो बांधवगण स्त्री के धन को लालच वर्ष ले लेते हैं वे पापी अधोगति को प्राप्त होते हैं।

आधुनिककाल में न्यायालयों ने विभिन्न वादों में यह निर्धारित किया है कि स्त्रीधन पर स्वामित्व स्त्री का ही होता है। राजम्मा बनाम बरदराजनुलू [ए० आई० आर० 1957, मद्रास 198 ] के मामले में कहा गया है कि हिन्दू स्त्री को विवाह के पहले और विवाह के समय मिले उपहार उसके स्त्रीधन होते हैं। प्रतिभारानी बनाम सूरज कुमार, [ ए० आई० आर० 1985 सु० को० 628 ] के वाद में यह निर्धारित किया गया है कि जो भी सम्पत्ति पत्नी को उपहार में प्राप्त होती है, उस पर उसका एक मात्र अधिकार होता है।

स्त्रीधन की सुरक्षा करने वाले कानून                                      

आधुनिक काल में स्त्री धन की सुरक्षा करने वाला मुख्य कानून हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 का सेशन 14 है जिसे हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के सेक्शन 27 के साथ पढ़ा जाना चाहिए। इसके अनुसार एक हिंदू महिला की संपत्ति पर संपूर्ण स्वामित्व उसका ही होगा जिसमें स्त्रीधन भी सम्मिलित है। सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिभा रानी बनाम सूरज कुमार 1985(2)scc 370 के वाद में स्त्रीधन की अवधारणा को स्पष्ट कर दिया। एक हिंदू विवाहित स्त्री स्त्रीधन की संपूर्ण स्वामिनी होती है और उसका जैसे चाहे उपयोग कर सकती है, चाहे वह अपने पति और ससुराल वालों के अधीन हो। यदि ससुराल वाले उसके इस धन को आवश्यकता पड़ने पर उससे लेते हैं तो वह मात्र न्यासी समझे जाएंगे और जब वह मांगे तो उसे वापस कर देंगे।

इसी प्रकार कुछ अन्य कानून भी है जो, स्त्रीधन की सुरक्षा करते हैं। दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961 के अनुसार दहेज के लिए विज्ञापन देना पति या ससुराल वालों का दहेज में मिली स्त्रीधन को हड़पना एक अपराध करार दिया गया है। इस अपराध में 2 से 5 वर्ष तक की कारावास और 10 से ₹15000 तक के जुर्माने का प्रावधान है। इसी प्रकार भारतीय दंड संहिता की धारा 498a के अनुसार मानसिक क्रूरता के अंतर्गत ससुराल पक्ष वालों के द्वारा स्त्री धन हड़पना या वधु को अधिक धन लाने के लिए प्रताड़ित करना सम्मिलित है। यदि ससुराल वाले स्त्री धन को हड़पने हैं तो भारतीय दंड संहिता की धारा 405 और 406 के अंतर्गत दंड के भागी होते हैं।  घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 की धारा 12 महिलाओं को उन मामलों में स्त्रीधन का अधिकार प्रदान करती है जहाँ महिला घरेलू हिंसा का शिकार होती है स्त्रीधन की वसूली के लिए इस कानून के प्रावधानों को आसानी से लागू किया जा सकता है।

महिला अपने स्त्रीधन को कैसे प्राप्त कर सकती है?

स्त्रीधन पर स्त्रियों का स्वामित्व सुनिश्चित करने वाले तथा उसे सुरक्षित करने वाले उपर्युक्त कानूनों की सहायता से स्त्रियाँ अपने स्त्रीधन को सुरक्षित रख सकती हैं तथा उस पर अपना अधिकार माँग सकती हैं ।  

नोट- टिप्पणी में बताएँ कि आपको लेख कैसा लगा? यदि कोई आशंका या प्रश्न हो, तो वह भी पूछ सकते हैं

 






FAQs

1. हिन्दू स्त्रियों के आर्थिक अधिकार क्या हैं? 

2. स्त्रीधन किसे कहते हैं?

3. स्त्रीधन के अंतर्गत कौन-कौन सी चीज़ें आती हैं?

4. स्त्रीधन से सम्बन्धित कौन से कानून हैं?

5. स्त्रीधन पर किसका अधिकार होता है?

6. क्या स्त्रीधन प्राप्त करने के लिए न्यायालय में मुकदमा किया जा सकता है?

7. स्त्रीधन पर किसका कानूनी अधिकार है? 

8. महिलाओं के गहनों पर किसका अधिकार होता है?

9. क्या शादी में मिले गिफ्ट स्त्रीधन में आते हैं? 

10. स्त्रीधन इन हिन्दू लॉ? 

11. स्मृतियों में स्त्रीधन ?

12, प्राचीन भारत में महिलाओं के आर्थिक अधिकार क्या थे?

13. हिन्दू महिलाओं के सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार क्या हैं?

14. What is Stridhan in Hindu Law

15. stridhan kise kahate hain?


शुक्रवार, 10 मार्च 2023

प्राचीन भारत में स्त्रियों की स्थिति के सम्बन्ध में विभिन्न दृष्टिकोण


(प्रस्तुत लेख मेरे शोध-कार्य "मनुस्मृति एवं याज्ञवल्क्यस्मृति के नारी-संबंधी प्रावधानों का नारी-सशक्तीकरण पर प्रभाव" का अंश है. इसलिए अधूरा भी लग सकता है और हो सकता है कि कहीं और भी पढ़ा जा चुका है. वैसे सन्दर्भ-ग्रंथों के नाम भी दे दिए गए हैं)


प्राचीन भारत में स्त्रियों की दशा के विषय में इतिहासकारों के अलग-अलग दृष्टिकोण हैं. कुछ विचारक यह मानते हैं कि प्राचीनकाल में स्त्रियों की स्थिति बहुत अच्छी थी और उन्हें पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त थे. वहीं कुछ विचारक इस बात का विरोध करते हैं. उनका कहना है कि प्राचीनकाल मुख्यतः वैदिककाल में स्त्रियों की स्थिति को कुछ अधिक ही बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जाता है, जबकि सत्य यह है कि प्राचीन भारतीय समाज भी अन्य अनेक प्राचीन सभ्यताओं के समान ही पितृसत्तात्मक था. 

मुख्य रूप से इन ऐतिहासिक दृष्टिकोणों को चार श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है -
- राष्ट्रवादी दृष्टिकोण
- वामपंथी दृष्टिकोण
- नारीवादी दृष्टिकोण
- दलित लेखकों का दृष्टिकोण

जहाँ राष्ट्रवादी विचारक यह मानते हैं कि वैदिक-युग में भारत में नारी को उच्च-स्थिति प्राप्त थी. नारी की स्थिति में विभिन्न बाह्य कारणों से ह्रास हुआ. परिवर्तित परिस्थितियों के कारण ही नारी पर विभिन्न बन्धन लगा दिये गये जो कि उस युग में अपरिहार्य थे. इसी प्रकार वर्ण-व्यवस्था को भी कर्म पर आधारित और बाद के काल की अपेक्षा लचीला बताते हुये ये विचारक उसका बचाव करते हैं. वामपंथी विचारक राष्ट्रवादी विद्वानों के इन विचारों से सर्वथा असहमत हैं. उनके अनुसार स्त्रियों तथा शूद्रों की अधीन स्थिति तत्कालीन उच्च-वर्ग का षड्‌यंत्र है, जिससे वे वर्ग-संघर्ष को दबा सकें. उच्च-वर्ग अर्थात्‌ मुख्यतः ब्राह्मण (क्योंकि समाज के लिये नियम बनाने का कार्य ब्राह्मणों का ही था) शूद्रों को अस्पृश्यता के नाम पर तथा नारियों को परिवारवाद के नाम पर संगठित नहीं होने देना चाहते थे.

नारीवादी विचारक भी राष्ट्रवादी दृष्टिकोण का विरोध करते हैं. उनके अनुसार तत्कालीन सामाजिक ढाँचा पितृसत्तात्मक था और धर्मगुरुओं ने जानबूझकर नारी की अधीनता की स्थिति को बनाये रखा. ये विचारक यह भी नहीं मानते कि वैदिक युग में स्त्रियों की बहुत अच्छी थी, हाँ स्मृतिकाल से अच्छी थी, इस बात पर सहमत हैं. दलित विचारक स्मृतियों और विशेषतः मनुस्मृति के कटु आलोचक हैं. वे यह मानते हैं कि शूद्रों की युगों-युगों की दासता इन्हीं स्मृतियों के विविध प्रावधानों का परिणाम है. वे मनुस्मृति के प्रथम अध्याय के ३१वें[i] और ९१वें[ii] श्लोक का मुख्यतः विरोध करते हैं जिनमें क्रमशः शूद्रों की ब्रह्मा की जंघा से उत्पत्ति तथा सभी वर्णों की सेवा शूद्रों का कर्त्तव्य बताया गया है.

प्राचीन भारत में नारी की स्थिति के विषय में सबसे अधिक विस्तार से वर्णन राष्ट्रवादी विचारक ए.एस. अल्टेकर ने अपनी पुस्तक में किया है. उन्होंने नारी की शिक्षा, विेवाह तथा विवाह-विच्छेद, गृहस्थ जीवन, विधवा की स्थिति, नारी का सार्वजनिक जीवन, धार्मिक जीवन, सम्पत्ति के अधिकार,नारी का पहनावा और रहन-सहन, नारी के प्रति सामान्य दृष्टिकोण आदि पर प्रकाश डाला है. अल्टेकरके अनुसार प्राचीन भारत में वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति समाज और परिवार में उच्च थी, परन्तु पश्चातवर्ती काल में कई कारणों से उसकी स्थिति में ह्रास होता गया. परिवार के भीतर नारी की स्थिति में अवनति का प्रमुख कारण अल्टेकर अनार्य स्त्रियों का प्रवेश मानते हैं. वे नारी को संपत्ति का अधिकार न देने, नारी को शासन के पदों से दूर रखने, आर्यों द्वारा पुत्रोत्पत्ति की कामना करने आदि के पीछे के कारणों को जानने का प्रयास करते हैं तथा उन्होंने कई बातों का स्पष्टीकरण भी दिया है. उदाहरण के लिये उनके अनुसार महिलाओं को सम्पत्ति का अधिकार न देने का कारण यह है कि उनमें लड़ाकू क्षमता का अभाव होता है, जो कि सम्पत्ति की रक्षा के लिये आवश्यक होता है. इस प्रकारअल्टेकर ने उन अनेक बातों में भारतीय संस्कृति का पक्ष लिया है, जिसके लिये हमारी संस्कृति की आलोचना की जाती है. उन्होंने अपनी पुस्तक के प्रथम संस्करण की भूमिका में स्वयं यह स्वीकार किया है कि निष्पक्ष रहने के प्रयासों के पश्चात्‌ भी वे कहीं-कहीं प्राचीन संस्कृति के पक्ष में हो गये हैं.* प्रसिद्ध राष्ट्रवादी इतिहासकार आर. सी. दत्त ने भी अल्तेकर के दृष्टिकोण का समर्थन किया है उनकेअनुसार, "महिलाओं को पूरी तरह अलग-अलग रखना और उन पर पाबन्दियाँ लगाना हिन्दू परम्परानहीं थी. मुसलमानों के आने तक यह बातें बिल्कुल अजनबी थीं... . महिलाओं को ऐसी श्रेष्ठ स्थिति हिन्दुओं के अलावा और किसी प्राचीन राष्ट्र में नहीं दी गयी थी."[iii]शकुन्तला राव शास्त्री ने अपनी पुस्तक ‘वूमेन इन सेक्रेड लॉज़’ में इसी प्रकार के निष्कर्ष प्रस्तुत किये हैं.

आधुनिक काल के प्रमुख नारीवादी इतिहासकारों तथा विचारकों ने अल्टेकर और शास्त्री के उपर्युक्त स्पष्टीकरणों की आलोचना की है. आर.सी. दत्त के विरोध में प्रसिद्ध नारीवादी विचारक डा. उमाचक्रवर्ती कहती हैं, "... ... मनु तथा अन्य कानून-निर्माताओं ने लड़कियों की कम उम्र में ही शादी की हिमायत की थी. सातवीं सदी में हर्षवर्धन के प्राम्भिक काल से संबंधित विवरणों में सती-प्रथा उच्चजाति की महिलाओं के साथ साफ़ जुड़ी देखी जा सकती है. महिलाओं का अधीनीकरण सुनिश्चित करनेवाली संस्थाओं का ढाँचा अपने मूलरूप में मुस्लिम धर्म के उदय से भी काफ़ी पहले अस्तित्व में आ चुका था. इस्लाम के अनुयायियों का आना तो इन तमाम उत्पीड़क कुरीतियों को वैधता देने के लिये एक आसान बहाना भर है."[iv]

नारीवादी विचारकों ने यह माना है कि प्राचीन भारत में नारी की स्थिति में ह्रास का कारण हिन्दू समाज की पितृसत्तात्मक संरचना थी न कि कोई बाहरी कारण. इसके लिये नारीवादी विचारक प्रमुख दोष स्मृतियों के नारी-सम्बन्धी नकारात्मक प्रावधानों को देते हैं, क्योंकि तत्कालीन समाज में स्मृतिग्रन्थ सामाजिक आचार-संहिता के रूप में मान्य थे और उनमें लिखी बातों का जनजीवन पर व्यापक प्रभाव था. प्रमुख स्मृतियों में नारी-शिक्षा पर रोक, उनका कम उम्र में विवाह करने सम्बन्धी प्रावधान, उनको सम्पत्ति में समान अधिकार न देना आदि प्रावधानों के कारण समाज में स्त्रियों की स्थिति में अवनति होती गयी. नारीवादी विचारकों के अनुसार हमें अपनी कमियों का स्पष्टीकरण देने के स्थान पर उनको स्वीकार करना चाहिये ताकि वर्तमान में नारी की दशा में सुधार लाने के उपाय ढूँढे़ जा सकें.


सन्दर्भ :

* द पोजीशन ऑफ वूमेन इन हिन्दू सिविलाइजेशन, ए.एस. अल्तेकर, प्रकाशक-मोतीलाल बनारसी दास.
[i] “लोकानां तु विवृद्धि – अर्थं मुख- बाहु- ऊरु- पादतः
ब्राह्मणं क्षत्रिय वैश्यं शूद्रं च निरवर्तयत्‌“ १/३१ मनुस्मृति.
[ii] “एकम्‌ एव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्‌
एतेषाम्‌ एव वर्णानां शुश्रूषाम्‌ अनुसूयया“ १/९१ मनुस्मृति.
[iii] पृष्ठ संख्या २३, द सिविलाइजेशन ऑफ इण्डिया, आर.सी. दत्त, प्रकाशक-रूपा कंपनी, नई दिल्ली, २००२.
[iv] पृष्ठ संख्या १२९, अल्टेकेरियन अवधारणा के परे : प्रारंभिक भारतीय इतिहास में जेंडर संबंधों का नई समझ, उमा चक्रवर्ती, नारीवादी राजनीति, संघर्ष एवं मुद्दे, साधना आर्य, निवेदिता मेनन, जिनी लोकनीता, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, २००१.
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सोमवार, 18 मार्च 2019

बुधवार, 1 अप्रैल 2015

परम्परागत विवाह या...

मेरे एक मित्र ने कहा था कि "हिन्दुस्तान में नब्बे प्रतिशत संयुक्त परिवार इसलिए चल रहे हैं कि स्त्रियाँ 'सह' रही हैं, जिस दिन वे सहना छोड़ देंगी, परिवार भरभराकर ढह जायेंगे." उन्होंने उस मंदिर का जिक्र किया, जहाँ विधवा-विधुर और तलाकशुदा स्त्रियों और पुरुषों का विवाह करवाने के लिए उनके माता-पिता और सम्बन्धी नाम दर्ज कराते हैं. मुझे आश्चर्य हुआ कि ऐसी भी जगहें होती हैं. उन्होंने कहा कि वहाँ ज़्यादा संख्या तलाकशुदा लोगों की ही थी. और तलाक क्यों बढ़ रहे हैं उसका कारण भी उन्होंने यही दिया क्योंकि अब बहुत सी लड़कियाँ 'सह' नहीं रही हैं. पहले लड़कियाँ 'किसी भी तरह' निभाती रहती थीं, वैसे ही जैसे पिछली पीढ़ी संयुक्त परिवार की ज़िम्मेदारियाँ निभा रही है.

मैं मानती हूँ कि यह सच है कि स्त्रियाँ अब 'जैसे-तैसे' अपना गृहस्थ जीवन खींचना नहीं चाहतीं, जीना चाहती हैं. इसलिए उन्होंने 'लड़की की मायके से डोली उठती है और ससुराल से अर्थी' वाली कहावत को मानने से इंकार कर दिया है. लेकिन कितने प्रतिशत लड़कियों ने? यह सोचने की बात है.

तलाक सिर्फ इसलिए नहीं हो रहे कि लड़कियों ने सहना छोड़ दिया है, बल्कि इसलिए भी कि परम्परागत विवाह (अरेंज्ड मैरिज) की प्रक्रिया ही सिरे से बकवास है. मेरी एक मित्र जो कि राज्य प्रशासनिक सेवा की ऑफिसर है, कई लड़कों को 'देख' चुकी है '(मिलना' शब्द यहाँ किसी भी तरह उपयुक्त लग ही नहीं रहा है) लेकिन वह समझ ही नहीं पाती कि एक-दो या ज़्यादा से ज़्यादा तीन घंटे की देखन-दिखाई, वह भी परिवार वालों के बीच किसी व्यक्ति को जीवनसाथी के रूप में परखने में किस प्रकार सहायक हो सकती है? यहाँ लड़का-लड़की दोनों का अहं भी आ जाता है. यदि वे बात करें और सामने वाले ने उसके बाद मना कर दिया तो उनकी तो बेइज्जती हो जायेगी. यह भी बात है कि कहीं एकतरफा लगाव हो गया और सामने से अस्वीकार, तो?

एक नहीं, हज़ार बातें हैं. उस पर भी इतने झूठ बोले जाते हैं परम्परागत विवाह के लिए कि पूछिए मत. मेरे उन्हीं मित्र ने एक बात और कही कि न जाने कितने तलाक तो एक-दूसरे के झूठ खुलने की वजह से होते हैं. दोनों ओर से एक-दूसरे के बारे में खूब बढ़ा-चढ़ाकर बातें की जाती हैं, जिनमें से आधी झूठ होती हैं. देख-परखकर विवाह करना अच्छी बात है, लेकिन उसका अवकाश तो मिले. कम से कम थोड़ी देर के लिए तो अकेले में बात कर सकें. वैसे मेरे विचार से तो उन्हें कई दिन तक बात करनी चाहिए जिससे एक-दूसरे के बारे में गहराई से जान सकें...लेकिन यहाँ पर एक तो लड़का-लड़की का अहं और ठुकराए जाने का डर होता है दूसरे "झूठ बोलकर रिश्ता लगवाने वाले" उनको ऐसा नहीं करने देना चाहते. आश्चर्य है कि अपने देश में ऐसे कूढ़मगज आज भी हैं. माफ कीजियेगा ऐसा कहने के लिए, लेकिन जीवन भर के साथ के लिए इस तरह से शुरुआत मुझे बहुत हास्यास्पद लगती है.

वास्तवकिता यह है कि हममें से कुछ लोग किसी न किसी तरह से जल्द से जल्द अपने बच्चों की शादी कर देना चाहते हैं बस. ये बात लड़के-लड़की दोनों के लिए एक जैसी है. अरेंज्ड शादियों में इतना अवकाश नहीं होता कि एक-दूसरे को ठीक से जान-समझ सकें. प्रेम विवाह में भी कभी-कभी पता नहीं चल पाता कि हम वास्तव में एक-दूसरे से प्रेम करते हैं या नहीं. लेकिन मेरे मित्र ने जिन लोगों का जिक्र किया था वे सभी अरेंज्ड यानि पारंपरिक विवाह के सताए हुए ही थे. माता-पिता ने बिना गहराई से जाँच-पड़ताल किये और बिना लड़का-लड़की को एक-दूसरे को समझने का मौका दिए विवाह कर दिया. जब वे दोनों वैवाहिक जीवन में मिले तो पाया कि वैसा कुछ भी नहीं था, जैसा उन्होंने सोचा था. फिर भी कोशिश की टूटे दिल और रिश्ते को बचाने की और जब निभाते-निभाते ऊब गए तो आखिर अलग होने का फैसला ले लिया. मित्र के मुताबिक़ कुछ शादियाँ छः महीनों में टूट गयीं.

मैं यह नहीं मानती कि विवाह जन्म-जन्मांतर का बंधन होते हैं, लेकिन किसी रिश्ते के टूटने पर दर्द तो होता ही है, गुस्सा और पछतावा भी होता है, खासकर के जब वह उस "तरीके" के अनुसार हुआ हो, जिसे हम भारतीय सबसे आदर्श विवाह मानते हैं- "शादी दो लोगों के बीच नहीं, दो परिवारों के बीच होती है" क्या कर पाते हैं परिवारवाले जब रिश्ता टूटता है तो? कुछ नहीं न? तो इसे इतना अनुल्लंघनीय क्यों बना दिया है उन्होंने? इसी को आदर्श विवाह क्यों मानते हैं? ये मान क्यों नहीं लेते कि इसमें खामियाँ हैं और यदि सुधार न हुआ तो इसी तरह से आपके बच्चे मानसिक संत्रास से गुजरते रहेंगे.

मेरे विचार से विवाह का निर्णय उन दोनों लोगों के लिए ही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होता है, जिन्हें एक-दूसरे के साथ जीवन बिताना है. इसलिए निर्णय भी उन्हीं को केन्द्र में रखकर लिया जाना चाहिए और सबसे बेहतर है कि निर्णय ही उन्हीं को लेने दिया जाय. ये बात माँ-बाप को बुरी लग सकती है, लेकिन बेहतर तो यही है. लड़का-लड़की को भी समझना चाहिए कि रात-दिन एक साथ रहकर ज़िंदगी उन्हें बाँटनी है, माँ-बाप को नहीं, इसलिए खुद निर्णय लें, भले ही इसके लिए माँ-बाप के विरुद्ध जाना पड़े. और बेशक, जब लगे कि नहीं निभनी है तो अलग हो जाएँ. कोई भी रिश्ता इतना महत्त्वपूर्ण नहीं होता कि उसे निभाने के लिए आप अपनी ज़िंदगी नरक बना लीजिए.



सोमवार, 23 मार्च 2015

बेदाद ए इश्क रूदाद ए शादी: एक पाठक की नज़र से

'बेदाद ए इश्क रुदाद ए शादी' पहले-पहल किताब का नाम बड़ा अजीब सा लगा था, लेकिन जब अशोक भाई ने फेसबुक पर शेयर किया कि किताब में बागी प्रेम विवाहों के आख्यान हैं, तो इसे पढ़ने के लिए मन उत्सुक हो उठा. पुस्तक मेले से लाने के बाद तीसरे दिन जब इसे पढ़ना शुरू किया तो एक बैठक में पढ़ गयी. जी हाँ, रात के दो बजे से सुबह के दस बजे तक पूरी किताब जैसे एक सांस में पढ़ डाली

ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इसमें प्रेम कहानियाँ थीं, लेकिन उससे भी अधिक इसलिए कि वास्तविक कहानियाँ थीं और उन्हीं की ज़ुबानी जिन्होंने निराशा के इस दौर में प्रेम किया और उसे शादी तक पहुँचाने का साहस भी. यहाँ यह सवाल उठ सकता है कि प्रेम तो प्रेम है, क्या ज़रूरी है कि उसका अंजाम शादी ही हो? क्या जिनकी शादी नहीं होती, उनका प्रेम सच्चा नहीं होता? हाँ, होता है. प्रेम किसी भी रूप में हो, सच्चा ही होता है. प्रेम का सम्मान करने वाले हर प्रेम को समान दृष्टि से देखते हैं. उनके लिए प्रेमी बस प्रेमी हैं, भले ही वे अंततः विवाह बंधन में बांध पाए हों या नहीं. लेकिन प्रेम सबका दुश्मन तभी बन जाता है, जब वह शादी के अंजाम तक पहुँचने की कोशिश करता है.

हमारे समाज में एक बेचारी 'शादी' पर ही तो पूरे समाज की जिम्मेदारियों का बोझ है. उसे पितृसत्ता को बनाए रखना है, ताकि संपत्ति और स्त्रियों की यौनिकता पर पुरुषों का नियंत्रण बरकरार रहे. उसे 'सामंतवाद' को बचाकर रखना है, ताकि धन-दौलत-बाहुबल-सत्ता आदि का दिखावा करने का अवसर उपलब्ध होता रहे. उसे 'जातिवाद' को भी जिंदा रखना है, ब्राह्मणवाद बचा रहे. उसे धर्म की भी रक्षा करनी है, ताकि साम्प्रदायिक ताकतें लोगों की अंधश्रद्धा को ईंधन बनाकर नफ़रत की आग जलाए रख सकें और उससे अपने हाथ सेंकते रहें. और अंततः उसे वर्ग-भेद बनाए रखने में भी सहयोग करना है क्योंकि शादी से सम्बन्धित सबसे प्रसिद्ध जुमला "शादी अपने बराबर वालों में ही होती है.”

इन सबसे इतर प्रेम ऊपर की किसी शर्त को मानने को तैयार नहीं, तो क्यों न दुश्मन हो जाए समाज उसका? चलो, प्रेम को तो माफ भी कर दिया जाय! याद रहे, हमारे समाज में अव्वल तो प्रेम करना नहीं चाहिए, हो गया तो कोई बात नहीं, पता नहीं चलना चाहिए (क्योंकि बद अच्छा, बदनाम बुरा) और मान लो पता भी चल गया, तो लड़कियों को नसीहत कि "उसे भूल समझकर भूल जाओ" और लड़कों को सीख कि "प्यार-व्यार तो ठीक, तुम एक क्या हज़ार करो, लेकिन वो लड़की इस घर की बहू नहीं बन सकती" प्रायः यह पितृसत्तात्मक परिवार के मुखिया का बड़े गर्व और धमकी भरे अंदाज़ में दिया हुआ हुक्म होता है.

तो सोचिये, इन हालात में प्रेम को शादी तक ले जाना कितनी बड़ी बात है. इसीलिये हमारे यहाँ शादी को प्रेम की परिणति या सफलता माना जाता है. प्रेम विवाह पितृसत्ता, सामंतवाद, वर्ग भेद, जातिवाद सबका दुश्मन है. प्रेम विवाह चाहे अंतरजातीय हो या स्वजातीय, चाहे एक धर्म में हो या अंतरधार्मिक, यह किसी न किसी स्तर पर कोई न कोई सामाजिक रूढ़ि तोड़ता है. 

लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती. प्रेम विवाह में असली परीक्षा तो गृहस्थ जीवन की शुरुआत के साथ शुरू होती है. मैंने इसके सम्बन्ध में इसी ब्लॉग पर एक लेख लिखा था- "प्रेम, प्रेम विवाह और पितृसत्ता".इस किताब की कुछ कहानियाँ इसी सच को सामने लाने की कोशिश करती हैं कि प्रेम विवाह को हमारे समाज में किस तरह से चुनौतियाँ झेलनी पड़ती हैं. एक ओर तो उन्हें घर-परिवार-समाज का विरोध झेलना पड़ता है, दूसरी ओर आपसी प्रेम को भी बचाए रखने की ज़िम्मेदारी होती है. सुमन केशरी, देवयानी भारद्वाज, प्रीती मोंगा, मसिजीवी और ममता की कहानियाँ शादी के बाद के संघर्षों को बयान करती हैं. इसमें से कुछ तो आपसी प्रेम को बचाए रखने के जद्दोजहद का वर्णन करती हैं और कुछ प्रेम विवाह के बाद लड़की द्वारा नए घर-परिवार में सामंजस्य की दास्तान.  

देवयानी जी ने जिस साहस और बेबाकी से अपने वैवाहिक जीवन के संघर्षों को चित्रित किया है, वह बेहद प्रभावी है. लेकिन यह तय है कि इस प्रकार ईमानदारी से अपने सम्बन्धों के अंतर्द्वंद्व को परखने का साहस वही लड़की कर सकती हो, जिसने अपने मनपसंद युवक से प्रेम किया और स्वयं विवाह का निर्णय लिया, उसे पूरी निष्ठा से निभाया और समस्याओं को सुलझाने के अथक प्रयास किये. और अंततः न सुलझ पाने पर कड़े निर्णय लेने की भी हिम्मत की

सुमन केशरी जी ने प्रेम के सामाजिक पहलुओं का विश्लेषण करते हुए अपनी कहानी को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखा है और प्रीती मोंगा ने यह बात स्पष्टता से कही कि यदि जीवन का एक निर्णय किसी कारणवश हमें गलत लगने लगता है, तो उसे बदलने में संकोच नहीं करना चाहिए

अमित कुमार श्रीवास्तव, विभावरी, नवीन रमण-पूनम, प्रज्ञा वर्षा सिंह, रूपा सिंह, किशोर दिवसे, राजुल तिवारी, मोहित खान और शकील अहमद खान आदि सभी की कहानियाँ प्रेम और उसे शादी के परिणाम तक पहुँचाने के संघर्ष की कहानियाँ हैं. इनमें से कुछ कहानियाँ बेहद रूमानी हैं तो कुछ सीधे-सीधे समाज को चुनौती देती हुयी.

यहाँ यह बता देना उचित होगा कि यह किताब मात्र प्रेम कहानियों का संग्रह नहीं. इसमें संकलित कई प्रेम कहानियाँ अपने-अपने ढंग से प्रेम के साथ-साथ समाज और उसके ताने-बाने की भी निर्ममता से जाँच-पड़ताल करती हैं. इसी के साथ संपादक द्वय -नीलिमा चौहान और अशोक कुमार पाण्डेय के लेख प्रेम के समाजशास्त्रीय आयाम और प्रभावों का विश्लेषण करते चलते हैं और सुजाता का लेख अनुभव और अध्ययन से उपजा एक दस्तावेजी बयान है.

मैंने इस लेख में बहुत ज़्यादा विस्तार इसलिए नहीं किया क्योंकि पहली बात, मैं कोई आलोचक या पुस्तक समीक्षक नहीं, जो तटस्थ भाव से समीक्षा कर सकूँ. मैंने जो लिखा एक पाठक की दृष्टि से लिखा. दूसरी बात, किताब के बारे में अधिक लिखकर मैं इसे पढ़ने का मज़ा किरकिरा नहीं करना चाहती. लेकिन मैं कहना चाहूँगी कि हाल ही में पढ़ी गयी कई पुस्तकों में से इस पुस्तक ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया. जैसा कि नीलिमा जी ने पुस्तक की भूमिका में कहा है कि ये सिर्फ प्रेम कहानियाँ नहीं, बल्कि समाजशास्त्रीय अध्ययन के लिए उपयोगी सामग्री भी है, मैं भी यह मानती हूँ कि साहित्य के अनुरागी पाठकों के साथ-साथ सामाजिक विषयों के अध्येताओं को भी यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए.

शनिवार, 14 मार्च 2015

भारतीय समाज और लिंग-जाति की अन्तःसम्बद्धता (1)



प्राचीनकाल में धर्मशास्त्रों में संकलित हिन्दू विधियाँ आज भी उनके सामाजिक जीवन को प्रभावित करती हैं। यद्यपि जनसाधारण इन स्मृतियों के सम्पूर्ण अध्ययन से दूर ही रहा है, तथापि परम्परा से इनके नियमों का पालन करता रहा है। अतः वर्तमान हिन्दू समाज को जटिल संरचना को समझने के लिए धर्मशास्त्रों का ज्ञान अपेक्षित है। 

भारतीय परम्परा में स्मृतियों का महत्त्वपूर्ण स्थान है. स्मृतियाँ इतिहास को जानने का महत्वपूर्ण-स्रोत तो हैं ही, विश्व के प्राचीनतम अभिलेख होने के कारण भी अत्यधिक मूल्यवान हैं. स्मृति शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है-  एक अर्थ में यह वेद-वाङ्मय से इतर ग्रन्थों से सम्बन्धित है तथा संकीर्ण अर्थ में स्मृति तथा धर्मशास्त्र एक हैं. स्मृतियों के प्रतिपाद्य विषय अत्यधिक विस्तृत हैं. समाज और व्यक्ति के जीवन के प्रत्येक पक्ष से सम्बन्धित प्रावधान इनमें उपस्थित हैं. इन प्रावधानों ने भारतीय समाज पर अत्यधिक गहन और बहुपक्षीय प्रभाव डाला है. इन्होंने एक ओर लोकमानस के दैनिक कार्यकलाप से लेकर सम्पूर्ण जीवन के विषय में आचार-संहिता का कार्य किया, दूसरी ओर भारतीय समाज की संरचना में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है. अतः वर्तमान हिंदू समाज की जटिल और स्तरीकृत संरचना को समझने के लिए स्मृतियों का अध्ययन आवश्यक है.

स्मृतियों में वर्णाश्रम-व्यवस्था, संस्कार, सामाजिक कार्यकलाप, दण्ड, दायभाग आदि के प्रसंग में शूद्रों तथा स्त्रियों के लिए विशेष प्रावधान किये गए हैं. इन सभी प्रावधानों में वर्ण-व्यवस्था एक ऐसा प्रावधान है, जिसने भारतीय समाज को एक स्तरीकृत रूप दिया. वर्ण-व्यवस्था ने ही क्रमशः जाति-व्यवस्था का रूप लेकर सामाजिक संरचना को और भी जटिल स्वरूप प्रदान किया. जाति-व्यवस्था, भारत की सामाजिक व्यवस्था में पृथक्करण और स्तरीकृत का सबसे प्रभावशाली और निर्णायक तत्व है. इस व्यवस्था की जड़ें इतनी गहरी हैं कि इस समाज के व्यक्तियों के जीवन का प्रत्येक क्षेत्र इससे प्रभावित और निर्धारित होता है. समाज के प्रत्येक सदस्य के लिए एक जाति निर्धारित है, जिसका समाज की पदसोपानीय व्यवस्था में अपना एक अलग सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक स्थान है.

प्राचीनकाल से ही स्त्रियाँ जाति आधारित भारतीय समाज की सबसे अधिक प्रभावित और कमज़ोर सदस्य हैं. जाति-व्यवस्था के फलस्वरूप उत्पन्न इस पिरामिडीय व्यवस्था के सबसे ऊपर के स्तर पर ब्राह्मण पुरुष स्थित होता है तथा सबसे निचली सीढ़ी पर शूद्र स्त्री. जहाँ सामान्य जातियों की स्त्रियाँ आतंरिक (पारिवारिक) शोषण और लिंगगत भेदभाव की शिकार होती हैं, वहीं शूद्र तथा अन्य पिछड़ी जाति की औरतें जाति, वर्ग, धर्म आदि से सम्बन्धित बहुकोणीय तथा बहुपक्षीय दबावों को झेलती हैं

इस बात के ऐतिहासिक साक्ष्य उपस्थित हैं कि वैदिक काल में स्त्रियों को पुरुषों के ही समान यज्ञोपवीत संस्कार एवं वेदाध्ययन का अधिकार था. वर्ण-व्यवस्था उस युग में उतनी कठोर नहीं थी, जितनी कि धर्मसूत्रों एवं स्मृतियों में वर्णित है. किन्तु इतना स्पष्ट है कि शूद्र तथा स्त्री दोनों ही वर्गों के लिए वेदों का अध्ययन कालान्तर में निषिद्ध हो गया. धर्मसूत्रों एवं स्मृतियों में यह निषेध स्पष्ट है. यज्ञोपवीत संस्कार वेदाध्ययन तथा औपचारिक शिक्षा-दीक्षा के लिए अनिवार्य संस्कार था. इसे निषिद्ध करने के कारण जहाँ एक ओर स्त्री तथा शूद्र शिक्षा से दूर होते गए, वहीं दूसरी ओर उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा का भी ह्रास होता गयाइसके अतिरिक्त और भी अनेक प्रावधान हैं, जो इन दोनों ही वर्गों को समाज के हाशिए पर धकेलने के लिए उत्तरदायी हैं

यदि हम वर्तमान भारतीय सामाजिक संरचना पर दृष्टि डालें, तो हमें स्तरीकरण के विभिन्न रूप दिखाई देंगे, जिनमें ‘लिंग’ एवं ‘जाति’ प्रमुख हैं. स्तरीकरण तथा विभेदीकरण के ये रूप आपस में इस प्रकार संबद्ध हैं कि ये शोषण के कई रूप उत्पन्न करते हैं. जाति और लिंग की इस अन्तः संबद्धता (Intersection) के फलस्वरूप तीन शोषित वर्ग अस्तित्व में आते हैं-सवर्ण स्त्री, दलित पुरुष तथा दलित स्त्री.

कुछ दशक पहले तक समाजशास्त्री यह मानते थे कि जाति और लिंग दो भिन्न-भिन्न अवधारणाएँ हैं. जाति समाजशास्त्र के अध्ययन का विषय है और जेंडर का अध्ययन नारीवादियों का विषय है. यह समझा जाता था कि दलित वर्ग की समस्याएँ ‘जाति’ के अध्ययन से समझी जा सकती हैं, चाहे वह दलित स्त्री हो या दलित पुरुष. इसी प्रकार स्त्री मात्र की समस्याएँ ‘लिंग-सम्बन्धी अध्ययन’ (gender study) के अध्ययन से सुलझ जायेंगी, चाहे वह सवर्ण स्त्री हो अथवा दलित स्त्री. लेकिन समस्या यह होती थी कि ‘दलित स्त्री’ की समस्याओं के अध्ययन के लिए अलग से कोई सिद्धांत विकसित न होने के कारण उनकी समस्याओं को समझने और उन्हें सुलझाने में विचारकों, सिद्धांतकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को कठिनाई होती थी

विगत कुछ दशकों में समाज में हुए सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवर्तनों के कारण यह माना जाने लगा है कि जाति और लिंग एक-दूसरे से गहन रूप से अन्तः संबद्ध हैं और इसका मूल धर्मशास्त्र, विशेषतः स्मृतियों के प्रावधानों में निहित है. एक शूद्र स्त्री के ऊपर स्मृतियों के शूद्र-सम्बन्धी प्रावधान भी लागू होते हैं और स्त्री-सम्बन्धी प्रावधान भी. इसका प्रभाव वर्तमान काल तक दिखता है. इसके कारण दलित स्त्री की समस्याएँ दलित होने के कारण भी हैं और स्त्री होने के कारण भी

अन्तः संबद्धता की अवधारणा ने भी भारतीय समाज की जाति-लिंग संबद्धता के अध्ययन की ओर सिद्धांतकारों और शोध-कर्ताओं का ध्यान आकर्षित किया. यह सामाजिक नारीवादी सिद्धांत तब सामने आया, जब पश्चिम की रेडिकल नारीवादियों के एक वर्ग ने इस बात पर ध्यान देना शुरू किया कि परम्परागत पश्चिमी नारीवाद ने उनकी समस्याओं को ठीक प्रकार से नहीं समझा है. उनके अनुसार यह समझ सिरे से गलत है कि श्वेत महिलाओं और अश्वेत महिलाओं के अनुभव, परिस्थितियाँ और समस्याएँ एक समान हैं. इन नारीवादियों ने यह माना कि अश्वेत नारियों का शोषण सिर्फ ‘स्त्री’ होने के नाते ही नहीं होता, बल्कि उसके पीछे अनेक अन्य कारक जैसे- रंग, वर्ग आदि भी होते हैं. और शोषण के ये सभी कारक आपस में अन्तः सम्बद्ध हैं. भारतीय नारीवादियों ने अन्तः संबद्धता की इस अवधारणा को अपनाया और उसे दलित स्त्रियों की समस्याओं के अध्ययन में उपयोग करना आरम्भ किया.

बुधवार, 8 मई 2013

पैतृक सम्पत्ति पर बेटी का अधिकार क्यों न हो?

कुछ  दिन पहले मैंने अपने पिता की सम्पत्ति पर अपने अधिकार के सम्बन्ध में श्री दिनेशराय द्विवेदी जी से उनके ब्लॉग 'तीसरा खम्बा' पर एक प्रश्न पूछा था. उनके उत्तर से मैं संतुष्ट भी हो गयी थी और सोचा था कि कुछ दिनों बाद मैं पिता की सम्पत्ति पर अपना दावा प्रस्तुत कर दूँगी. लेकिन मैंने देखा कि जिसे भी इस सम्बन्ध में बात करो, वही ऐसा न करने की सलाह देने लगता है. मैं ऐसे लोगों से कुछ प्रश्न पूछना चाहती हूँ. और साथ ही द्विवेदी जी से भी कुछ प्रश्न हैं इसी सन्दर्भ में.
मेरे पिताजी ने हम तीनों भाई-बहनों का एक समान ढंग से पालन-पोषण किया. उन्होंने कभी हममें लड़का-लड़की का भेदभाव नहीं किया. अपने अंतिम समय में वे भाई से थोड़ा नाराज़ थे. तो उन्होंने गुस्से में ये तक कह दिया था कि "मैं अपनी सम्पत्ति अपनी दोनों बेटियों में बाँट दूँगा. इस नालायक को एक कौड़ी तक नहीं दूँगा." मैंने हमेशा बाऊ जी की सेवा उसी तरह से की, जैसे कोई बेटा करता (हालांकि बेटे ने नहीं ही की थी, पिताजी के अनुसार)
फिर मैं उनकी सम्पत्ति की उत्तराधिकारिणी क्यों नहीं हो सकती? किस मामले में मैं अपने भाई से कम हूँ? और 2005 के हिंदू उत्तराधिकार कानून में संशोधन के बाद से ये कानूनी हक भी है. लेकिन मेरे भाई ने पिताजी के देहांत के बाद से घर पर कब्ज़ा कर लिया. अभी कुछ दिन पहले ज़मीन के कागज़ की नक़ल निकलवाई तो पता चला कि वो अपने आप भाई के नाम ट्रांसफर हो गयी है. जब 2005 के कानून के अनुसार बेटी भी अब ठीक उसी तरह अपनी पैतृक सम्पत्ति में उत्तराधिकार और विभाजन की अधिकारी होगी, जैसा अधिकार एक बेटे का है, तो ज़मीन अपने आप भाई के नाम क्यों हो गयी? क्या मेरी जगह कोई भाई होता, तो भी ऐसा ही होता. अगर नहीं तो इस कानून का मतलब क्या? जब मुझे लड़कर ही अपना हक लेना पड़े, तो वो हक ही क्या?
अगर कोई कृषि भूमि के कानूनों का हवाला देता है, तो क्या ये ठीक है कि पैतृक सम्पत्ति में बेटी को हक ना दिया जाय, सिर्फ इसलिए कि ज़मीन के अधिक टुकड़े हो जायेंगे? फिर वही बात कि फिर उस कानून का मतलब क्या? क्योंकि हमारे गाँवों में तो उतराधिकार योग्य सम्पत्ति में अधिकतर कृषि भूमि ही होती है. ऐसे तो लड़कियों को पैतृक सम्पत्ति में समान अधिकार के कानून का कोई मतलब ही नहीं रह जाता.
मेरे लिए उस सम्पत्ति का महत्त्व इसलिए नहीं है कि उससे मुझे कोई लाभ होगा. मेरे लिए सम्पत्ति में उतराधिकार की लड़ाई अपने पिता के प्रेम पर मेरे हक की लड़ाई है. और अगर कोई यह तर्क देता है कि लड़कियों के संपत्ति में हक माँगने से भाई-बहन के सम्बन्ध टूट जाते हैं, तो मेरे भाई से मेरे सम्बन्ध वैसे ही कौन से अच्छे हैं और अगर अच्छे होते भी, तो भी मैं अपना हिस्सा माँगती. रही बात दीदी की, तो उनदोनो ने तो पहले ही कह रखा है कि तीन भाग हो जाने दो, फिर अपना हिस्सा हम तुम्हें दे देंगे. क्योंकि हम दोनों बहनों के सम्बन्धों के बीच पैसा-रुपया-धन सम्पत्ति कभी नहीं आ सकती. जिनमें सच्चा प्यार होता है, वहाँ ये सभी मिट्टी के धेले के समान होता है.
मुझे लगता है कि इस प्रकार के ऊटपटांग तर्क देकर लड़कियों के उतराधिकार के हक को रोकने वाले लोग, न सिर्फ सामाजिक बल्कि कानूनी अपराध भी कर रहे हैं. याद रखिये कि जब आप ये कहते हैं कि लड़कियों को पिता की सम्पत्ति में हिस्सा लेने का क्या हक है, वे तो अपने पति के यहाँ चली जाती हैं, तो आप एक ओर तो उनके जैविक अभिभावक का हक उनसे छीन रहे होते हैं, दूसरी ओर 2005 के हिन्दू उतराधिकार कानून का उल्लंघन कर रहे होते हैं. लड़कियों का विवाह हुआ है या नहीं, उन्हें पति के घर जाना है या नहीं, इससे उनके माता-पिता के प्रेम पर हक क्यों कम होना चाहिए? और अगर माँ-बाप के प्रेम पर पूरा हक है, तो सम्पत्ति पर क्यों नहीं होना चाहिए?
अपनी अगली पोस्टों में मैं पैतृक सम्पत्ति में बेटियों के उत्तराधिकार और विभाजन के विषय में विस्तार से बताऊँगी. फिलहाल मैं जानती हूँ कि बहुत सी लड़कियाँ इस विषय में कोई जानकारी नहीं रखती हैं. इस पोस्ट के माध्यम से मैं सभी लड़कियों को ये बताना चाहती हूँ कि अब अपने बाप-दादा की ज़मीन पर तो उनका हक है ही, अपने पिता के आवास में रहने का हक भी है. कोई उनसे पैतृक सम्पत्ति पर उनके हक और पिता के घर में रहने का अधिकार नहीं छीन सकता है.

शुक्रवार, 15 मार्च 2013

कविता-संग्रह "यथास्थिति से टकराते हुए: दलित-स्त्री-जीवन से जुड़ी कविताएँ"


एक सवर्ण स्त्री और एक दलित स्त्री की समस्याओं में क्या अंतर हैं-? ये पूछते समय लोग यह भूल जाते हैं कि सवर्ण स्त्री भी दलित स्त्री का छुआ नहीं खाती। उसे उन्हीं हिकारत भरी नज़रों से देखती है। कई स्त्रियों के साथ होने पर वह खुद को स्त्री होने से ज़्यादा जाति से आइडेंटिफाई करती दिखती है। लेकिन वह भूल जाती है कि जिस तरह पूंजीवाद ने जाति के नाम पर मजदूरों को बाँटकर उनका आंदोलन क्षीण कर दिया, उसी तरह से ब्राह्मणवादी पितृसत्ता ने औरतों को जाति के नाम पर बाँटकर नारीवादी आंदोलन में तेज धार नहीं आने दी।

नारीवाद से जुड़ी सभी औरतों को ये सोचना होगा कि भारत में दलित स्त्री की बात किये बगैर नारीवाद का प्रश्न अधूरा है और यही पश्चिमी नारीवाद से भारतीय नारीवाद की भिन्नता का आधार है।

ज़रूरत इस बात की है कि यथास्थिति से जूझने वाला हर व्यक्ति आगे आये और इस बात पर विचार करे कि दलित स्त्री समाज की पदसोपानीय व्यवस्था में सबसे नीचे रही है। वह तिहरा शोषण झेलती रही है-
1.एक दलित होने के नाते,
2.एक स्त्री होने के नाते और
3.एक मजदूर होने के नाते

कविता-संग्रह "यथास्थिति से टकराते हुए: दलित-स्त्री-जीवन से जुड़ी कविताएँ" इसी बात को पैंसठ कवियों की कविताओं के माध्यम से सामने लाने की कोशिश में एक और कदम है। संग्रह में सम्मिलित कवियों में स्त्रियाँ हैं, तो पुरुष भी हैं, सवर्ण हैं, तो दलित भी हैं, लेकिन सबका उद्देश्य दलित स्त्री के पक्ष में खड़े होना है।

दलित स्त्री की स्थिति को विपिन शर्मा ने अपनी कविता में बहुत सटीक ढंग से उठाया है-(एक दलित स्त्री घर-बाहर शोषण झेलती है। बाहर उसे उसे चीरकर खा जाने वाले भेडिये हैं, जिनकी लोलुप दृष्टि और अश्लील कटाक्ष झेलती वह मैला कमाने का काम करके घर आती है और घर पर उसे पति की मारपीट सहनी पड़ती है। वह ब्राह्मणवाद के खिलाफ लड़ रहे अपने पति से पूछती है-)

मेरे मालिक
तुम तो मेरी तरह ही थे
सदियों से दलित-पीड़ित
एक स्त्री पाते ही
परमेश्वर बनने का ख़्वाब कैसे जाग उठा
तुम तो मालिकों के खिलाफ
मिसाल थे बगावत की
मुझे कुचल कर
किस मुँह से न्याय की बात करोगे

मेरे पतिदेव
तुम तो बड़े ज्ञानी-ध्यानी हो
आखिर पुरुष जो ठहरे
या तो मेरा-अपना भेद बता दो
या बता दो
ब्राह्मण पुरुष से
अपना भेद
तुम्हारा हक
हो सकता है अगर
एक ब्राह्मण के समतुल्य
तो हे मेरे देव
मेरा तुम्हारे बराबर क्यों नहीं??

यह कविता-संग्रह दलित-स्त्री के विभिन्न पक्षों से जुड़ी कहानी, कविता और आलोचनाओं को सामने लाने के प्रयास की एक और कड़ी है। इसके पहले इस श्रंखला की पहली कड़ी के रूप में कहानी-संग्रह 'यथास्थिति से टकराते हुए दलित स्त्री जीवन से जुड़ी कहानियाँ' भी प्रकाशित हो चुका है, जिसमें बाईस युवा कहानीकार शामिल हुए थे।

अनिता भारती और बजरंग बिहारी तिवारी द्वारा संपादित यह कविता-संग्रह इस मायने में प्रशंसनीय प्रयास है कि यह दलित स्त्री के प्रश्न पर 'मिलकर' सोचने की बात करता है। जाति-व्यवस्था पर अपने ढंग से प्रहार करते हुए एक समतावादी समाज की स्थापना करने वाले ऐसे प्रयासों का स्वागत किया जाना चाहिए।

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2013

एक बेहतर समाज की कोशिश


जब भी औरतों के लिए समानता या स्वतंत्रता की बात होती है, भारतीय पुरुषों का तर्क होता है- "हमारे यहाँ तो पहले से ही औरतों का बड़ा सम्मान है. हमारे यहाँ तो औरतों को देवी माना जाता है. हमें पश्चिम की तरह बनने की ज़रूरत नहीं. देखो अमेरिका की संस्कृति. वहाँ औरतों को आज़ादी मिली तो कैसे घर टूटने लगे. तलाक के केसेज़ बढ़ने लगे." ... उसके बाद वो तर्क देंगे अमेरिका में भारत से कहीं ज्यादा रेप केसेज़ होते हैं. वहाँ औरतों के खिलाफ यौन-हिंसा के मामले भारत से बहुत अधिक हैं.
तो भाई अमेरिका में यौन-हिंसा के मामले इसलिए ज्यादा होते हैं क्योंकि वहाँ यौन-हिंसा की परिभाषा बहुत व्यापक है. वहाँ की औरतें चुप नहीं रहतीं, विरोध करती हैं, वहाँ की पुलिस एफ.आई.आर. दर्ज करवाने में आनाकानी नहीं करती और वहाँ के न्यायालय निर्णय देने में इतनी देर नहीं लगाते. और इस सबसे बढ़कर वहाँ का समाज यौन-हिंसा के लिए औरतों को ज़िम्मेदार नहीं मानता. इसलिए औरतें भी अपने विरुद्ध अपराध को छिपाती नहीं हैं.
और फिर औरतों ने कब कहा कि उन्हें पश्चिम की तरह आज़ादी चाहिए. अरे आज़ादी तो हमारे संविधान ने हमें दी हुयी है. किसी को उसे हमें देने की ज़रूरत नहीं है. बस एक सुरक्षित माहौल चाहिए, जिसमें हम उस आज़ादी का उपयोग कर सकें. और वो माहौल न अकेले पुलिस बना सकती है, न न्यायालय न सरकार और न समाज...सबको मिलकर बेहतर समाज बनाना होगा.
आप फिर तर्क देंगे कि एक आदर्श समाज कैसे बन सकता है. अपराध तो तब भी होंगे. ये तो हम भी जानते हैं कि अपराधमुक्त समाज की कल्पना 'यूटोपिया' से बढ़कर कुछ नहीं है. अपराधी हर युग में रहे हैं और आगे भी रहेंगे. पर कुछ ऐसी बातें हैं, जिन पर ध्यान दिया जाय तो न सिर्फ अपराध कम होंगे, बल्कि अपराध होने पर औरतें उसकी शिकायत दर्ज कराने से डरेंगी नहीं.
पहली बात तो ये है कि अपराधियों के अन्दर कानून-व्यवस्था का डर होना चाहिए और ये तभी होगा, जब पुलिस अपना काम ठीक से करेगी. यहाँ तो ये हाल हैं कि छेड़छाड़ की रिपोर्ट करवाने जाने पर पुलिस ही समझाने लगती है कि जाने दो कौन सी इतनी बड़ी बात है. कहीं-कहीं तो इससे भी बढ़कर पुलिस खुद औरतों पर ही दोषारोपण करने लगती है कि आप इतनी रात में बाहर क्यों निकली? एकाध बार बड़े अधिकारियों को भी ये कहते सुना गया है कि पुलिस सारी औरतों की रक्षा तो नहीं कर सकती. बताइये, जब पुलिस के आला अफसर ऐसे बयान देंगे तो अपराधियों को पुलिस का डर रह जाएगा? इन्हीं सब कारणों से यौन-हिंसा की शिकार औरतें रपट लिखाने ही नहीं जातीं. मुझे लगता है कि हमारी पुलिस फ़ोर्स को और अधिक जेंडर सेंसटिव बनाना चाहिए. ये ट्रेनिंग के स्तर पर तो हो ही, समय-समय पर वर्कशॉप और सेमीनार के माध्यम से भी किया जा सकता है.
दूसरी बात, अपराधियों को समाज का भी भय होना चाहिए. हमारे समाज में यौन-हिंसा की शिकार औरतों को ही ज़िम्मेदार मानने की जो घटिया प्रवृत्ति है, इसके कारण भी जहाँ एक ओर अपराधियों का हौसला बढ़ता है, वहीं दूसरी ओर औरतें डर जाती हैं. सबको ये बात दिमाग से निकाल देनी चाहिए कि अपने विरुद्ध अपराध के लिए महिला दोषी है. अपराध कहीं भी किसी के साथ भी हो सकता है. बुर्के वाली औरतों से लेकर जींस पहनने वाली लड़कियों तक और बच्चियों से लेकर बूढ़ी औरत तक, सुबह-शाम, घर में, बाहर- कहीं भी कोई भी महिला अपराध का शिकार हो सकती है. औरतों को अपराध का ज़िम्मेदार मानना अपराध का समर्थन करने के समान है. इसलिए इस सोच को बदलना ही होगा.
तीसरी बात औरतों के विरुद्ध होने वाले छोटे-मोटे अपराधों को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए. जब हम छींटाकशी, ताने मारना, भीड़ का फायदा उठाकर धक्के मारना- जैसे अपराधों पर ध्यान नहीं देते हैं, तो ऐसा करने वालों का हौसला बढ़ता है. कई केसेज़ में देखा गया है कि बलात्कारी कई दिनों से लड़की का पीछा करता रहा है, लेकिन या तो लड़की ने ध्यान नहीं दिया या घरवालों से कहने पर उन्होंने उससे ध्यान न देने को कहा या फिर अपराधी को धमकाकर या पिटवाकर छोड़ दिया गया. दरअसल हम इसे अपराध समझते ही नहीं. इसलिए पुलिस में शिकायत नहीं करते, जबकि इस तरह की लापरवाही नहीं होनी चाहिए. हमें अपनी लड़कियों को भी ये सिखाना चाहिए कि वो ऐसे असामाजिक तत्वों को अनदेखा न करें, उन पर ध्यान दें और खुद परिवार को भी बच्चों को विश्वास में लेकर पूछते रहना चाहिए.
चौथी बात, कानूनी सुधार, पुलिस व्यवस्था में सुधार, ये सब बहुत लंबी प्रक्रिया है. इस पर तो बहस होती ही रहनी चाहिए. कानून को तेजी से बदलती सामाजिक व्यवस्था के साथ तारतम्य बैठाने की ज़रूरत होती है. तेजी से बढ़ रही टेक्नालजी, नगरीकरण, सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव आदि के चलते नए-नए तरह के अपराध सामने आते रहते हैं. औरतें घर से बाहर निकली हैं, तो उनके विरुद्ध अपराध बढ़े हैं. बदलते समय के हिसाब से कानून को भी बदलना होगा. औरतों के पक्ष में नए कानून बनाने होंगे.
मेरे विचार से इन बातों को ध्यान में रखा जाय, तो स्थिति में कुछ सुधार तो होगा ही. कोई भी समाज 'आदर्श समाज' नहीं बन सकता. उस आदर्श को पाया नहीं जा सकता, लेकिन उस ओर बढ़ा तो जा ही सकता है. एक बेहतर समाज बनाने की कोशिश किसी भी तरह बंद नहीं होनी चाहिए. हम अमेरिका नहीं बनना चाहते, हमें एक बेहतर हिन्दुस्तान चाहिए.




मंगलवार, 23 अक्तूबर 2012

वैदिक एवं आर्ष महाकाव्य युग में स्त्रियों की शिक्षा



इस बात के ठोस प्रमाण उपलब्ध हैं कि वैदिक युग से लेकर आर्ष महाकाव्यों के लिखे जाने तक भारत में लड़कियों की शिक्षा-दीक्षा पर भी उतना ही ध्यान दिया जाता था, जितना कि लड़कों की शिक्षा पर। मैं अपने शोध-कार्य में इस बात की पड़ताल कर रही हूँ कि उसके बाद के समय में ऐसे कौन से परिवर्तन आये कि स्मृतियों में स्त्रियों की शिक्षा का स्पष्ट निषेध कर दिया गया, यहाँ तक कि विवाह को छोड़कर शेष संस्कार भी बिना मन्त्रों के करने का निर्देश दिया गया। यह पोस्ट मेरे शोध कार्य का एक अंश है, जिसमें वैदिक और आर्ष महाकाव्य काल में स्त्रियों की शिक्षा के विषय में चर्चा की गयी है।

ईस्वी सन् के आरम्भ तक लड़कियों का उपनयन संस्कार होता था और उन्हें वेदों का अध्ययन करने की भी लड़कों के समान ही अनुमति होती थी।[1] उपनयन संस्कार के बाद ही विधिवत् शिक्षा का आरम्भ होता था। बाद में उपनयन संस्कार स्त्रियों के लिए बस एक औपचारिकता मात्र रह गया, लेकिन वैदिक युग में यह अपनी पूर्णविधि के साथ ही स्त्रियों के लिए भी किया जाता था। वे भी गुरुओं के आश्रम में रहकर ब्रह्मचर्य का पालन करती हुयी यज्ञोपवीत, मौञ्जी, मेखला और वल्कल धारण करती थीं। ऋक्-यजुः-अथर्व संहिताओं में ब्रह्मचारिणी नारियों का उल्लेख है। अथर्ववेद में एक स्थान पर कहा गया है, “बह्मचर्य व्रत का पालन कर शिक्षा समाप्त करने वाली कन्याएँ योग्य पति को प्राप्त करती हैं।”[2] जो छात्राएँ अधिक से अधिक संहिताओं के मन्त्रों की पंडिता होती थीं, उन्हें ‘बहुवची’ की उपाधि दी जाती थी।

अल्टेकर के अनुसार, ‘स्त्रियाँ शूद्रों की तरह वैदिक अध्ययन के अयोग्य होती हैं’ यह दृष्टिकोण बाद के युग का है। प्राचीन वैदिककाल में स्त्रियाँ पुरुषों के समान ही मन्त्रद्रष्ट्री होती थीं। उनमें से कुछ के नाम तो वैदिक संहिताओं में भी आये हैं।[3] अल्टेकर के अनुसार ‘सर्वानुक्रमणिका’ में बीस ऐसी स्त्रियों के नाम गिनाए गए हैं। इनमें से कुछ नाम मिथक हो सकते हैं, लेकिन आतंरिक स्रोत दिखाते हैं कि लोपामुद्रा, विश्ववारा, सिक्ता निवावारी और घोषा आदि कुछ ऋषिकाएँ हैं, जिन्होंने ऋग्वेद के सूक्तों की रचना की है। इनमें से कुछ ऋषिकाओं और उनके द्वारा रचित ऋग्वेद के सूक्तों का वर्णन निम्नवत् है-

लोपामुद्रा- प्रथम मण्डल का 179वां सूक्त।
विश्ववारा आत्रेयी- पंचम मण्डल का 28वां सूक्त।
अपाला आत्रेयी- अष्टम मण्डल का 91वां सूक्त।
घोषा काक्षीवती- दशम मण्डल का 39वां तथा 40 वां सूक्त।
शची पौलोमी- दशम मण्डल का 149वां सूक्त (आत्मस्तुति)।
सूर्या सावित्री- दशम मण्डल का 85वां सूक्त।

उपर्युक्त ऋषिकाओं में से शची पौलोमी का नाम वैदिक युग के बाद भी प्रचलित रहा है। इन्हें इन्द्र की पत्नी माना गया है।

उपनिषदों में भी अनेक विदुषी स्त्रियों का नाम आया है, जिनमें सुलभा मैत्रेयी, वडवा पार्थियेयी और गार्गी वाचक्नवी प्रसिद्ध हैं। अल्टेकर के मत में इन नारियों का अस्तित्व वास्तव में रहा होगा और इन्होंने ज्ञान के क्षेत्र में अपना योगदान दिया होगा, अन्यथा इनका नाम विभिन्न ग्रंथों में बार-बार न आता।


उपनिषद् काल में महिला छात्राओं के दो प्रकार उल्लेखनीय हैं- (1.) सद्योद्वाहा तथा (2.) ब्रह्मवादिनी । ‘सद्योद्वाहा’ स्त्रियाँ वे होती थीं, जो ब्रह्मचर्य आश्रम के अनन्तर गृहस्थ आश्रम में प्रविष्ट होती थीं तथा उस आश्रम के नियमों का पालन करती हुयी मातृत्व के महनीय पद पर प्रतिष्ठित होती थीं। वे उन समग्र विद्याओं का शिक्षण प्राप्त करती थीं, जो उन्हें सद्गृहिणी बनाने में पर्याप्त सहायक होती थीं। संगीत की शिक्षा भी उन्हें दी जाती थी। वैदिक यज्ञ में स्त्रियों का महत्त्वपूर्ण स्थान था। यजमान-पत्नी के रूप में वे अग्न्याधान करने वाले अपने पति के धार्मिक कृत्यों में हाथ बँटाती थीं। अग्नि के परिचरण के अवसर पर वे तत्तत् विशिष्ट मन्त्रों के उच्चारण के साथ हवन-कार्य का भी संपादन करती थीं।[4]

‘ब्रह्मवादिनी’ स्त्रियाँ उपनिषद् युग की विशिष्टता मानी जा सकती हैं। ये स्त्रियाँ ब्रह्म-चिंतन में तथा ब्रह्म-विषयक व्याख्यान में अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर देती थीं। वे ब्रह्मतत्व के व्याख्यान तथा परिष्कार में उस युग के महान् दार्शनिकों से भी वाद-विवाद एवं शास्त्रार्थ करती थीं। बृहदारण्यकोपनिषद् ऐसी दो ब्रह्मवादिनी नारियों की विद्वता का परिचय बड़े विशद् शब्दों में देता है। इनमें से एक है- उस युग के महनीय तत्त्वज्ञानी याज्ञवल्क्य ऋषि की धर्मपत्नी मैत्रेयी और दूसरी हैं- उसी याज्ञवल्क्य से शास्त्रार्थ करने वाली वाचक्नवी गार्गी।[5]


ईसापूर्व चौथी शताब्दी में जब भारत में दार्शनिक विषयों का अध्ययन-मनन प्रमुखता से होने लगा, तब अनेक स्त्रियों ने अपना जीवन अध्ययन और ज्ञानार्जन को समर्पित कर दिया। अल्टेकर ने ‘कात्सकृत्स्ना’ का उल्लेख किया है, जिसके द्वारा रचित मीमांसा के एक ग्रन्थ को ‘कात्सकृत्सिनी’ कहा जाता है और जो स्त्रियाँ इस शाखा में पारंगत होती थीं, उन्हें ‘कात्सकृत्स्ना’ कहा जाता था।[6] अल्टेकर का यह अनुमान समीचीन है कि यदि स्त्रियाँ इतने विशिष्ट विषयों में पारंगत हो सकती थीं, तो इसका अर्थ है कि सामान्य रूप से उनकी शिक्षा-दीक्षा पर बहुत ध्यान दिया जाता रहा होगा।

उस युग में स्त्रियाँ वैदिक और दर्शन आदि की शिक्षा के अतिरिक्त गणित, वैद्यक, संगीत, नृत्य और शिल्प आदि का भी अध्ययन करती थीं। क्षत्रिय स्त्रियाँ धनुर्वेद अर्थात् युद्धविद्या की भी शिक्षा ग्रहण करती थीं तथा युद्ध में भाग भी लेती थीं। ऋग्वेद के दशम मण्डल के 102वें सूक्त में राजा मुद्गल एवं मुद्गालानी की कथा वर्णित है और उसे युद्ध में विजय दिलाती है। इसी प्रकार ‘शशीयसी’[7] का तथा वृत्तासुर की माता ‘दनु’[8] का वर्णन है, जिसने युद्ध में भाग लिया और इंद्र के हाथों वीरगति को प्राप्त हुयी। महाकाव्य काल में भी स्त्रियों के युद्ध में भाग लेने के सन्दर्भ प्राप्त होते हैं। कैकयी ने देवासुर-संग्राम में मृतप्राय हुए राजा दशरथ की सारथी बनकर प्राणरक्षा की थी और उसके फलस्वरूप दो वर प्राप्त किये थे।[9]

आर्षमहाकाव्यों में वर्णित उच्चकुलों की नारियाँ विविध प्रकार की विद्याओं में निष्णात होती थीं। राजा कुन्तिभोज की पुत्री कुंती अत्यधिक गुणवती थी। उसने अपने आतिथ्य-सत्कार से दुर्वासा जैसे क्रोधी ऋषि को प्रसन्न किया और उनसे मनचाहा वर प्राप्त करने का वरदान प्राप्त किया। इसके लिए उन्होंने कुंती को वशीकरण मन्त्र दिया, जिसके द्वारा वह किसी भी देवता को वश में करके उससे पुत्र प्राप्त कर सकती थी।[10] इसी प्रकार सभापर्व में जब द्रौपदी को पाण्डवों द्वारा द्यूतक्रीड़ा में हार जाने के पश्चात् दुःशासन सभा में घसीटकर लाता है, तो वह वहाँ उपस्थित गुरुजनों से धर्म-विषयक प्रश्न करती है और धिक्कारती है।[11] इससे पता चलता है कि वह एक उच्चशिक्षित विदुषी युवती थी, जिसे धर्मविषयक गूढ़ बातों का ज्ञान था।

इस प्रकार स्पष्ट है कि संहिताकाल से लेकर महाकाव्य काल तक स्त्रियों को शिक्षा का पूर्ण अधिकार था। वे पुरुषों के समान ही उपनयन संस्कार के पश्चात् ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए अध्ययन करती थीं और उसके पश्चात् भी उन्हें आगे विद्याध्ययन करने या गृहस्थ धर्म अपनाने- दोनों ही विकल्प प्राप्त थे।


[1] अल्टेकर , पृष्ठ 9-10
[2] “ब्रह्मचर्येण कन्यानं युवाविन्दते पतिम् ।“ – अथर्ववेद, कांड-11, सूक्त-7, मन्त्र-18
[3] अल्टेकर , पृष्ठ 10
[4] आचार्य बलदेव उपाध्याय, वैदिक साहित्य और संस्कृति, शारदा संस्थान, वाराणसी 1998, पृष्ठ संख्या 424
[5] आचार्य बलदेव उपाध्याय, पृष्ठ संख्या 425
[6] अल्टेकर, पृष्ठ 11
[7] ऋग्वेद, पंचम मण्डल, सूक्त- 61
[8] ऋग्वेद, प्रथम मण्डल, सूक्त- 32, मन्त्र- 9
[9] रामायण, अयोध्याकाण्ड, सर्ग-10,श्लोक 8 एवं 9
[10] महाभारत, आदिपर्व, अध्याय-110
[11] महाभारत, सभापर्व, अध्याय-69





गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

प्रेम, प्रेम विवाह और पितृसत्ता

पिछले कुछ दिनों से इस विषय पर सोच रही थी, अतिव्यस्तता के बाद भी। इसके दो प्रमुख कारण थे - मेरे बेहद करीबी दोस्तों के प्रेम विवाह में आ रही अडचनें और मेरी एक जूनियर द्वारा बार-बार प्रेम के अस्तित्व पर उठाये जा रहे प्रश्न। मेरी  जूनियर इस बात से परेशान है कि जीवन के संघर्ष के दिनों में जो प्रेम किसी का संबल बनता है, सहारा देता है, वही वास्तविक संसार के, यथार्थ के धरातल पर आकर स्वयं क्यों असहाय हो जाता है?

जब प्रेम और समाज के सम्बन्धों की समस्या के बारे में सोचती हूँ तो एक दूसरा ही प्रश्न सामने आ खड़ा होता है कि क्या वाकई जिसे हम प्रेम समझ रहे थे, वह प्रेम ही था? हमारे पितृसत्तात्मक समाज में जहाँ लड़के-लड़कियों को अलग-अलग ढाँचों में ढलने की ट्रेनिंग दी जाती है, जहाँ विद्यालय के स्तर पर सह-शिक्षा में पढ़ाना ही अपराध समझा जाता है, वहाँ क्या हमारे पास प्रेम के लिए विकल्प होते हैं? मेरा जवाब है नहीं। ऐसे में अक्सर लड़के-लड़कियाँ पहली बार जिस विपरीतलिंगी के संपर्क में आते हैं, उसी की ओर आकर्षित हो जाते हैं और उसी को प्यार समझ बैठते हैं। इसमें 'प्रेम में एकनिष्ठता' की अनिवार्यता और 'एकाधिकार की भावना', न उन्हें अपने प्रेम पर पुनर्विचार करने देती है और न ही विकल्प ढूँढने देती है। यह प्रेम जब दुनिया के सामने पहुँचता है, तो उसको टूटना ही है। हालांकि हमेशा ही ऐसा नहीं होता। पर अगर प्रेम समाज के बनाए हुए नियमों से लड़ने के पहले ही हथियार डाल देता है, तो मैं उसे प्रेम ही नहीं मानती। हाँ, ये हो सकता है कि उसमें से किसी एक ने वास्तव में सच्चा प्यार किया हो, पर उसका साथी या तो खुद प्रेम के भ्रम में होता है अथवा अपने प्रेमी को जानबूझकर धोखा दे रहा होता है।

खैर, यहाँ इस पोस्ट का विषय 'प्रेम का भ्रम' नहीं प्रेम है, बशर्ते वह 'विशुद्ध प्रेम' हो। यहाँ विशुद्ध से मतलब किसी नैतिक शुचिता से नहीं है, बल्कि इसका मतलब है कि उसमें किसी भी तरह की अन्य भावना की मिलावट ना हो, जैसे स्वार्थ, निर्भरता, जिम्मेदारी, दया, करुणा आदि। वह प्रेम, जिसमें प्रेम के बदले बस प्रेम की अपेक्षा हो। बहुत पहले 'स्त्री मुक्ति संगठन' की साथी डॉ. पद्मा सिंह ने कहा था, "प्रेम दो बेहद स्वतंत्र और आत्मनिर्भर व्यक्तियों के बीच में ही संभव है।" अर्थात यदि प्रेमी-प्रेमिका प्रेम के अलावा किसी और बात के लिए एक-दूसरे पर निर्भर नहीं और प्रेम के अलावा और कोई स्वार्थ भी नहीं है, तभी प्रेम संभव है। मुझे एक दृष्टि में यह बात सही लगती है। आप इससे असहमत भी हो सकते हैं। पर, मैं मानती हूँ कि इस तरह के प्रेम में स्त्री-पुरुष दोनों समान स्थिति में होते हैं। इसलिए वो पितृसत्ता के लिए एक चुनौती होते हैं और इसीलिये समाज के ठेकेदार प्रेमियों से बहुत डरते हैं।

यहाँ मैं उस 'विक्टोरियन रोमैंटिक लव' को अलग कर रही हूँ, जो अंग्रेजी साहित्य के काल विशेष में और 'मिल्स एंड बून' के नावेल्स में पाया जाता है और जिसमें सफ़ेद घोड़े पर सवार एक राजकुमार आता है और खूब घेरदार फ्रिल वाली पोशाक पहनी हुयी नायिका को अपने साथ ले जाता है। मैं संस्कृत के 'सम्भोग श्रृंगार' वाले प्रेम को और हिंदी के 'रीतिकालीन प्रेम' को भी नहीं गिन रही हूँ। क्योंकि इन सभी स्थानों पर प्रेम की जो छवि है, वो पितृसत्ता की ही बनायी हुयी है और इसमें बिलकुल भी बराबरी नहीं है। भारतीय परम्परा में भी अर्जुन-सुभद्रा से लेकर पृथ्वीराज-संयोगिता तक नायिकाओं के अपहरण के किस्सों में भी इसी प्रकार का प्रेम परिलक्षित होता है। यह रूमानी और रूढ़िवादी प्रेम पितृसत्ता का पोषक ही है क्योंकि इसमें हमेशा नायिका कोमल कृशांगी और नायक वीर पुरुष होता है। वो हमेशा 'प्रोटेक्टर' की भूमिका में होता है और इसीलिये नायिका को कमज़ोर दिखाया जाता है। प्रेम, पितृसत्ता से टक्कर तभी ले सकता है जब प्रेमी-प्रेमिका एक दूसरे से समान रूप में प्रेम करते हों। तभी वो पितृसत्ता की उस अवधारणा के विरुद्ध होते हैं, जिसमें एक को दूसरे से श्रेष्ठ माना जाता है, एक को कठोर और दूसरे को कोमल माना जाता है।

नारीवाद का रोचक पक्ष यह है कि वह विवाह को तो एक पितृसत्तात्मक संस्था मानता है, पर प्रेम को नहीं। विवाह का पितृसत्ता से क्या सम्बन्ध है, इस पर भी कभी चर्चा होगी। फिलहाल विचार का विषय है कि प्रेम पितृसत्ता के लिए चुनौती कैसे है? हमारे समाज की बुनावट जैसी है उसमें जानबूझकर जीवनसाथी के चयन के विकल्प इतने कम रखे गए हैं और प्रक्रिया इतनी जटिल है कि आप अपने साथी के चयन के लिए समाज के बनाए नियमों के अधीन अपने परिवार की इच्छा पर निर्भर रहें। यह बात लड़के और लड़की दोनों के लिए समान रूप से लागू होती है अर्थात दोनों के ही पास 'चयन के विकल्प' नहीं हैं। ऐसे में जब कोई लड़का या लड़की अपनी इच्छा से कोई साथी ढूँढ़ लेता है, तो समाज को अपनी व्यवस्था खतरे में पड़ती दिखाई देती है। जब प्रेमी जोड़ा एक कदम आगे बढ़कर अपने प्रेम को विवाह में परिणत करना चाहता है, तो इसीलिये उसे घोर विरोध का सामना करना पड़ता है कि उन्होंने समाज के नियमों के विरुद्ध 'अपनी इच्छा' से साथी चुन लिया। यह उस सामाजिक व्यवस्था के लिए अपमान होता है, जिसमें पद्सोपानीयक्रम से छोटे को बड़े की, निर्धन को धनवान की, निर्बल को सबल की और स्त्री को पुरुष की आज्ञा का पालन करना अनिवार्य होता है। सबसे ज्यादा डर परिवार को इस बात का होता है कि प्रेमविवाह कर आयी लड़की 'आदर्श बहू' बन पायेगी या नहीं। इसीलिये प्रेमविवाह को रोकने के लिए परिवार वाले सभी तरह के हथकंडे अपनाते हैं। वो अपने 'बिगड़े' हुए बच्चों को परिवार की प्रतिष्ठा का हवाला देते हैं, बराबरी में रिश्ता करने की बात कहते हैं और अन्ततः 'इमोशनल ब्लैकमेलिंग' का अमोघास्त्र प्रयुक्त करते हैं।

अगर यह प्रेम अंतरजातीय हुआ, तब तो विवाह के लिए प्रेमी-प्रेमिका को परिवार के साथ समुदाय का भी विरोध झेलना पड़ता है। अंतरजातीय विवाह पितृसत्ता के साथ ही साथ जातिव्यवस्था के लिए भी चुनौती बन सकते हैं, बशर्ते प्रेमी-प्रेमिका एक-दूसरे का साथ निभाने को पूरी तरह प्रतिबद्ध हों।

लेकिन इन सब बातों का दूसरा पहलू भी है। अक्सर देखा जाता है कि प्रेम विवाह में परिणत होने के बाद पितृसत्तात्मक ढाँचे में ही ढल जाता है। पति-पत्नी दोनों अपनी-अपनी पारम्परिक भूमिका में आ जाते हैं और कुछ दिनों बाद दोनों की स्थिति को देखकर आप बिलकुल नहीं कह सकते कि इन्होंने प्रेम विवाह किया था या पारम्परिक विवाह। बल्कि प्रेम विवाह में लड़की खुद को 'आदर्श बहू' और 'आज्ञाकारी पत्नी' साबित करने के लिए अक्सर ज्यादा से ज्यादा 'त्याग' करने को तैयार रहती है।  ऐसा इसलिए होता है क्योंकि लड़के-लड़कियाँ पले-बढे तो उसी पितृसत्तात्मक व्यवस्था में होते हैं, जहाँ सबकी भूमिकाएँ पहले से तय होती हैं।

इसलिए अगर हम यह सोचते हैं कि केवल प्रेम विवाह कर लेने भर से पितृसत्ता को कोई चोट पहुँच सकती है, तो यह एक भूल होगी।  हाँ, इतना अवश्य है कि प्रेमी एक स्तर पर तो उससे टक्कर ले लेते हैं, लेकिन अगले ही कदम पर वह अपने दूसरे रूप में उन्हें अपने अंदर समाहित करने को खड़ी मिलती है। हमें यह याद रखना होगा कि पितृसत्ता भी पूँजीवाद की तरह एक बेहद लचीली, परिवर्तनशील और बहुरूपिया व्यवस्था है और इसके साथ लड़ने के लिए इसके हर रूप को जानना और लगातार संघर्ष करना ज़रूरी है।