शनिवार, 8 अप्रैल 2023

संयुक्त हिन्दू परिवार की पैतृक सम्पत्ति में महिलाओं का अधिकार

संयुक्त हिन्दू परिवार में पैतृक सम्पत्ति में महिलाओं का अधिकार

 भारत में संयुक्त हिन्दू परिवार में पैतृक सम्पत्ति में महिलाओं का अधिकार नहीं था। भारतीय परंपरा में किसी संयुक्त परिवार की पैतृक सम्पत्ति मुख्यतः उसके पुरुष सदस्यों के मध्य ही विभाजित होती रही है। इसके अनुसार घर का मुखिया पिता होता हैपरिवा और वही पैतृक संपत्ति का स्वामी होता है। पिता की मृत्यु के बाद यह उसके जीवित रहने पर ही यदि संपत्ति का विभाजन होता हैतो संपत्ति सभी पुत्रों में बांट दी जाती थी। सम्पत्ति के अधिनियम में 2005 के संशोधन के बाद अब ऐसी स्थिति नहीं है। पैतृक सम्पत्ति के इस अधिकार को हासिल करने के लिए महिला आंदोलनों और नारीवादी विचारकों के साथ ही साथ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी महती भूमिका निभायी है। 


 पिछली पोस्ट में हमने हिन्दू स्त्रियों के सम्पत्ति के अधिकार के अंतर्गत स्त्रीधन की परिभाषा, प्रकार और कानूनी अधिकार के विषय में बताया था. इस पोस्ट में सम्पत्ति के अन्य अधिकार "पुत्रिका" एवं "संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में स्त्रियों के उत्तराधिकार" के विषय में बात करेंगे.


इसके पहले हमें यह जानना होगा कि यहाँ हम "हिन्दू" शब्द का प्रयोग क्यों कर रहे हैंकिसी भी देश के क़ानून उसके समाज के नियमों का सार होते हैंसमाज में प्रचलित रीति-रिवाजपरम्पराएँप्रथाएँ आदि ही कालान्तर में क़ानून का रूप धारण कर लेते हैंये रीति-रिवाज और परम्पराएँ, जो किसी देश के विशेष समुदाय या धर्म के विश्वासों पर आधारित होते हैंउन्हें निजी क़ानून कहा जाता हैनिजी क़ानून अथवा पर्सनल लॉ जीवन के जिन क्षेत्रों को प्रभावित करते हैंवे हैं-
-संपत्ति का उत्तराधिकारविरासत का हक
-विवाह तथा विवाह-विच्छेद (तलाक)
-गोद लेने का अधिकार
-पुत्र एवं पुत्री के अभिभावकत्व (गार्जियनशिपका अधिकार
-परित्यक्ता व तलाकशुदा को गुजारा भत्ता मिलने का अधिकार
भारत में तीन प्रमुख धर्मों के निजी क़ानून हैं
इनके अलावा पारसी व पुर्तगाली सिविल कोड हैंसीखजैनबौद्ध व आदिवासी अपने विवाहविवाह-विच्छेदअपनी-अपनी सामाजिक रीतियों के अनुसार करते हैंमगर कानूनन इन्हें हिन्दू माना गया है.
हिंदुओं के धार्मिक कानूनों की जड़ धर्मशास्त्रों तथा विधि-संहिताओं में हैहिंदुओं में संपत्ति का उत्तराधिकार याज्ञवल्क्यस्मृति की प्रसिद्ध टीका मिताक्षरा के दायभाग प्रकरण पर आधारित हैसंपत्ति के उत्तराधिकार के नियम हिन्दू कोड में समाज की प्रथा से बंधे हुए हैं

हिन्दू सम्पत्ति के उत्तराधिकार के बंटवारे का आधार 

भारत में हिन्दुओं के व्यक्तिगत कानून (personal law) अधिकतर स्मृतियों के प्रावधानों पर आधारित हैं। पर्सनल ला के अंतर्गत सम्पत्ति-सम्बन्धी कानून, गोद लेने-देने के कानून और विवाह-सम्बन्धी कानून आते हैं।

सम्पत्ति के बँटवारे और उत्तराधिकार के कानून भी स्मृतियों मुख्यतः मनस्मृति और याज्ञवल्क्यस्मृति पर आधारित हैं। मनु के अनुसार माता पिता के मरने पर सब भाई एकत्रित होकर पैतृक अर्थात्  पितृ-संबंधी संपत्ति को बराबर बांट लें। इसी प्रकार याज्ञवल्क्य ने भी कहा है कि यदि पिता संपत्ति का विभाग करेंतो उसे अपनी इच्छा अनुसार पुत्रों में बांटे अथवा माता पिता की मृत्यु के बाद सभी पुत्र संपत्ति का विभाजन करें। इस प्रकार पिता की संपत्ति पर मात्र पुत्रों का ही अधिकार माना गया पुत्रियों का नहीं।

पुत्रियों को पैतृक संपत्ति में अधिकार तो नहीं मिलालेकिन पुत्रों के लिए मनु और याज्ञवल्क्य स्मृति दोनों में यह निर्देश अवश्य दिया गया है कि यदि बहनों का विवाह संस्कार ना हुआ होतो सभी भाई अपने भाग का चौथा अंश देकर उनका संस्कार करें। मनुस्मृति के अनुसार यदि वे ऐसा नहीं करते हैंतो पतित होते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार के दंड की व्यवस्था नहीं की गयी। अर्थात् भाइयों पर अपनी बहनों के विवाह के लिए धन देने की नैतिक बाध्यता थीना कि वैधानिक।

विभाजन में माता के भाग के संबंध में याज्ञवल्क्यस्मृति की व्यवस्था है कि उसे भी विभाजन के समय पुत्रों के बराबर भाग मिलता हैकिंतु यहाँ भी वही शर्त है कि यदि उन्हें स्त्रीधन ना मिला हो तो उनका उतना भाग कम हो जाएगा।

पैतृक संपत्ति में स्त्रियों के विभाजन का अधिकार ना देने के पीछे प्रायः यह मान्यता थी कि स्त्रियों की परिवार से इतर स्वतंत्र स्थिति नहीं होती।  पति पत्नी की संपत्ति साझी मानी जाती थी। उनका अलग-अलग हिस्सा नहीं होता इसलिए पत्नी का भाग पति के भाग में ही सम्मिलित मान लिया जाता है। मनुस्मृति में एक स्थान पर स्पष्ट लिखा है कि स्त्रीपुत्र तथा दासइन तीनों को (मनु आदि महर्षियों ने) निर्धन ही कहा है। ये जो कुछ उपार्जन करते हैंवह उसका होता है जिसके वे (भार्यापुत्र या दास) हैं। (मनु 8/416)

इसी प्रकार पुत्रियों का विवाह होने के बाद वह अपने पति के घर चली जाती हैं। इसलिए पिता की संपत्ति में उन्हें हिस्सा नहीं दिया जाता। और माता के भरण पोषण का दायित्व तो पुत्र का होता ही है।  अतः उन्हें भी अलग संपत्ति नहीं दी जाती।  संयुक्त परिवार की अन्य स्त्रियों के भरण-पोषण की जिम्मेदारी भी सामूहिक रूप से पूरे परिवार की होती थी। इसलिए इसलिए के लिए संपत्ति की अलग से कोई व्यवस्था नहीं की गई।

मनु और याज्ञवल्क्य ने तो मात्र इतना ही उल्लेख किया कि परिवार के मुखिया की मृत्यु के पश्चात उस परिवार की कुल संपत्ति उस व्यक्ति के पुत्रों में विभाजित हो जाएगी। यह विभाजन उस व्यक्ति के जीवित रहने पर भी हो सकता था,  किंतु याज्ञवल्क्य स्मृति की मिताक्षरा टीका में विश्वरूप ने संयुक्त हिंदू परिवार की संपत्ति के विभाजन का विस्तृत और स्पष्ट विवेचन किया। यही कारण है कि पश्चात्काल में संपत्ति के विभाजन की मिताक्षरा व्यवस्था समाज में अधिक प्रचलित हुई। ब्रिटिशकाल में इसे कानूनी रूप से मान्यता देकर अपना लिया गया और स्वतंत्रता के पश्चात भारत में हिंदुओं के लिए बनाए गए हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 में मिताक्षरा कोई संपत्ति के विभाजन के आधार के रूप में अपनाया गया।

हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम १९५६ के द्वारा पिता की संपत्ति में पुत्र-पुत्रियों को समान अधिकार दे दिया गया था. जिस प्रवर समिति ने यह अधिनियम बनाया था, उसने पुराने क़ानून 'मिताक्षरा' को समाप्त करने की सिफारिश की थी, परन्तु तत्कालीन भारत सरकार ने मिताक्षरा सह-उत्तराधिकार प्रणाली को नहीं हटाया और वह २००५ के संशोधन के बाद भी अस्तित्व में है 

हिन्दू संयुक्त परिवार प्रणाली की व्यवस्था है कि उत्तराधिकार का अधिकार प्रत्यावर्तन द्वारा है, न कि मात्र संतान होने के अधिकार से इस प्रणाली में घर के सभी पुरुष सदस्य जन्म से ही पैतृक  संपत्ति के वारिस होते हैं, परन्तु संपत्ति पर स्वामित्व के लिए विभाजन आवश्यक है। २००५ के संशोधन से अब पुत्री को भी संयुक्त परिवार का सदस्य मानते हुए उन्हें भी पुत्र के समान अधिकार प्राप्त हो गया है, परन्तु सभी स्त्रियों को समान अधिकार मिलने में अभी बहुत अधिक बाधाएं हैं

हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम १९५६ की धारा ४ () के अनुसार जोत की ज़मीन का विभाजन रोकने के लिए अथवा ज़मीन की अधिकतम सीमा-निर्धारण के लिए, पुत्री को ज़मीन की विरासत का अधिकार नहीं दिया गया वे खेत में काम तो कर सकती हैं, पर उसकी मालिक नहीं बन सकतीं विवाहोपरांत पति की व्यक्तिगत संपत्ति में आधा हिस्सा माँगने पर तर्क दिया जाता है कि पैतृक व पति की दोनों संपत्ति का हक औरत को क्यों दिया जाए  इसलिए वे पति की संपत्ति में आधा अधिकार उसकी मृत्यु के बाद ही पा सकती हैं अन्यथा उन्हें भरण-पोषण का अधिकार है मात्र है

विशेष विवाह अधिनियम १९५४ के अंतर्गत विवाह करने के बाद भी पुरुष उत्तराधिकार संबंधी नियमों के अनुसार पुरानी धार्मिक प्रथाओं द्वारा बनी प्रणाली से उत्तराधिकार तय कर सकता है उत्तराधिकार अधिनियम की धारा ३० के अंतर्गत वह वसीयत द्वारा अपनी संपत्ति किसी के भी नाम लिख सकता है

हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा २३ के अधीन यदि किसी स्त्री को एक मकान विरासत में मिला है और उसमें उसके पैतृक परिवार के सदस्य रह रहे हैं, तो उसे उस मकान में बँटवारा करने का कोई अधिकार नहीं है और वह उसमें तभी रह सकती है, जबकि वह अविवाहित हो या तलाकशुदा इसी प्रकार यदि कोई निस्संतान विधवा हिन्दू स्त्री बिना वसीयत किये मृत्यु को प्राप्त होती है, तो उसकी संपत्ति उसके पति के वारिसों को सौंप दी जायेगी अपवादस्वरूप अगर उसे कोई संपत्ति माता-पिता से मिली हो तो उपर्युक्त परिस्थिति में वह उसके पिता के वारिसों को मिलेगी. इस प्रकार अनेक अधिनियम २००५ के संशोधन द्वारा पुत्री के पैतृक संपत्ति में उत्तराधिकार को निष्प्रभावी कर देते हैं 

भारत में संपत्ति के उत्तराधिकार के सम्बन्ध में विभिन्न स्मृतियों में भिन्न-भिन्न प्रावधान किये गए थे, किन्तु अधिक लोकप्रिय होने के कारण मनुस्मृति तथा याज्ञवल्क्यस्मृति की विज्ञानेश्वर कृत टीका 'मिताक्षरा' अधिक प्रचलित हुयी. शताब्दियों से प्रचलित इन परम्पराओं एवं नियमों को अंग्रेजों ने अपने शासनकाल में न छेड़ना ही उचित समझा तथा इन्हें ज्यों का त्यों अपना लिया. इस प्रकार हिंदुओं के व्यक्तिगत क़ानून के आधारस्वरूप ब्रिटिशकाल में भी मिताक्षरा को मान्यता मिल गयी. हालांकि देश के पूर्वोत्तर भागों और बंगाल में दायभाग अधिक प्रचलित व्यवस्था थी

हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 से पूर्व की स्थिति

इस अधिनियम के पूर्व हिन्दू अपनी शास्त्रीय और परम्परागत विधियों से तो शासित होते ही थे,  अपितु अलग-अलग राज्यों और जातियों के लिए भी भिन्न-भिन्न क़ानून थे । उत्तराधिकार-संबंधी क़ानून भी भिन्न-भिन्न शास्त्रीय सिद्धांतों पर आधारित थे, जैसे बंगाल और उसके आसपास दायभाग; बंबई, कोंकण, और गुजरात में मयूख; केरल में मरुमकट्टयम या नम्बूदरी और शेष भारत में मिताक्षरा उत्तराधिकार कानूनों की अलग-अलग व्यवस्था ने संपत्ति के अधिकार को अत्यधिक जटिल बना दिया संयुक्त परिवार में स्त्री की स्थिति इस प्रकार की थी कि उसे जीवन-यापन के लिए भरण-पोषण प्राप्त करने के अधिकार तो थे, पर संपत्ति पर स्वामित्व का अधिकार नहीं था मिताक्षरा व्यवस्था के अंतर्गत स्त्रियाँ संयुक्त हिन्दू परिवार की संपत्ति में विभाजन की अधिकारिणी नहीं हो सकतीं थीं
मिताक्षरा सिद्धांत के अनुसार संयुक्त परिवार में किसी पुरुष सदस्य के जन्म या मृत्यु से संपत्ति का विभाजन या विलय होता है अर्थात यदि कोई नया सदस्य जन्म लेगा, तो संपत्ति में एक बराबर हिस्सा उसका होगा और यदि किसी सदस्य की मृत्यु होती है, तो उसका हिस्सा बराबर-बराबर उसके उत्तराधिकारियों में बँट जायेगा [i]

मिताक्षरा क़ानून में वसीयत के द्वारा भी उत्तराधिकार की व्यवस्था है, लेकिन उस संपत्ति के लिए , जो किसी व्यक्ति के द्वारा व्यक्तिगत रूप से अर्जित की गयी है इस प्रकार की संपत्ति में स्त्री सदस्य को भी उत्तराधिकार दिया गया है. मिताक्षरा व्यवस्था की बंगाल, बनारस और मिथिला उपप्रणालियों ने केवल पाँच महिला सम्बन्धियों को उत्तराधिकारी माना था- विधवा, पुत्री, माता, दादी और परदादी। मद्रास उपप्रणाली ने कई अन्य महिला सम्बन्धियों को भी उत्तराधिकार दिया- जैसे पुत्र की पुत्री, पुत्री की पुत्री और बहन, इन सभी संबंधों को उतराधिकार के हिन्दू क़ानून अधिनियम १९२९ में माना गया बाद में बाम्बे स्कूल, जिसे औरतों के लिए सर्वाधिक उदार माना जाता था अन्य कई महिला सम्बन्धियों के लिए संपत्ति में उत्तराधिकार प्रदान किया

पुत्रिका सिद्धांत

पुत्रिका उस पुत्री को कहा जाता है, जिसका भाई न होने पर पिता उसे अपने पुत्र के समान मान लेता है । पुत्रिका का पुत्र, पुत्रिका के पिता की संपत्ति का उत्तराधिकारी होता है और उसकी श्राद्ध-क्रिया भी वही करता है। मनुस्मृति में यह प्रावधान है कि ऐसी पुत्रिका का वाग्दान करते समय पिता अपने जामाता से ऐसा वचन लेगा कि इस पुत्री का होने वाला पुत्र उसका श्राद्ध करेगा.[ii] इस प्रकार पुत्री पिता की संपत्ति तभी प्राप्त कर सकती थी, जबकि उसका कोई भाई ना हो और उसके पिता ने उसे ही पुत्र मान लिया हो ध्यातव्य हो कि पिता की संपत्ति इस प्रकार पुत्रिका को न मिलकर उसके पुत्र को ही प्राप्त होती थी अर्थात वह अपने पिता की संपत्ति की स्वामिनी नहीं, अपितु संरक्षिका की भाँति होती थी । मनु के अनुसार पुत्रिका के बिना पुत्र उत्पन्न किये ही मृत्यु को प्राप्त करने पर उसका पति अपने श्वसुर की संपत्ति ग्रहण करता है[iii] वर्तमान काल में भी ये परम्परा चली आ रही है, जिसे पूर्वी उत्तर प्रदेश में नेवासा प्राप्त होना कहते हैं. जब किसी लड़के को नेवासा मिलता है तो वह अपने नाना की श्राद्ध क्रिया करता है और उसकी संपत्ति का उत्तराधिकारी होता है

ब्रिटिशकाल में महिलाओं का संपत्ति में अधिकार

यद्यपि ब्रिटिशकाल में, पूरा देश राजनीतिक और सामाजिक रूप से एकीकृत हो गया था, ब्रिटिश सरकार ने हिंदुओं एवं अन्य समुदायों के निजी धर्मों को नहीं छेड़ा । इस काल में चल रहे सुधार आन्दोलनों ने समाज में स्त्री की स्थिति के विषय में कई प्रश्न उठाये, जिसके परिणामस्वरूप हिंदुओं का उत्तराधिकार क़ानून अधिनियम 1929 पारित हुआ इस अधिनियम के द्वारा महिला उत्तराधिकारियों की श्रेणी में तीन संबंधों को जोड़ा गया- पुत्र की पुत्री, पुत्री की पुत्री और बहन दूसरा एक महत्त्वपूर्ण अधिनियम हिन्दू महिलाओं का संपत्ति का उत्तराधिकार अधिनियम 1937 मील का पत्थर साबित हुआ इस अधिनियम ने न सिर्फ़ हिन्दू कानून की सभी शाखाओं को प्रभावित किया, बल्कि संपत्ति के उत्तराधिकार, विभाजन, संपत्ति से वंचित करना और गोद लेने के अधिकार आदि में भी परिवर्तन किया.[ix]
1937 के अधिनियम ने विधवाओं का अपने पुत्र के समान अधिकार सुनिश्चित किया लेकिन विधवा संयुक्त परिवार की सदस्य होने के बाद भी संयुक्त संपत्ति के विभाजन की सह-उत्तराधिकारिणी नहीं हो सकती थी। उसे मात्र मृतक की संपत्ति पर सीमित अधिकार प्राप्त हो सकता था । एक पुत्री को किसी प्रकार का पैतृक उत्तराधिकार नहीं प्राप्त था । संपत्ति के उत्तराधिकार में कई सुधारों और परिवर्तनों के बावजूद स्त्रियों के प्रति भेदभावपूर्ण रवैये में कोई परिवर्तन नहीं आया था
महिलाओं के सम्पत्ति के अधिकार



भारतीय संविधान के प्रावधान

संविधान के निर्माताओं ने समाज में महिलाओं की भेदभावपूर्ण स्थिति की ओर ध्यान दिया और उसे दूर करने के उपाय किये संविधान के अनुच्छेद 14, 15[2] और 3 और 16 महिलाओं के प्रति समाज के भेदभावपूर्ण रवैये को ना सिर्फ़ रोकते हैं, बल्कि राज्य को महिलाओं के पक्ष में उचित क़ानून बनाने की परिस्थितियों का निर्माण करते हैं । ये प्रावधान संविधान द्वारा प्रत्याभूत मूलभूत अधिकारों के अंतर्गत आते हैं। इसी प्रकार संविधान के भाग चार में उल्लिखित नीति-निर्देशक तत्व राज्य को निर्देश देते हैं कि वह प्रत्येक क्षेत्र में स्त्री और पुरुष के बीच भेदभाव को समाप्त करने की दिशा तथा समानता स्थापित करने के लिए उचित कदम उठाये

हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1955

1956 के हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (Hindu Succession Act) इस अधिनियम में याज्ञवल्क्यस्मृति की मिताक्षरा धारा को हिन्दू संयुक्त परिवार की सम्पत्ति के विभाजन और उत्तराधिकार के लिए अपनाया गया। इस अधिनियम के अनुसार, केवल पुरुषों को कानूनी उत्तराधिकारी के रूप में मान्यता दी गयी। एक अविभाजित हिंदू परिवार में, कई पीढ़ियों के संयुक्त रूप से कई कानूनी उत्तराधिकारी हो सकते हैं। उदाहरण के लिए यदि एक संयुक्त परिवार में एक पिता और उसके दो पुत्र हैं, तो सम्पत्ति का विभाजन उन तीनों के मध्य हो सकता था। यह विभाजन कभी भी हो सकता था, चाहे सम्पत्ति का प्रथम उत्तराधिकारी जीवित हो या मृत। 

अधिनियम में हिंदू, बौद्ध, सिख, जैन, आर्य समाज और ब्रह्म समाज के अनुयायियों को हिंदू माना गया। 

इस अधिनियम ने हिंदुओं के निजी क़ानून में व्यापक परिवर्तन करते हुए औरतों को संपत्ति का अधिकार प्रदान किया । इस क़ानून के अनुसार पिता की संपत्ति (न कि संयुक्त परिवार की पैतृक सम्पत्ति में) पुत्री को भी बराबर का हिस्सा प्रदान किया गया । यदि कोई हिन्दू पुरुष बिना वसीयत किये मृत्यु को प्राप्त होता है, तो उसकी संपत्ति में पुत्री को भी वैसा ही अधिकार प्राप्त होगा, जैसा कि पुत्रों को. हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम के भाग 8 से 13 तक में इस सम्बन्ध में प्रावधान किये गए हैं । सेक्शन 15 और 16 हिन्दू महिला की निर्वासीयाती संपत्ति के उत्तराधिकार के विषय में अलग से प्रावधान करते हैं  इन दोनों प्रावधानों में विवाहित हिन्दू स्त्री का स्थायी निवास उसके पति के घर को माना गया है । सामाजिक न्याय की मांग यही है कि औरतों को न सिर्फ़ आर्थिक क्षेत्र में, बल्कि सामाजिक क्षेत्र में भी समान ढंग से देखा जाना चाहिए, समान अधिकार प्राप्त होने चाहिए

हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की बाद के वर्षों में काफी आलोचना हुयी। अनेक विधि विशेषज्ञों के अतिरिक्त महिला आंदोलनों और स्त्रीवादी चिंतकों के सम्पत्ति के विभाजन और उत्तराधिकार की मिताक्षरा व्यवस्था की आलोचना की। अगले कुछ लेखों में इस अधिनियम के विरोध और उसकी पृष्ठभूमि में 2005 के संशोधन की बात की जाएगी।



[i]    Manish Garg and Neha Nagar, Can women be Karta? Legal service india.com
[ii]   मनुस्मृति, 9/127
[iii]   मनुस्मृति, 9/135
[iv]  काणे, धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग दो, पृष्ठ संख्या 938.
[v]   मनुस्मृति, 9/194
[vi]  मनुस्मृति, 9/195 
[vii]  काणे, धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग दो, पृष्ठ 939
[viii] याज्ञवल्क्यस्मृति2/143-144
[ix]  Manisha Garg and Neha nagar, Can Women be Karta?. LegalServiceIndia.com
x

सोमवार, 20 मार्च 2023

हिन्दू स्त्रियों के सम्पत्ति -सम्बन्धी अधिकार (1.) स्त्रीधन क्या है?

प्राचीनकाल की अन्य सभ्यताओं की तरह ही भारतीय समाज भी पुरुषप्रधान था, जिसमें सम्पत्ति के उत्तराधिकार की पितृवंशीय व्यवस्था थी। इसके अंतर्गत किसी भी वंश या परिवार की संयुक्त सम्पत्ति (जो कि प्रायः कृषि भूमि के रूप में होती थी) पितामह से पिता को और उससे पुत्रों को प्राप्त होती थी। आज स्थिति बदल चुकी है। बेटियों को भी बेटों के ही समान पैतृक सम्पत्ति का उत्तराधिकार दिलाने वाला संशोधन लागू हो चुका है। लेकिन अब भी अधिकाँश महिलाओं को अपने आर्थिक अधिकारों के विषय में ज्ञान नहीं है। यह लेख स्त्रियों को उनके अधिकारों के विषय मेन जागरुक करने का एक प्रयास है। 

स्त्रीधन क्या है? स्त्रीधन किसे कहते हैं?

स्त्रीधन उस धन को कहते हैं, जो स्त्रियों को उपहारस्वरूप अपने घरवालों, रिश्तेदारों और दोस्तों से प्राप्त होती हैं। हिंदू मैरिज एक्ट के अनुसार, स्त्रीधन वे चीजें हैं, जो महिला को उसके जीवन में मिलती हैं। इसमें सभी प्रकार की चल-अचल सम्पत्ति जैसे नकद, गहने, बचतें (एफडी आदि), इनवेस्टमेंट, उपहार में मिली प्रॉपर्टी आदि शामिल हैं। माता-पिता, भाई-बहन द्वारा शादी से पहले और शादी में मिले उपहारों के अलावा सास-ससुर द्वारा पहनाए गए गहने और उपहार भी स्त्रीधन हैं। महिलाओं को शादी से पहले, शादी के समय, बच्चे के जन्म के समय और विधवा होने के दौरान जो भी चीजें उपहारस्वरूप मिलती हैं, वे सभी स्त्रीधन के अंतर्गत गिनी जाती हैं।

स्त्रीधन दहेज़ से किस प्रकार भिन्न है?

स्त्रीधन प्राचीनकाल से ही स्त्रियों का प्रमुख आर्थिक अधिकार रहा है। बाद में इसके नाम पर वर पक्ष वाले वधूपक्ष वालों से धन की माँग करने लगे, जिसने कालान्तर में दहेज़ का रूप ले लिया। जबकि स्त्रीधन दहेज़ नहीं है । यह विवाह के समय वधू को उसके बन्धु-बान्धवों, सहेलियों, माता-पिता और रिश्तेदारों द्वारा स्वेच्छा से दिया गया उपहार और नकदी आदि है । इसे कानूनन वैधता प्राप्त है और इस पर स्त्रियों का स्वामित्व होता है। देखा जाता है कि दहेज़ भले ही दिया जाय वधू के नाम से लेकिन उस पर ससुराल वाले अधिकार स्थापित कर लेते हैं, जबकि स्त्रीधन पूरी तरह स्त्रियों का अधिकार है।

वेदों में स्त्रीधन का उल्लेख

स्त्रीधन की परम्परा प्राचीन काल से ही चली आ रही है। ऋग्वेद के दसवें मंडल में विवाह-सम्बन्धी दो मंत्रों में वधू के साथ वर के घर के लिए उपहार और पशु आदि भेजने का वर्णन है। इसका भावार्थ इस प्रकार है "सूर्य के पतिगृह-गमन काल में सूर्य ने  पुत्री के प्रति स्नेहरूप जो धन स्रवित किया, उसे पहले ही भेज दिया था। मघा नक्षत्र में विदाई के समय दी गई गौवों को हाँका गया तथा अर्जुनी अर्थात पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में कन्या को पति के गृह भेजा गया।" सायण ने इस मंत्र में "वहतुः" को गायों एवं अन्य पदार्थों के, जो विवाहित होने वाली कन्या को प्रसन्न करने के लिए दिए जाते हैं, के अर्थ में लिया है किंतु लेन्मेन ने इसे विवाहरथ के अर्थ में लिया है। काणे ने सायण को ही ठीक माना है।  इससे यह प्रतीत होता है कि प्राचीन काल से ही विवाह के समय कन्या को कुछ वस्तुएँ उपहार स्वरूप दी जाती थी जिन पर स्त्रियों का ही नियंत्रण होता था। धीरे-धीरे कालांतर में स्मृतियों आदि की व्यवस्थाओं के अनुसार उन पर स्त्रियों का ही पूर्णतः अधिकार होता गया।

 स्मृतियों के अनुसार स्त्रीधन

स्मृतियों में स्त्रीधन की कोई परिभाषा नहीं दी गयी है, मात्र उनमें सम्मिलित सम्पत्तियों की गणना की गयी है| स्त्रीधन का शाब्दिक अर्थ है "स्त्री की संपत्ति", किंतु प्राचीन स्मृतियों ने इसे सम्पत्ति के कुछ विशिष्ट प्रकारों तक सीमित कर दिया, जो स्त्रियों को विशिष्ट अवसरों पर प्रदान किए जाते थे और मुख्यतः उसके उपयोग की वस्तु होते थे। धीरे-धीरे यह प्रकार, विस्तार एवं मूल्य में बढ़ते गए। स्त्रीधन की एक विशेषता यह रही है कि गौतम के काल से आज तक यह प्रथमतः स्त्रियों को ही प्राप्त होता रहा है।

मनुस्मृति में स्त्रीधन का उल्लेख  

मनुस्मृति में निम्नलिखित वस्तुओं और धन को सम्मिलित किया गया है- 

1. विवाह काल में अग्नि साक्ष्य के समय पिता आदि के द्वारा दिया गया

2. पिता के घर से पति के घर लायी जाती हुई कन्या के लिए दिया गया

3. प्रेम सम्बन्धी किसी शुभ अवसर पर पति आदि के द्वारा दिया गया

4. भाई

5. माता और

6. पिता

- के द्वारा विभिन्न अवसरों पर दिया 6 प्रकार का धन स्त्रीधन कहलाता है। इस श्लोक से अगले श्लोक में मनु ने उपर्युक्त छह प्रकारों में एक प्रकार "अन्वाधेय" और जोड़ दिया जिसका अर्थ है "विवाह के बाद पति या पितृकुल में मिले हुए उपहार या धन।

याज्ञवल्क्य स्मृति में उपर्युक्त 6 प्रकारों के अतिरिक्त एक अन्य प्रकार "आधिवेदनिक" का भी उल्लेख किया गया है। आधिवेदनिक का अर्थ है “दूसरा विवाह करते समय पति द्वारा पहली स्त्री के संतोष के लिए प्रदत्त धन।“ याज्ञवल्क्य के अनुसार ‘पिता, माता, पति, भाई से प्रायः वैवाहिक अग्नि के समक्ष और अन्य पत्नी लाते समय आदि जो उपहार औरत को मिलता है, वह उसका स्त्रीधन है।’ इसी ‘आदि’ शब्द को लेकर याज्ञवल्क्य की स्मृति पर टीका लिखने वाले विज्ञानेश्वर ने स्त्रीधन की सूची और भी बढ़ा दी है।

मिताक्षरा के अनुसार स्त्रीधन की परिभाषा

मिताक्षरा के प्रणेता विज्ञानेश्वर ने याज्ञवल्क्य की परिभाषा लेकर स्त्रीधन की संख्या बढ़ा दी है। विज्ञानेश्वर ने ‘आदि’ शब्द को लेकर निम्नलिखित सम्पत्ति को भी स्त्रीधन कहा है-

1. दाय से मिली सम्पत्ति

3. विभाजन से मिली सम्पत्ति

2. खरीद कर ली गई सम्पत्ति

4. प्रतिकूल कब्जा से मिली सम्पत्ति

5. अन्य मिली हुई सम्पत्ति

 विज्ञानेश्वर आगे अपनी व्याख्या में कहते हैं कि स्त्रीधन शब्द का प्रयोग शाब्दिक अर्थ में किया है न कि क्रियात्मक अर्थ में अतएव मिताक्षरा के अनुसार जो भी सम्पत्ति औरत के अधिकार में है, वह उसकी स्त्रीधन सम्पत्ति है। आधुनिक काल में न्यायालयों ने स्मृतियों के टीकाकारों द्वारा स्थापित मान्यताओं को प्रामाणिकता दी। इस हेतु याज्ञवल्क्यस्मृति की टीका मिताक्षरा की व्याख्या को अपनाया गया, जिसमें स्त्रीधन की परिभाषा अत्यधिक विस्तृत प्रकार से दी गयी है। शिवशंकर बनाम देवी सहाय, 30IA 202 में प्रिवी काउन्सिल ने अभिनिर्धारित किया था कि यदि कोई स्त्री किसी सम्पत्ति को दाय के बंटवारे में प्राप्त करती है, तो वह स्त्रीधन की सम्पत्ति नहीं होगी।

स्त्रीधन के अंतर्गत आने वाली वस्तुएँ एवं धन

वर्तमान में स्मृतियों और टीकाओं में उल्लिखित प्रावधानों और लोक परम्पराओं के आधार पर स्त्रीधन में निम्नलिखित वस्तुएँ सम्मिलित की जाती हैं.-

1.       विवाह में फेरों के समय दिए गये उपहार नकदी आदि

2.       पीहर से ससुराल जाते समय वधू को मिले उपहार

3.       आशीर्वाद और प्यार स्वरूप वधू को मिले उपहार

4.       सास-ससुर के प्रेमपूर्वक वधू को दिए गये उपहार

5.       वधू के बड़ों के पैर छूने और मुँह दिखाई की रस्म में मिले नकदी और उपहार

6.       वधू के अपने माता-पिता, भाई-बहन से मिले उपहार नकदी आदि

7.       वधू को शादी के समय वरपक्ष की ओर से मिले उपहार

8.       वर द्वारा वधू को प्रदत्त उपहार

9.       वधू के माता-पिता के रिश्तेदारों के दिये गये उपहार, नकदी (मामा, चाचा, मौसी आदि के द्वारा)

10.    विवाह के समय यदि वधू पक्ष द्वारा कुछ उपहार जैसे फर्नीचर, पलंग, टीवी आदि वधू के निमित्त दिया जाता है

11.    वधू की व्यक्तिगत बचत, खारीदारी, प्रॉपर्टी यदि उसके नाम हो, तो उसकी आमदनी भी स्त्रीधन है।

 स्त्रीधन पर किसका स्वामित्व होता है?

प्राचीनकाल में स्त्रीधन पर स्वामित्व स्त्री का ही होता था, चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित, वह उसका मनोनुकूल उपयोग कर सकती थी। काणे ने कात्यायन स्मृति के आधार पर स्त्री के स्त्रीधन पर स्वामित्व को इस प्रकार वर्णित किया है “अविवाहित स्त्री सभी प्रकार के स्त्रीधन का उपभोग अपनी इच्छा अनुसार कर सकती थी। विधवा स्त्री पति द्वारा प्रदत्त अचल संपत्ति को छोड़कर सभी प्रकार के स्त्रीधन का लेन-देन कर सकती है, किंतु सधवा स्त्री केवल सौदायिक ( पति को छोड़कर अन्य लोगों से प्राप्त दान) को ही मनोनुकूल स्वेच्छा से व्यय कर सकती है” स्त्रीधन को सामान्य अवस्था में कोई अन्य नहीं ले सकता था, किंतु कुछ विशेष परिस्थितियों में पति स्त्रीधन को ले सकता था या। याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार दुर्भिक्ष के समय, धर्मकार्य में, रोग में और बंदी होने पर लिए गए स्त्रीधन को पति स्त्री को पुनः देने का भागी नहीं होता। मनु कन्या-विक्रय की भर्त्सना के प्रसंग में स्त्रीधन को लेने की निंदा करते हैं। वे कहते हैं कि जो बांधवगण स्त्री के धन को लालच वर्ष ले लेते हैं वे पापी अधोगति को प्राप्त होते हैं।

आधुनिककाल में न्यायालयों ने विभिन्न वादों में यह निर्धारित किया है कि स्त्रीधन पर स्वामित्व स्त्री का ही होता है। राजम्मा बनाम बरदराजनुलू [ए० आई० आर० 1957, मद्रास 198 ] के मामले में कहा गया है कि हिन्दू स्त्री को विवाह के पहले और विवाह के समय मिले उपहार उसके स्त्रीधन होते हैं। प्रतिभारानी बनाम सूरज कुमार, [ ए० आई० आर० 1985 सु० को० 628 ] के वाद में यह निर्धारित किया गया है कि जो भी सम्पत्ति पत्नी को उपहार में प्राप्त होती है, उस पर उसका एक मात्र अधिकार होता है।

स्त्रीधन की सुरक्षा करने वाले कानून                                      

आधुनिक काल में स्त्री धन की सुरक्षा करने वाला मुख्य कानून हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 का सेशन 14 है जिसे हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के सेक्शन 27 के साथ पढ़ा जाना चाहिए। इसके अनुसार एक हिंदू महिला की संपत्ति पर संपूर्ण स्वामित्व उसका ही होगा जिसमें स्त्रीधन भी सम्मिलित है। सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिभा रानी बनाम सूरज कुमार 1985(2)scc 370 के वाद में स्त्रीधन की अवधारणा को स्पष्ट कर दिया। एक हिंदू विवाहित स्त्री स्त्रीधन की संपूर्ण स्वामिनी होती है और उसका जैसे चाहे उपयोग कर सकती है, चाहे वह अपने पति और ससुराल वालों के अधीन हो। यदि ससुराल वाले उसके इस धन को आवश्यकता पड़ने पर उससे लेते हैं तो वह मात्र न्यासी समझे जाएंगे और जब वह मांगे तो उसे वापस कर देंगे।

इसी प्रकार कुछ अन्य कानून भी है जो, स्त्रीधन की सुरक्षा करते हैं। दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961 के अनुसार दहेज के लिए विज्ञापन देना पति या ससुराल वालों का दहेज में मिली स्त्रीधन को हड़पना एक अपराध करार दिया गया है। इस अपराध में 2 से 5 वर्ष तक की कारावास और 10 से ₹15000 तक के जुर्माने का प्रावधान है। इसी प्रकार भारतीय दंड संहिता की धारा 498a के अनुसार मानसिक क्रूरता के अंतर्गत ससुराल पक्ष वालों के द्वारा स्त्री धन हड़पना या वधु को अधिक धन लाने के लिए प्रताड़ित करना सम्मिलित है। यदि ससुराल वाले स्त्री धन को हड़पने हैं तो भारतीय दंड संहिता की धारा 405 और 406 के अंतर्गत दंड के भागी होते हैं।  घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 की धारा 12 महिलाओं को उन मामलों में स्त्रीधन का अधिकार प्रदान करती है जहाँ महिला घरेलू हिंसा का शिकार होती है स्त्रीधन की वसूली के लिए इस कानून के प्रावधानों को आसानी से लागू किया जा सकता है।

महिला अपने स्त्रीधन को कैसे प्राप्त कर सकती है?

स्त्रीधन पर स्त्रियों का स्वामित्व सुनिश्चित करने वाले तथा उसे सुरक्षित करने वाले उपर्युक्त कानूनों की सहायता से स्त्रियाँ अपने स्त्रीधन को सुरक्षित रख सकती हैं तथा उस पर अपना अधिकार माँग सकती हैं ।  

नोट- टिप्पणी में बताएँ कि आपको लेख कैसा लगा? यदि कोई आशंका या प्रश्न हो, तो वह भी पूछ सकते हैं

 






FAQs

1. हिन्दू स्त्रियों के आर्थिक अधिकार क्या हैं? 

2. स्त्रीधन किसे कहते हैं?

3. स्त्रीधन के अंतर्गत कौन-कौन सी चीज़ें आती हैं?

4. स्त्रीधन से सम्बन्धित कौन से कानून हैं?

5. स्त्रीधन पर किसका अधिकार होता है?

6. क्या स्त्रीधन प्राप्त करने के लिए न्यायालय में मुकदमा किया जा सकता है?

7. स्त्रीधन पर किसका कानूनी अधिकार है? 

8. महिलाओं के गहनों पर किसका अधिकार होता है?

9. क्या शादी में मिले गिफ्ट स्त्रीधन में आते हैं? 

10. स्त्रीधन इन हिन्दू लॉ? 

11. स्मृतियों में स्त्रीधन ?

12, प्राचीन भारत में महिलाओं के आर्थिक अधिकार क्या थे?

13. हिन्दू महिलाओं के सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार क्या हैं?

14. What is Stridhan in Hindu Law

15. stridhan kise kahate hain?


शुक्रवार, 10 मार्च 2023

प्राचीन भारत में स्त्रियों की स्थिति के सम्बन्ध में विभिन्न दृष्टिकोण


(प्रस्तुत लेख मेरे शोध-कार्य "मनुस्मृति एवं याज्ञवल्क्यस्मृति के नारी-संबंधी प्रावधानों का नारी-सशक्तीकरण पर प्रभाव" का अंश है. इसलिए अधूरा भी लग सकता है और हो सकता है कि कहीं और भी पढ़ा जा चुका है. वैसे सन्दर्भ-ग्रंथों के नाम भी दे दिए गए हैं)


प्राचीन भारत में स्त्रियों की दशा के विषय में इतिहासकारों के अलग-अलग दृष्टिकोण हैं. कुछ विचारक यह मानते हैं कि प्राचीनकाल में स्त्रियों की स्थिति बहुत अच्छी थी और उन्हें पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त थे. वहीं कुछ विचारक इस बात का विरोध करते हैं. उनका कहना है कि प्राचीनकाल मुख्यतः वैदिककाल में स्त्रियों की स्थिति को कुछ अधिक ही बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जाता है, जबकि सत्य यह है कि प्राचीन भारतीय समाज भी अन्य अनेक प्राचीन सभ्यताओं के समान ही पितृसत्तात्मक था. 

मुख्य रूप से इन ऐतिहासिक दृष्टिकोणों को चार श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है -
- राष्ट्रवादी दृष्टिकोण
- वामपंथी दृष्टिकोण
- नारीवादी दृष्टिकोण
- दलित लेखकों का दृष्टिकोण

जहाँ राष्ट्रवादी विचारक यह मानते हैं कि वैदिक-युग में भारत में नारी को उच्च-स्थिति प्राप्त थी. नारी की स्थिति में विभिन्न बाह्य कारणों से ह्रास हुआ. परिवर्तित परिस्थितियों के कारण ही नारी पर विभिन्न बन्धन लगा दिये गये जो कि उस युग में अपरिहार्य थे. इसी प्रकार वर्ण-व्यवस्था को भी कर्म पर आधारित और बाद के काल की अपेक्षा लचीला बताते हुये ये विचारक उसका बचाव करते हैं. वामपंथी विचारक राष्ट्रवादी विद्वानों के इन विचारों से सर्वथा असहमत हैं. उनके अनुसार स्त्रियों तथा शूद्रों की अधीन स्थिति तत्कालीन उच्च-वर्ग का षड्‌यंत्र है, जिससे वे वर्ग-संघर्ष को दबा सकें. उच्च-वर्ग अर्थात्‌ मुख्यतः ब्राह्मण (क्योंकि समाज के लिये नियम बनाने का कार्य ब्राह्मणों का ही था) शूद्रों को अस्पृश्यता के नाम पर तथा नारियों को परिवारवाद के नाम पर संगठित नहीं होने देना चाहते थे.

नारीवादी विचारक भी राष्ट्रवादी दृष्टिकोण का विरोध करते हैं. उनके अनुसार तत्कालीन सामाजिक ढाँचा पितृसत्तात्मक था और धर्मगुरुओं ने जानबूझकर नारी की अधीनता की स्थिति को बनाये रखा. ये विचारक यह भी नहीं मानते कि वैदिक युग में स्त्रियों की बहुत अच्छी थी, हाँ स्मृतिकाल से अच्छी थी, इस बात पर सहमत हैं. दलित विचारक स्मृतियों और विशेषतः मनुस्मृति के कटु आलोचक हैं. वे यह मानते हैं कि शूद्रों की युगों-युगों की दासता इन्हीं स्मृतियों के विविध प्रावधानों का परिणाम है. वे मनुस्मृति के प्रथम अध्याय के ३१वें[i] और ९१वें[ii] श्लोक का मुख्यतः विरोध करते हैं जिनमें क्रमशः शूद्रों की ब्रह्मा की जंघा से उत्पत्ति तथा सभी वर्णों की सेवा शूद्रों का कर्त्तव्य बताया गया है.

प्राचीन भारत में नारी की स्थिति के विषय में सबसे अधिक विस्तार से वर्णन राष्ट्रवादी विचारक ए.एस. अल्टेकर ने अपनी पुस्तक में किया है. उन्होंने नारी की शिक्षा, विेवाह तथा विवाह-विच्छेद, गृहस्थ जीवन, विधवा की स्थिति, नारी का सार्वजनिक जीवन, धार्मिक जीवन, सम्पत्ति के अधिकार,नारी का पहनावा और रहन-सहन, नारी के प्रति सामान्य दृष्टिकोण आदि पर प्रकाश डाला है. अल्टेकरके अनुसार प्राचीन भारत में वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति समाज और परिवार में उच्च थी, परन्तु पश्चातवर्ती काल में कई कारणों से उसकी स्थिति में ह्रास होता गया. परिवार के भीतर नारी की स्थिति में अवनति का प्रमुख कारण अल्टेकर अनार्य स्त्रियों का प्रवेश मानते हैं. वे नारी को संपत्ति का अधिकार न देने, नारी को शासन के पदों से दूर रखने, आर्यों द्वारा पुत्रोत्पत्ति की कामना करने आदि के पीछे के कारणों को जानने का प्रयास करते हैं तथा उन्होंने कई बातों का स्पष्टीकरण भी दिया है. उदाहरण के लिये उनके अनुसार महिलाओं को सम्पत्ति का अधिकार न देने का कारण यह है कि उनमें लड़ाकू क्षमता का अभाव होता है, जो कि सम्पत्ति की रक्षा के लिये आवश्यक होता है. इस प्रकारअल्टेकर ने उन अनेक बातों में भारतीय संस्कृति का पक्ष लिया है, जिसके लिये हमारी संस्कृति की आलोचना की जाती है. उन्होंने अपनी पुस्तक के प्रथम संस्करण की भूमिका में स्वयं यह स्वीकार किया है कि निष्पक्ष रहने के प्रयासों के पश्चात्‌ भी वे कहीं-कहीं प्राचीन संस्कृति के पक्ष में हो गये हैं.* प्रसिद्ध राष्ट्रवादी इतिहासकार आर. सी. दत्त ने भी अल्तेकर के दृष्टिकोण का समर्थन किया है उनकेअनुसार, "महिलाओं को पूरी तरह अलग-अलग रखना और उन पर पाबन्दियाँ लगाना हिन्दू परम्परानहीं थी. मुसलमानों के आने तक यह बातें बिल्कुल अजनबी थीं... . महिलाओं को ऐसी श्रेष्ठ स्थिति हिन्दुओं के अलावा और किसी प्राचीन राष्ट्र में नहीं दी गयी थी."[iii]शकुन्तला राव शास्त्री ने अपनी पुस्तक ‘वूमेन इन सेक्रेड लॉज़’ में इसी प्रकार के निष्कर्ष प्रस्तुत किये हैं.

आधुनिक काल के प्रमुख नारीवादी इतिहासकारों तथा विचारकों ने अल्टेकर और शास्त्री के उपर्युक्त स्पष्टीकरणों की आलोचना की है. आर.सी. दत्त के विरोध में प्रसिद्ध नारीवादी विचारक डा. उमाचक्रवर्ती कहती हैं, "... ... मनु तथा अन्य कानून-निर्माताओं ने लड़कियों की कम उम्र में ही शादी की हिमायत की थी. सातवीं सदी में हर्षवर्धन के प्राम्भिक काल से संबंधित विवरणों में सती-प्रथा उच्चजाति की महिलाओं के साथ साफ़ जुड़ी देखी जा सकती है. महिलाओं का अधीनीकरण सुनिश्चित करनेवाली संस्थाओं का ढाँचा अपने मूलरूप में मुस्लिम धर्म के उदय से भी काफ़ी पहले अस्तित्व में आ चुका था. इस्लाम के अनुयायियों का आना तो इन तमाम उत्पीड़क कुरीतियों को वैधता देने के लिये एक आसान बहाना भर है."[iv]

नारीवादी विचारकों ने यह माना है कि प्राचीन भारत में नारी की स्थिति में ह्रास का कारण हिन्दू समाज की पितृसत्तात्मक संरचना थी न कि कोई बाहरी कारण. इसके लिये नारीवादी विचारक प्रमुख दोष स्मृतियों के नारी-सम्बन्धी नकारात्मक प्रावधानों को देते हैं, क्योंकि तत्कालीन समाज में स्मृतिग्रन्थ सामाजिक आचार-संहिता के रूप में मान्य थे और उनमें लिखी बातों का जनजीवन पर व्यापक प्रभाव था. प्रमुख स्मृतियों में नारी-शिक्षा पर रोक, उनका कम उम्र में विवाह करने सम्बन्धी प्रावधान, उनको सम्पत्ति में समान अधिकार न देना आदि प्रावधानों के कारण समाज में स्त्रियों की स्थिति में अवनति होती गयी. नारीवादी विचारकों के अनुसार हमें अपनी कमियों का स्पष्टीकरण देने के स्थान पर उनको स्वीकार करना चाहिये ताकि वर्तमान में नारी की दशा में सुधार लाने के उपाय ढूँढे़ जा सकें.


सन्दर्भ :

* द पोजीशन ऑफ वूमेन इन हिन्दू सिविलाइजेशन, ए.एस. अल्तेकर, प्रकाशक-मोतीलाल बनारसी दास.
[i] “लोकानां तु विवृद्धि – अर्थं मुख- बाहु- ऊरु- पादतः
ब्राह्मणं क्षत्रिय वैश्यं शूद्रं च निरवर्तयत्‌“ १/३१ मनुस्मृति.
[ii] “एकम्‌ एव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्‌
एतेषाम्‌ एव वर्णानां शुश्रूषाम्‌ अनुसूयया“ १/९१ मनुस्मृति.
[iii] पृष्ठ संख्या २३, द सिविलाइजेशन ऑफ इण्डिया, आर.सी. दत्त, प्रकाशक-रूपा कंपनी, नई दिल्ली, २००२.
[iv] पृष्ठ संख्या १२९, अल्टेकेरियन अवधारणा के परे : प्रारंभिक भारतीय इतिहास में जेंडर संबंधों का नई समझ, उमा चक्रवर्ती, नारीवादी राजनीति, संघर्ष एवं मुद्दे, साधना आर्य, निवेदिता मेनन, जिनी लोकनीता, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, २००१.
x
x

सोमवार, 18 मार्च 2019

बुधवार, 1 अप्रैल 2015

परम्परागत विवाह या...

मेरे एक मित्र ने कहा था कि "हिन्दुस्तान में नब्बे प्रतिशत संयुक्त परिवार इसलिए चल रहे हैं कि स्त्रियाँ 'सह' रही हैं, जिस दिन वे सहना छोड़ देंगी, परिवार भरभराकर ढह जायेंगे." उन्होंने उस मंदिर का जिक्र किया, जहाँ विधवा-विधुर और तलाकशुदा स्त्रियों और पुरुषों का विवाह करवाने के लिए उनके माता-पिता और सम्बन्धी नाम दर्ज कराते हैं. मुझे आश्चर्य हुआ कि ऐसी भी जगहें होती हैं. उन्होंने कहा कि वहाँ ज़्यादा संख्या तलाकशुदा लोगों की ही थी. और तलाक क्यों बढ़ रहे हैं उसका कारण भी उन्होंने यही दिया क्योंकि अब बहुत सी लड़कियाँ 'सह' नहीं रही हैं. पहले लड़कियाँ 'किसी भी तरह' निभाती रहती थीं, वैसे ही जैसे पिछली पीढ़ी संयुक्त परिवार की ज़िम्मेदारियाँ निभा रही है.

मैं मानती हूँ कि यह सच है कि स्त्रियाँ अब 'जैसे-तैसे' अपना गृहस्थ जीवन खींचना नहीं चाहतीं, जीना चाहती हैं. इसलिए उन्होंने 'लड़की की मायके से डोली उठती है और ससुराल से अर्थी' वाली कहावत को मानने से इंकार कर दिया है. लेकिन कितने प्रतिशत लड़कियों ने? यह सोचने की बात है.

तलाक सिर्फ इसलिए नहीं हो रहे कि लड़कियों ने सहना छोड़ दिया है, बल्कि इसलिए भी कि परम्परागत विवाह (अरेंज्ड मैरिज) की प्रक्रिया ही सिरे से बकवास है. मेरी एक मित्र जो कि राज्य प्रशासनिक सेवा की ऑफिसर है, कई लड़कों को 'देख' चुकी है '(मिलना' शब्द यहाँ किसी भी तरह उपयुक्त लग ही नहीं रहा है) लेकिन वह समझ ही नहीं पाती कि एक-दो या ज़्यादा से ज़्यादा तीन घंटे की देखन-दिखाई, वह भी परिवार वालों के बीच किसी व्यक्ति को जीवनसाथी के रूप में परखने में किस प्रकार सहायक हो सकती है? यहाँ लड़का-लड़की दोनों का अहं भी आ जाता है. यदि वे बात करें और सामने वाले ने उसके बाद मना कर दिया तो उनकी तो बेइज्जती हो जायेगी. यह भी बात है कि कहीं एकतरफा लगाव हो गया और सामने से अस्वीकार, तो?

एक नहीं, हज़ार बातें हैं. उस पर भी इतने झूठ बोले जाते हैं परम्परागत विवाह के लिए कि पूछिए मत. मेरे उन्हीं मित्र ने एक बात और कही कि न जाने कितने तलाक तो एक-दूसरे के झूठ खुलने की वजह से होते हैं. दोनों ओर से एक-दूसरे के बारे में खूब बढ़ा-चढ़ाकर बातें की जाती हैं, जिनमें से आधी झूठ होती हैं. देख-परखकर विवाह करना अच्छी बात है, लेकिन उसका अवकाश तो मिले. कम से कम थोड़ी देर के लिए तो अकेले में बात कर सकें. वैसे मेरे विचार से तो उन्हें कई दिन तक बात करनी चाहिए जिससे एक-दूसरे के बारे में गहराई से जान सकें...लेकिन यहाँ पर एक तो लड़का-लड़की का अहं और ठुकराए जाने का डर होता है दूसरे "झूठ बोलकर रिश्ता लगवाने वाले" उनको ऐसा नहीं करने देना चाहते. आश्चर्य है कि अपने देश में ऐसे कूढ़मगज आज भी हैं. माफ कीजियेगा ऐसा कहने के लिए, लेकिन जीवन भर के साथ के लिए इस तरह से शुरुआत मुझे बहुत हास्यास्पद लगती है.

वास्तवकिता यह है कि हममें से कुछ लोग किसी न किसी तरह से जल्द से जल्द अपने बच्चों की शादी कर देना चाहते हैं बस. ये बात लड़के-लड़की दोनों के लिए एक जैसी है. अरेंज्ड शादियों में इतना अवकाश नहीं होता कि एक-दूसरे को ठीक से जान-समझ सकें. प्रेम विवाह में भी कभी-कभी पता नहीं चल पाता कि हम वास्तव में एक-दूसरे से प्रेम करते हैं या नहीं. लेकिन मेरे मित्र ने जिन लोगों का जिक्र किया था वे सभी अरेंज्ड यानि पारंपरिक विवाह के सताए हुए ही थे. माता-पिता ने बिना गहराई से जाँच-पड़ताल किये और बिना लड़का-लड़की को एक-दूसरे को समझने का मौका दिए विवाह कर दिया. जब वे दोनों वैवाहिक जीवन में मिले तो पाया कि वैसा कुछ भी नहीं था, जैसा उन्होंने सोचा था. फिर भी कोशिश की टूटे दिल और रिश्ते को बचाने की और जब निभाते-निभाते ऊब गए तो आखिर अलग होने का फैसला ले लिया. मित्र के मुताबिक़ कुछ शादियाँ छः महीनों में टूट गयीं.

मैं यह नहीं मानती कि विवाह जन्म-जन्मांतर का बंधन होते हैं, लेकिन किसी रिश्ते के टूटने पर दर्द तो होता ही है, गुस्सा और पछतावा भी होता है, खासकर के जब वह उस "तरीके" के अनुसार हुआ हो, जिसे हम भारतीय सबसे आदर्श विवाह मानते हैं- "शादी दो लोगों के बीच नहीं, दो परिवारों के बीच होती है" क्या कर पाते हैं परिवारवाले जब रिश्ता टूटता है तो? कुछ नहीं न? तो इसे इतना अनुल्लंघनीय क्यों बना दिया है उन्होंने? इसी को आदर्श विवाह क्यों मानते हैं? ये मान क्यों नहीं लेते कि इसमें खामियाँ हैं और यदि सुधार न हुआ तो इसी तरह से आपके बच्चे मानसिक संत्रास से गुजरते रहेंगे.

मेरे विचार से विवाह का निर्णय उन दोनों लोगों के लिए ही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होता है, जिन्हें एक-दूसरे के साथ जीवन बिताना है. इसलिए निर्णय भी उन्हीं को केन्द्र में रखकर लिया जाना चाहिए और सबसे बेहतर है कि निर्णय ही उन्हीं को लेने दिया जाय. ये बात माँ-बाप को बुरी लग सकती है, लेकिन बेहतर तो यही है. लड़का-लड़की को भी समझना चाहिए कि रात-दिन एक साथ रहकर ज़िंदगी उन्हें बाँटनी है, माँ-बाप को नहीं, इसलिए खुद निर्णय लें, भले ही इसके लिए माँ-बाप के विरुद्ध जाना पड़े. और बेशक, जब लगे कि नहीं निभनी है तो अलग हो जाएँ. कोई भी रिश्ता इतना महत्त्वपूर्ण नहीं होता कि उसे निभाने के लिए आप अपनी ज़िंदगी नरक बना लीजिए.



सोमवार, 23 मार्च 2015

बेदाद ए इश्क रूदाद ए शादी: एक पाठक की नज़र से

'बेदाद ए इश्क रुदाद ए शादी' पहले-पहल किताब का नाम बड़ा अजीब सा लगा था, लेकिन जब अशोक भाई ने फेसबुक पर शेयर किया कि किताब में बागी प्रेम विवाहों के आख्यान हैं, तो इसे पढ़ने के लिए मन उत्सुक हो उठा. पुस्तक मेले से लाने के बाद तीसरे दिन जब इसे पढ़ना शुरू किया तो एक बैठक में पढ़ गयी. जी हाँ, रात के दो बजे से सुबह के दस बजे तक पूरी किताब जैसे एक सांस में पढ़ डाली

ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इसमें प्रेम कहानियाँ थीं, लेकिन उससे भी अधिक इसलिए कि वास्तविक कहानियाँ थीं और उन्हीं की ज़ुबानी जिन्होंने निराशा के इस दौर में प्रेम किया और उसे शादी तक पहुँचाने का साहस भी. यहाँ यह सवाल उठ सकता है कि प्रेम तो प्रेम है, क्या ज़रूरी है कि उसका अंजाम शादी ही हो? क्या जिनकी शादी नहीं होती, उनका प्रेम सच्चा नहीं होता? हाँ, होता है. प्रेम किसी भी रूप में हो, सच्चा ही होता है. प्रेम का सम्मान करने वाले हर प्रेम को समान दृष्टि से देखते हैं. उनके लिए प्रेमी बस प्रेमी हैं, भले ही वे अंततः विवाह बंधन में बांध पाए हों या नहीं. लेकिन प्रेम सबका दुश्मन तभी बन जाता है, जब वह शादी के अंजाम तक पहुँचने की कोशिश करता है.

हमारे समाज में एक बेचारी 'शादी' पर ही तो पूरे समाज की जिम्मेदारियों का बोझ है. उसे पितृसत्ता को बनाए रखना है, ताकि संपत्ति और स्त्रियों की यौनिकता पर पुरुषों का नियंत्रण बरकरार रहे. उसे 'सामंतवाद' को बचाकर रखना है, ताकि धन-दौलत-बाहुबल-सत्ता आदि का दिखावा करने का अवसर उपलब्ध होता रहे. उसे 'जातिवाद' को भी जिंदा रखना है, ब्राह्मणवाद बचा रहे. उसे धर्म की भी रक्षा करनी है, ताकि साम्प्रदायिक ताकतें लोगों की अंधश्रद्धा को ईंधन बनाकर नफ़रत की आग जलाए रख सकें और उससे अपने हाथ सेंकते रहें. और अंततः उसे वर्ग-भेद बनाए रखने में भी सहयोग करना है क्योंकि शादी से सम्बन्धित सबसे प्रसिद्ध जुमला "शादी अपने बराबर वालों में ही होती है.”

इन सबसे इतर प्रेम ऊपर की किसी शर्त को मानने को तैयार नहीं, तो क्यों न दुश्मन हो जाए समाज उसका? चलो, प्रेम को तो माफ भी कर दिया जाय! याद रहे, हमारे समाज में अव्वल तो प्रेम करना नहीं चाहिए, हो गया तो कोई बात नहीं, पता नहीं चलना चाहिए (क्योंकि बद अच्छा, बदनाम बुरा) और मान लो पता भी चल गया, तो लड़कियों को नसीहत कि "उसे भूल समझकर भूल जाओ" और लड़कों को सीख कि "प्यार-व्यार तो ठीक, तुम एक क्या हज़ार करो, लेकिन वो लड़की इस घर की बहू नहीं बन सकती" प्रायः यह पितृसत्तात्मक परिवार के मुखिया का बड़े गर्व और धमकी भरे अंदाज़ में दिया हुआ हुक्म होता है.

तो सोचिये, इन हालात में प्रेम को शादी तक ले जाना कितनी बड़ी बात है. इसीलिये हमारे यहाँ शादी को प्रेम की परिणति या सफलता माना जाता है. प्रेम विवाह पितृसत्ता, सामंतवाद, वर्ग भेद, जातिवाद सबका दुश्मन है. प्रेम विवाह चाहे अंतरजातीय हो या स्वजातीय, चाहे एक धर्म में हो या अंतरधार्मिक, यह किसी न किसी स्तर पर कोई न कोई सामाजिक रूढ़ि तोड़ता है. 

लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती. प्रेम विवाह में असली परीक्षा तो गृहस्थ जीवन की शुरुआत के साथ शुरू होती है. मैंने इसके सम्बन्ध में इसी ब्लॉग पर एक लेख लिखा था- "प्रेम, प्रेम विवाह और पितृसत्ता".इस किताब की कुछ कहानियाँ इसी सच को सामने लाने की कोशिश करती हैं कि प्रेम विवाह को हमारे समाज में किस तरह से चुनौतियाँ झेलनी पड़ती हैं. एक ओर तो उन्हें घर-परिवार-समाज का विरोध झेलना पड़ता है, दूसरी ओर आपसी प्रेम को भी बचाए रखने की ज़िम्मेदारी होती है. सुमन केशरी, देवयानी भारद्वाज, प्रीती मोंगा, मसिजीवी और ममता की कहानियाँ शादी के बाद के संघर्षों को बयान करती हैं. इसमें से कुछ तो आपसी प्रेम को बचाए रखने के जद्दोजहद का वर्णन करती हैं और कुछ प्रेम विवाह के बाद लड़की द्वारा नए घर-परिवार में सामंजस्य की दास्तान.  

देवयानी जी ने जिस साहस और बेबाकी से अपने वैवाहिक जीवन के संघर्षों को चित्रित किया है, वह बेहद प्रभावी है. लेकिन यह तय है कि इस प्रकार ईमानदारी से अपने सम्बन्धों के अंतर्द्वंद्व को परखने का साहस वही लड़की कर सकती हो, जिसने अपने मनपसंद युवक से प्रेम किया और स्वयं विवाह का निर्णय लिया, उसे पूरी निष्ठा से निभाया और समस्याओं को सुलझाने के अथक प्रयास किये. और अंततः न सुलझ पाने पर कड़े निर्णय लेने की भी हिम्मत की

सुमन केशरी जी ने प्रेम के सामाजिक पहलुओं का विश्लेषण करते हुए अपनी कहानी को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखा है और प्रीती मोंगा ने यह बात स्पष्टता से कही कि यदि जीवन का एक निर्णय किसी कारणवश हमें गलत लगने लगता है, तो उसे बदलने में संकोच नहीं करना चाहिए

अमित कुमार श्रीवास्तव, विभावरी, नवीन रमण-पूनम, प्रज्ञा वर्षा सिंह, रूपा सिंह, किशोर दिवसे, राजुल तिवारी, मोहित खान और शकील अहमद खान आदि सभी की कहानियाँ प्रेम और उसे शादी के परिणाम तक पहुँचाने के संघर्ष की कहानियाँ हैं. इनमें से कुछ कहानियाँ बेहद रूमानी हैं तो कुछ सीधे-सीधे समाज को चुनौती देती हुयी.

यहाँ यह बता देना उचित होगा कि यह किताब मात्र प्रेम कहानियों का संग्रह नहीं. इसमें संकलित कई प्रेम कहानियाँ अपने-अपने ढंग से प्रेम के साथ-साथ समाज और उसके ताने-बाने की भी निर्ममता से जाँच-पड़ताल करती हैं. इसी के साथ संपादक द्वय -नीलिमा चौहान और अशोक कुमार पाण्डेय के लेख प्रेम के समाजशास्त्रीय आयाम और प्रभावों का विश्लेषण करते चलते हैं और सुजाता का लेख अनुभव और अध्ययन से उपजा एक दस्तावेजी बयान है.

मैंने इस लेख में बहुत ज़्यादा विस्तार इसलिए नहीं किया क्योंकि पहली बात, मैं कोई आलोचक या पुस्तक समीक्षक नहीं, जो तटस्थ भाव से समीक्षा कर सकूँ. मैंने जो लिखा एक पाठक की दृष्टि से लिखा. दूसरी बात, किताब के बारे में अधिक लिखकर मैं इसे पढ़ने का मज़ा किरकिरा नहीं करना चाहती. लेकिन मैं कहना चाहूँगी कि हाल ही में पढ़ी गयी कई पुस्तकों में से इस पुस्तक ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया. जैसा कि नीलिमा जी ने पुस्तक की भूमिका में कहा है कि ये सिर्फ प्रेम कहानियाँ नहीं, बल्कि समाजशास्त्रीय अध्ययन के लिए उपयोगी सामग्री भी है, मैं भी यह मानती हूँ कि साहित्य के अनुरागी पाठकों के साथ-साथ सामाजिक विषयों के अध्येताओं को भी यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए.