शनिवार, 8 अप्रैल 2023

संयुक्त हिन्दू परिवार की पैतृक सम्पत्ति में महिलाओं का अधिकार

संयुक्त हिन्दू परिवार में पैतृक सम्पत्ति में महिलाओं का अधिकार

 भारत में संयुक्त हिन्दू परिवार में पैतृक सम्पत्ति में महिलाओं का अधिकार नहीं था। भारतीय परंपरा में किसी संयुक्त परिवार की पैतृक सम्पत्ति मुख्यतः उसके पुरुष सदस्यों के मध्य ही विभाजित होती रही है। इसके अनुसार घर का मुखिया पिता होता हैपरिवा और वही पैतृक संपत्ति का स्वामी होता है। पिता की मृत्यु के बाद यह उसके जीवित रहने पर ही यदि संपत्ति का विभाजन होता हैतो संपत्ति सभी पुत्रों में बांट दी जाती थी। सम्पत्ति के अधिनियम में 2005 के संशोधन के बाद अब ऐसी स्थिति नहीं है। पैतृक सम्पत्ति के इस अधिकार को हासिल करने के लिए महिला आंदोलनों और नारीवादी विचारकों के साथ ही साथ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी महती भूमिका निभायी है। 


 पिछली पोस्ट में हमने हिन्दू स्त्रियों के सम्पत्ति के अधिकार के अंतर्गत स्त्रीधन की परिभाषा, प्रकार और कानूनी अधिकार के विषय में बताया था. इस पोस्ट में सम्पत्ति के अन्य अधिकार "पुत्रिका" एवं "संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में स्त्रियों के उत्तराधिकार" के विषय में बात करेंगे.


इसके पहले हमें यह जानना होगा कि यहाँ हम "हिन्दू" शब्द का प्रयोग क्यों कर रहे हैंकिसी भी देश के क़ानून उसके समाज के नियमों का सार होते हैंसमाज में प्रचलित रीति-रिवाजपरम्पराएँप्रथाएँ आदि ही कालान्तर में क़ानून का रूप धारण कर लेते हैंये रीति-रिवाज और परम्पराएँ, जो किसी देश के विशेष समुदाय या धर्म के विश्वासों पर आधारित होते हैंउन्हें निजी क़ानून कहा जाता हैनिजी क़ानून अथवा पर्सनल लॉ जीवन के जिन क्षेत्रों को प्रभावित करते हैंवे हैं-
-संपत्ति का उत्तराधिकारविरासत का हक
-विवाह तथा विवाह-विच्छेद (तलाक)
-गोद लेने का अधिकार
-पुत्र एवं पुत्री के अभिभावकत्व (गार्जियनशिपका अधिकार
-परित्यक्ता व तलाकशुदा को गुजारा भत्ता मिलने का अधिकार
भारत में तीन प्रमुख धर्मों के निजी क़ानून हैं
इनके अलावा पारसी व पुर्तगाली सिविल कोड हैंसीखजैनबौद्ध व आदिवासी अपने विवाहविवाह-विच्छेदअपनी-अपनी सामाजिक रीतियों के अनुसार करते हैंमगर कानूनन इन्हें हिन्दू माना गया है.
हिंदुओं के धार्मिक कानूनों की जड़ धर्मशास्त्रों तथा विधि-संहिताओं में हैहिंदुओं में संपत्ति का उत्तराधिकार याज्ञवल्क्यस्मृति की प्रसिद्ध टीका मिताक्षरा के दायभाग प्रकरण पर आधारित हैसंपत्ति के उत्तराधिकार के नियम हिन्दू कोड में समाज की प्रथा से बंधे हुए हैं

हिन्दू सम्पत्ति के उत्तराधिकार के बंटवारे का आधार 

भारत में हिन्दुओं के व्यक्तिगत कानून (personal law) अधिकतर स्मृतियों के प्रावधानों पर आधारित हैं। पर्सनल ला के अंतर्गत सम्पत्ति-सम्बन्धी कानून, गोद लेने-देने के कानून और विवाह-सम्बन्धी कानून आते हैं।

सम्पत्ति के बँटवारे और उत्तराधिकार के कानून भी स्मृतियों मुख्यतः मनस्मृति और याज्ञवल्क्यस्मृति पर आधारित हैं। मनु के अनुसार माता पिता के मरने पर सब भाई एकत्रित होकर पैतृक अर्थात्  पितृ-संबंधी संपत्ति को बराबर बांट लें। इसी प्रकार याज्ञवल्क्य ने भी कहा है कि यदि पिता संपत्ति का विभाग करेंतो उसे अपनी इच्छा अनुसार पुत्रों में बांटे अथवा माता पिता की मृत्यु के बाद सभी पुत्र संपत्ति का विभाजन करें। इस प्रकार पिता की संपत्ति पर मात्र पुत्रों का ही अधिकार माना गया पुत्रियों का नहीं।

पुत्रियों को पैतृक संपत्ति में अधिकार तो नहीं मिलालेकिन पुत्रों के लिए मनु और याज्ञवल्क्य स्मृति दोनों में यह निर्देश अवश्य दिया गया है कि यदि बहनों का विवाह संस्कार ना हुआ होतो सभी भाई अपने भाग का चौथा अंश देकर उनका संस्कार करें। मनुस्मृति के अनुसार यदि वे ऐसा नहीं करते हैंतो पतित होते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार के दंड की व्यवस्था नहीं की गयी। अर्थात् भाइयों पर अपनी बहनों के विवाह के लिए धन देने की नैतिक बाध्यता थीना कि वैधानिक।

विभाजन में माता के भाग के संबंध में याज्ञवल्क्यस्मृति की व्यवस्था है कि उसे भी विभाजन के समय पुत्रों के बराबर भाग मिलता हैकिंतु यहाँ भी वही शर्त है कि यदि उन्हें स्त्रीधन ना मिला हो तो उनका उतना भाग कम हो जाएगा।

पैतृक संपत्ति में स्त्रियों के विभाजन का अधिकार ना देने के पीछे प्रायः यह मान्यता थी कि स्त्रियों की परिवार से इतर स्वतंत्र स्थिति नहीं होती।  पति पत्नी की संपत्ति साझी मानी जाती थी। उनका अलग-अलग हिस्सा नहीं होता इसलिए पत्नी का भाग पति के भाग में ही सम्मिलित मान लिया जाता है। मनुस्मृति में एक स्थान पर स्पष्ट लिखा है कि स्त्रीपुत्र तथा दासइन तीनों को (मनु आदि महर्षियों ने) निर्धन ही कहा है। ये जो कुछ उपार्जन करते हैंवह उसका होता है जिसके वे (भार्यापुत्र या दास) हैं। (मनु 8/416)

इसी प्रकार पुत्रियों का विवाह होने के बाद वह अपने पति के घर चली जाती हैं। इसलिए पिता की संपत्ति में उन्हें हिस्सा नहीं दिया जाता। और माता के भरण पोषण का दायित्व तो पुत्र का होता ही है।  अतः उन्हें भी अलग संपत्ति नहीं दी जाती।  संयुक्त परिवार की अन्य स्त्रियों के भरण-पोषण की जिम्मेदारी भी सामूहिक रूप से पूरे परिवार की होती थी। इसलिए इसलिए के लिए संपत्ति की अलग से कोई व्यवस्था नहीं की गई।

मनु और याज्ञवल्क्य ने तो मात्र इतना ही उल्लेख किया कि परिवार के मुखिया की मृत्यु के पश्चात उस परिवार की कुल संपत्ति उस व्यक्ति के पुत्रों में विभाजित हो जाएगी। यह विभाजन उस व्यक्ति के जीवित रहने पर भी हो सकता था,  किंतु याज्ञवल्क्य स्मृति की मिताक्षरा टीका में विश्वरूप ने संयुक्त हिंदू परिवार की संपत्ति के विभाजन का विस्तृत और स्पष्ट विवेचन किया। यही कारण है कि पश्चात्काल में संपत्ति के विभाजन की मिताक्षरा व्यवस्था समाज में अधिक प्रचलित हुई। ब्रिटिशकाल में इसे कानूनी रूप से मान्यता देकर अपना लिया गया और स्वतंत्रता के पश्चात भारत में हिंदुओं के लिए बनाए गए हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 में मिताक्षरा कोई संपत्ति के विभाजन के आधार के रूप में अपनाया गया।

हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम १९५६ के द्वारा पिता की संपत्ति में पुत्र-पुत्रियों को समान अधिकार दे दिया गया था. जिस प्रवर समिति ने यह अधिनियम बनाया था, उसने पुराने क़ानून 'मिताक्षरा' को समाप्त करने की सिफारिश की थी, परन्तु तत्कालीन भारत सरकार ने मिताक्षरा सह-उत्तराधिकार प्रणाली को नहीं हटाया और वह २००५ के संशोधन के बाद भी अस्तित्व में है 

हिन्दू संयुक्त परिवार प्रणाली की व्यवस्था है कि उत्तराधिकार का अधिकार प्रत्यावर्तन द्वारा है, न कि मात्र संतान होने के अधिकार से इस प्रणाली में घर के सभी पुरुष सदस्य जन्म से ही पैतृक  संपत्ति के वारिस होते हैं, परन्तु संपत्ति पर स्वामित्व के लिए विभाजन आवश्यक है। २००५ के संशोधन से अब पुत्री को भी संयुक्त परिवार का सदस्य मानते हुए उन्हें भी पुत्र के समान अधिकार प्राप्त हो गया है, परन्तु सभी स्त्रियों को समान अधिकार मिलने में अभी बहुत अधिक बाधाएं हैं

हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम १९५६ की धारा ४ () के अनुसार जोत की ज़मीन का विभाजन रोकने के लिए अथवा ज़मीन की अधिकतम सीमा-निर्धारण के लिए, पुत्री को ज़मीन की विरासत का अधिकार नहीं दिया गया वे खेत में काम तो कर सकती हैं, पर उसकी मालिक नहीं बन सकतीं विवाहोपरांत पति की व्यक्तिगत संपत्ति में आधा हिस्सा माँगने पर तर्क दिया जाता है कि पैतृक व पति की दोनों संपत्ति का हक औरत को क्यों दिया जाए  इसलिए वे पति की संपत्ति में आधा अधिकार उसकी मृत्यु के बाद ही पा सकती हैं अन्यथा उन्हें भरण-पोषण का अधिकार है मात्र है

विशेष विवाह अधिनियम १९५४ के अंतर्गत विवाह करने के बाद भी पुरुष उत्तराधिकार संबंधी नियमों के अनुसार पुरानी धार्मिक प्रथाओं द्वारा बनी प्रणाली से उत्तराधिकार तय कर सकता है उत्तराधिकार अधिनियम की धारा ३० के अंतर्गत वह वसीयत द्वारा अपनी संपत्ति किसी के भी नाम लिख सकता है

हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा २३ के अधीन यदि किसी स्त्री को एक मकान विरासत में मिला है और उसमें उसके पैतृक परिवार के सदस्य रह रहे हैं, तो उसे उस मकान में बँटवारा करने का कोई अधिकार नहीं है और वह उसमें तभी रह सकती है, जबकि वह अविवाहित हो या तलाकशुदा इसी प्रकार यदि कोई निस्संतान विधवा हिन्दू स्त्री बिना वसीयत किये मृत्यु को प्राप्त होती है, तो उसकी संपत्ति उसके पति के वारिसों को सौंप दी जायेगी अपवादस्वरूप अगर उसे कोई संपत्ति माता-पिता से मिली हो तो उपर्युक्त परिस्थिति में वह उसके पिता के वारिसों को मिलेगी. इस प्रकार अनेक अधिनियम २००५ के संशोधन द्वारा पुत्री के पैतृक संपत्ति में उत्तराधिकार को निष्प्रभावी कर देते हैं 

भारत में संपत्ति के उत्तराधिकार के सम्बन्ध में विभिन्न स्मृतियों में भिन्न-भिन्न प्रावधान किये गए थे, किन्तु अधिक लोकप्रिय होने के कारण मनुस्मृति तथा याज्ञवल्क्यस्मृति की विज्ञानेश्वर कृत टीका 'मिताक्षरा' अधिक प्रचलित हुयी. शताब्दियों से प्रचलित इन परम्पराओं एवं नियमों को अंग्रेजों ने अपने शासनकाल में न छेड़ना ही उचित समझा तथा इन्हें ज्यों का त्यों अपना लिया. इस प्रकार हिंदुओं के व्यक्तिगत क़ानून के आधारस्वरूप ब्रिटिशकाल में भी मिताक्षरा को मान्यता मिल गयी. हालांकि देश के पूर्वोत्तर भागों और बंगाल में दायभाग अधिक प्रचलित व्यवस्था थी

हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 से पूर्व की स्थिति

इस अधिनियम के पूर्व हिन्दू अपनी शास्त्रीय और परम्परागत विधियों से तो शासित होते ही थे,  अपितु अलग-अलग राज्यों और जातियों के लिए भी भिन्न-भिन्न क़ानून थे । उत्तराधिकार-संबंधी क़ानून भी भिन्न-भिन्न शास्त्रीय सिद्धांतों पर आधारित थे, जैसे बंगाल और उसके आसपास दायभाग; बंबई, कोंकण, और गुजरात में मयूख; केरल में मरुमकट्टयम या नम्बूदरी और शेष भारत में मिताक्षरा उत्तराधिकार कानूनों की अलग-अलग व्यवस्था ने संपत्ति के अधिकार को अत्यधिक जटिल बना दिया संयुक्त परिवार में स्त्री की स्थिति इस प्रकार की थी कि उसे जीवन-यापन के लिए भरण-पोषण प्राप्त करने के अधिकार तो थे, पर संपत्ति पर स्वामित्व का अधिकार नहीं था मिताक्षरा व्यवस्था के अंतर्गत स्त्रियाँ संयुक्त हिन्दू परिवार की संपत्ति में विभाजन की अधिकारिणी नहीं हो सकतीं थीं
मिताक्षरा सिद्धांत के अनुसार संयुक्त परिवार में किसी पुरुष सदस्य के जन्म या मृत्यु से संपत्ति का विभाजन या विलय होता है अर्थात यदि कोई नया सदस्य जन्म लेगा, तो संपत्ति में एक बराबर हिस्सा उसका होगा और यदि किसी सदस्य की मृत्यु होती है, तो उसका हिस्सा बराबर-बराबर उसके उत्तराधिकारियों में बँट जायेगा [i]

मिताक्षरा क़ानून में वसीयत के द्वारा भी उत्तराधिकार की व्यवस्था है, लेकिन उस संपत्ति के लिए , जो किसी व्यक्ति के द्वारा व्यक्तिगत रूप से अर्जित की गयी है इस प्रकार की संपत्ति में स्त्री सदस्य को भी उत्तराधिकार दिया गया है. मिताक्षरा व्यवस्था की बंगाल, बनारस और मिथिला उपप्रणालियों ने केवल पाँच महिला सम्बन्धियों को उत्तराधिकारी माना था- विधवा, पुत्री, माता, दादी और परदादी। मद्रास उपप्रणाली ने कई अन्य महिला सम्बन्धियों को भी उत्तराधिकार दिया- जैसे पुत्र की पुत्री, पुत्री की पुत्री और बहन, इन सभी संबंधों को उतराधिकार के हिन्दू क़ानून अधिनियम १९२९ में माना गया बाद में बाम्बे स्कूल, जिसे औरतों के लिए सर्वाधिक उदार माना जाता था अन्य कई महिला सम्बन्धियों के लिए संपत्ति में उत्तराधिकार प्रदान किया

पुत्रिका सिद्धांत

पुत्रिका उस पुत्री को कहा जाता है, जिसका भाई न होने पर पिता उसे अपने पुत्र के समान मान लेता है । पुत्रिका का पुत्र, पुत्रिका के पिता की संपत्ति का उत्तराधिकारी होता है और उसकी श्राद्ध-क्रिया भी वही करता है। मनुस्मृति में यह प्रावधान है कि ऐसी पुत्रिका का वाग्दान करते समय पिता अपने जामाता से ऐसा वचन लेगा कि इस पुत्री का होने वाला पुत्र उसका श्राद्ध करेगा.[ii] इस प्रकार पुत्री पिता की संपत्ति तभी प्राप्त कर सकती थी, जबकि उसका कोई भाई ना हो और उसके पिता ने उसे ही पुत्र मान लिया हो ध्यातव्य हो कि पिता की संपत्ति इस प्रकार पुत्रिका को न मिलकर उसके पुत्र को ही प्राप्त होती थी अर्थात वह अपने पिता की संपत्ति की स्वामिनी नहीं, अपितु संरक्षिका की भाँति होती थी । मनु के अनुसार पुत्रिका के बिना पुत्र उत्पन्न किये ही मृत्यु को प्राप्त करने पर उसका पति अपने श्वसुर की संपत्ति ग्रहण करता है[iii] वर्तमान काल में भी ये परम्परा चली आ रही है, जिसे पूर्वी उत्तर प्रदेश में नेवासा प्राप्त होना कहते हैं. जब किसी लड़के को नेवासा मिलता है तो वह अपने नाना की श्राद्ध क्रिया करता है और उसकी संपत्ति का उत्तराधिकारी होता है

ब्रिटिशकाल में महिलाओं का संपत्ति में अधिकार

यद्यपि ब्रिटिशकाल में, पूरा देश राजनीतिक और सामाजिक रूप से एकीकृत हो गया था, ब्रिटिश सरकार ने हिंदुओं एवं अन्य समुदायों के निजी धर्मों को नहीं छेड़ा । इस काल में चल रहे सुधार आन्दोलनों ने समाज में स्त्री की स्थिति के विषय में कई प्रश्न उठाये, जिसके परिणामस्वरूप हिंदुओं का उत्तराधिकार क़ानून अधिनियम 1929 पारित हुआ इस अधिनियम के द्वारा महिला उत्तराधिकारियों की श्रेणी में तीन संबंधों को जोड़ा गया- पुत्र की पुत्री, पुत्री की पुत्री और बहन दूसरा एक महत्त्वपूर्ण अधिनियम हिन्दू महिलाओं का संपत्ति का उत्तराधिकार अधिनियम 1937 मील का पत्थर साबित हुआ इस अधिनियम ने न सिर्फ़ हिन्दू कानून की सभी शाखाओं को प्रभावित किया, बल्कि संपत्ति के उत्तराधिकार, विभाजन, संपत्ति से वंचित करना और गोद लेने के अधिकार आदि में भी परिवर्तन किया.[ix]
1937 के अधिनियम ने विधवाओं का अपने पुत्र के समान अधिकार सुनिश्चित किया लेकिन विधवा संयुक्त परिवार की सदस्य होने के बाद भी संयुक्त संपत्ति के विभाजन की सह-उत्तराधिकारिणी नहीं हो सकती थी। उसे मात्र मृतक की संपत्ति पर सीमित अधिकार प्राप्त हो सकता था । एक पुत्री को किसी प्रकार का पैतृक उत्तराधिकार नहीं प्राप्त था । संपत्ति के उत्तराधिकार में कई सुधारों और परिवर्तनों के बावजूद स्त्रियों के प्रति भेदभावपूर्ण रवैये में कोई परिवर्तन नहीं आया था
महिलाओं के सम्पत्ति के अधिकार



भारतीय संविधान के प्रावधान

संविधान के निर्माताओं ने समाज में महिलाओं की भेदभावपूर्ण स्थिति की ओर ध्यान दिया और उसे दूर करने के उपाय किये संविधान के अनुच्छेद 14, 15[2] और 3 और 16 महिलाओं के प्रति समाज के भेदभावपूर्ण रवैये को ना सिर्फ़ रोकते हैं, बल्कि राज्य को महिलाओं के पक्ष में उचित क़ानून बनाने की परिस्थितियों का निर्माण करते हैं । ये प्रावधान संविधान द्वारा प्रत्याभूत मूलभूत अधिकारों के अंतर्गत आते हैं। इसी प्रकार संविधान के भाग चार में उल्लिखित नीति-निर्देशक तत्व राज्य को निर्देश देते हैं कि वह प्रत्येक क्षेत्र में स्त्री और पुरुष के बीच भेदभाव को समाप्त करने की दिशा तथा समानता स्थापित करने के लिए उचित कदम उठाये

हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1955

1956 के हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (Hindu Succession Act) इस अधिनियम में याज्ञवल्क्यस्मृति की मिताक्षरा धारा को हिन्दू संयुक्त परिवार की सम्पत्ति के विभाजन और उत्तराधिकार के लिए अपनाया गया। इस अधिनियम के अनुसार, केवल पुरुषों को कानूनी उत्तराधिकारी के रूप में मान्यता दी गयी। एक अविभाजित हिंदू परिवार में, कई पीढ़ियों के संयुक्त रूप से कई कानूनी उत्तराधिकारी हो सकते हैं। उदाहरण के लिए यदि एक संयुक्त परिवार में एक पिता और उसके दो पुत्र हैं, तो सम्पत्ति का विभाजन उन तीनों के मध्य हो सकता था। यह विभाजन कभी भी हो सकता था, चाहे सम्पत्ति का प्रथम उत्तराधिकारी जीवित हो या मृत। 

अधिनियम में हिंदू, बौद्ध, सिख, जैन, आर्य समाज और ब्रह्म समाज के अनुयायियों को हिंदू माना गया। 

इस अधिनियम ने हिंदुओं के निजी क़ानून में व्यापक परिवर्तन करते हुए औरतों को संपत्ति का अधिकार प्रदान किया । इस क़ानून के अनुसार पिता की संपत्ति (न कि संयुक्त परिवार की पैतृक सम्पत्ति में) पुत्री को भी बराबर का हिस्सा प्रदान किया गया । यदि कोई हिन्दू पुरुष बिना वसीयत किये मृत्यु को प्राप्त होता है, तो उसकी संपत्ति में पुत्री को भी वैसा ही अधिकार प्राप्त होगा, जैसा कि पुत्रों को. हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम के भाग 8 से 13 तक में इस सम्बन्ध में प्रावधान किये गए हैं । सेक्शन 15 और 16 हिन्दू महिला की निर्वासीयाती संपत्ति के उत्तराधिकार के विषय में अलग से प्रावधान करते हैं  इन दोनों प्रावधानों में विवाहित हिन्दू स्त्री का स्थायी निवास उसके पति के घर को माना गया है । सामाजिक न्याय की मांग यही है कि औरतों को न सिर्फ़ आर्थिक क्षेत्र में, बल्कि सामाजिक क्षेत्र में भी समान ढंग से देखा जाना चाहिए, समान अधिकार प्राप्त होने चाहिए

हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की बाद के वर्षों में काफी आलोचना हुयी। अनेक विधि विशेषज्ञों के अतिरिक्त महिला आंदोलनों और स्त्रीवादी चिंतकों के सम्पत्ति के विभाजन और उत्तराधिकार की मिताक्षरा व्यवस्था की आलोचना की। अगले कुछ लेखों में इस अधिनियम के विरोध और उसकी पृष्ठभूमि में 2005 के संशोधन की बात की जाएगी।



[i]    Manish Garg and Neha Nagar, Can women be Karta? Legal service india.com
[ii]   मनुस्मृति, 9/127
[iii]   मनुस्मृति, 9/135
[iv]  काणे, धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग दो, पृष्ठ संख्या 938.
[v]   मनुस्मृति, 9/194
[vi]  मनुस्मृति, 9/195 
[vii]  काणे, धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग दो, पृष्ठ 939
[viii] याज्ञवल्क्यस्मृति2/143-144
[ix]  Manisha Garg and Neha nagar, Can Women be Karta?. LegalServiceIndia.com
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