मंगलवार, 23 अक्तूबर 2012

वैदिक एवं आर्ष महाकाव्य युग में स्त्रियों की शिक्षा



इस बात के ठोस प्रमाण उपलब्ध हैं कि वैदिक युग से लेकर आर्ष महाकाव्यों के लिखे जाने तक भारत में लड़कियों की शिक्षा-दीक्षा पर भी उतना ही ध्यान दिया जाता था, जितना कि लड़कों की शिक्षा पर। मैं अपने शोध-कार्य में इस बात की पड़ताल कर रही हूँ कि उसके बाद के समय में ऐसे कौन से परिवर्तन आये कि स्मृतियों में स्त्रियों की शिक्षा का स्पष्ट निषेध कर दिया गया, यहाँ तक कि विवाह को छोड़कर शेष संस्कार भी बिना मन्त्रों के करने का निर्देश दिया गया। यह पोस्ट मेरे शोध कार्य का एक अंश है, जिसमें वैदिक और आर्ष महाकाव्य काल में स्त्रियों की शिक्षा के विषय में चर्चा की गयी है।

ईस्वी सन् के आरम्भ तक लड़कियों का उपनयन संस्कार होता था और उन्हें वेदों का अध्ययन करने की भी लड़कों के समान ही अनुमति होती थी।[1] उपनयन संस्कार के बाद ही विधिवत् शिक्षा का आरम्भ होता था। बाद में उपनयन संस्कार स्त्रियों के लिए बस एक औपचारिकता मात्र रह गया, लेकिन वैदिक युग में यह अपनी पूर्णविधि के साथ ही स्त्रियों के लिए भी किया जाता था। वे भी गुरुओं के आश्रम में रहकर ब्रह्मचर्य का पालन करती हुयी यज्ञोपवीत, मौञ्जी, मेखला और वल्कल धारण करती थीं। ऋक्-यजुः-अथर्व संहिताओं में ब्रह्मचारिणी नारियों का उल्लेख है। अथर्ववेद में एक स्थान पर कहा गया है, “बह्मचर्य व्रत का पालन कर शिक्षा समाप्त करने वाली कन्याएँ योग्य पति को प्राप्त करती हैं।”[2] जो छात्राएँ अधिक से अधिक संहिताओं के मन्त्रों की पंडिता होती थीं, उन्हें ‘बहुवची’ की उपाधि दी जाती थी।

अल्टेकर के अनुसार, ‘स्त्रियाँ शूद्रों की तरह वैदिक अध्ययन के अयोग्य होती हैं’ यह दृष्टिकोण बाद के युग का है। प्राचीन वैदिककाल में स्त्रियाँ पुरुषों के समान ही मन्त्रद्रष्ट्री होती थीं। उनमें से कुछ के नाम तो वैदिक संहिताओं में भी आये हैं।[3] अल्टेकर के अनुसार ‘सर्वानुक्रमणिका’ में बीस ऐसी स्त्रियों के नाम गिनाए गए हैं। इनमें से कुछ नाम मिथक हो सकते हैं, लेकिन आतंरिक स्रोत दिखाते हैं कि लोपामुद्रा, विश्ववारा, सिक्ता निवावारी और घोषा आदि कुछ ऋषिकाएँ हैं, जिन्होंने ऋग्वेद के सूक्तों की रचना की है। इनमें से कुछ ऋषिकाओं और उनके द्वारा रचित ऋग्वेद के सूक्तों का वर्णन निम्नवत् है-

लोपामुद्रा- प्रथम मण्डल का 179वां सूक्त।
विश्ववारा आत्रेयी- पंचम मण्डल का 28वां सूक्त।
अपाला आत्रेयी- अष्टम मण्डल का 91वां सूक्त।
घोषा काक्षीवती- दशम मण्डल का 39वां तथा 40 वां सूक्त।
शची पौलोमी- दशम मण्डल का 149वां सूक्त (आत्मस्तुति)।
सूर्या सावित्री- दशम मण्डल का 85वां सूक्त।

उपर्युक्त ऋषिकाओं में से शची पौलोमी का नाम वैदिक युग के बाद भी प्रचलित रहा है। इन्हें इन्द्र की पत्नी माना गया है।

उपनिषदों में भी अनेक विदुषी स्त्रियों का नाम आया है, जिनमें सुलभा मैत्रेयी, वडवा पार्थियेयी और गार्गी वाचक्नवी प्रसिद्ध हैं। अल्टेकर के मत में इन नारियों का अस्तित्व वास्तव में रहा होगा और इन्होंने ज्ञान के क्षेत्र में अपना योगदान दिया होगा, अन्यथा इनका नाम विभिन्न ग्रंथों में बार-बार न आता।


उपनिषद् काल में महिला छात्राओं के दो प्रकार उल्लेखनीय हैं- (1.) सद्योद्वाहा तथा (2.) ब्रह्मवादिनी । ‘सद्योद्वाहा’ स्त्रियाँ वे होती थीं, जो ब्रह्मचर्य आश्रम के अनन्तर गृहस्थ आश्रम में प्रविष्ट होती थीं तथा उस आश्रम के नियमों का पालन करती हुयी मातृत्व के महनीय पद पर प्रतिष्ठित होती थीं। वे उन समग्र विद्याओं का शिक्षण प्राप्त करती थीं, जो उन्हें सद्गृहिणी बनाने में पर्याप्त सहायक होती थीं। संगीत की शिक्षा भी उन्हें दी जाती थी। वैदिक यज्ञ में स्त्रियों का महत्त्वपूर्ण स्थान था। यजमान-पत्नी के रूप में वे अग्न्याधान करने वाले अपने पति के धार्मिक कृत्यों में हाथ बँटाती थीं। अग्नि के परिचरण के अवसर पर वे तत्तत् विशिष्ट मन्त्रों के उच्चारण के साथ हवन-कार्य का भी संपादन करती थीं।[4]

‘ब्रह्मवादिनी’ स्त्रियाँ उपनिषद् युग की विशिष्टता मानी जा सकती हैं। ये स्त्रियाँ ब्रह्म-चिंतन में तथा ब्रह्म-विषयक व्याख्यान में अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर देती थीं। वे ब्रह्मतत्व के व्याख्यान तथा परिष्कार में उस युग के महान् दार्शनिकों से भी वाद-विवाद एवं शास्त्रार्थ करती थीं। बृहदारण्यकोपनिषद् ऐसी दो ब्रह्मवादिनी नारियों की विद्वता का परिचय बड़े विशद् शब्दों में देता है। इनमें से एक है- उस युग के महनीय तत्त्वज्ञानी याज्ञवल्क्य ऋषि की धर्मपत्नी मैत्रेयी और दूसरी हैं- उसी याज्ञवल्क्य से शास्त्रार्थ करने वाली वाचक्नवी गार्गी।[5]


ईसापूर्व चौथी शताब्दी में जब भारत में दार्शनिक विषयों का अध्ययन-मनन प्रमुखता से होने लगा, तब अनेक स्त्रियों ने अपना जीवन अध्ययन और ज्ञानार्जन को समर्पित कर दिया। अल्टेकर ने ‘कात्सकृत्स्ना’ का उल्लेख किया है, जिसके द्वारा रचित मीमांसा के एक ग्रन्थ को ‘कात्सकृत्सिनी’ कहा जाता है और जो स्त्रियाँ इस शाखा में पारंगत होती थीं, उन्हें ‘कात्सकृत्स्ना’ कहा जाता था।[6] अल्टेकर का यह अनुमान समीचीन है कि यदि स्त्रियाँ इतने विशिष्ट विषयों में पारंगत हो सकती थीं, तो इसका अर्थ है कि सामान्य रूप से उनकी शिक्षा-दीक्षा पर बहुत ध्यान दिया जाता रहा होगा।

उस युग में स्त्रियाँ वैदिक और दर्शन आदि की शिक्षा के अतिरिक्त गणित, वैद्यक, संगीत, नृत्य और शिल्प आदि का भी अध्ययन करती थीं। क्षत्रिय स्त्रियाँ धनुर्वेद अर्थात् युद्धविद्या की भी शिक्षा ग्रहण करती थीं तथा युद्ध में भाग भी लेती थीं। ऋग्वेद के दशम मण्डल के 102वें सूक्त में राजा मुद्गल एवं मुद्गालानी की कथा वर्णित है और उसे युद्ध में विजय दिलाती है। इसी प्रकार ‘शशीयसी’[7] का तथा वृत्तासुर की माता ‘दनु’[8] का वर्णन है, जिसने युद्ध में भाग लिया और इंद्र के हाथों वीरगति को प्राप्त हुयी। महाकाव्य काल में भी स्त्रियों के युद्ध में भाग लेने के सन्दर्भ प्राप्त होते हैं। कैकयी ने देवासुर-संग्राम में मृतप्राय हुए राजा दशरथ की सारथी बनकर प्राणरक्षा की थी और उसके फलस्वरूप दो वर प्राप्त किये थे।[9]

आर्षमहाकाव्यों में वर्णित उच्चकुलों की नारियाँ विविध प्रकार की विद्याओं में निष्णात होती थीं। राजा कुन्तिभोज की पुत्री कुंती अत्यधिक गुणवती थी। उसने अपने आतिथ्य-सत्कार से दुर्वासा जैसे क्रोधी ऋषि को प्रसन्न किया और उनसे मनचाहा वर प्राप्त करने का वरदान प्राप्त किया। इसके लिए उन्होंने कुंती को वशीकरण मन्त्र दिया, जिसके द्वारा वह किसी भी देवता को वश में करके उससे पुत्र प्राप्त कर सकती थी।[10] इसी प्रकार सभापर्व में जब द्रौपदी को पाण्डवों द्वारा द्यूतक्रीड़ा में हार जाने के पश्चात् दुःशासन सभा में घसीटकर लाता है, तो वह वहाँ उपस्थित गुरुजनों से धर्म-विषयक प्रश्न करती है और धिक्कारती है।[11] इससे पता चलता है कि वह एक उच्चशिक्षित विदुषी युवती थी, जिसे धर्मविषयक गूढ़ बातों का ज्ञान था।

इस प्रकार स्पष्ट है कि संहिताकाल से लेकर महाकाव्य काल तक स्त्रियों को शिक्षा का पूर्ण अधिकार था। वे पुरुषों के समान ही उपनयन संस्कार के पश्चात् ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए अध्ययन करती थीं और उसके पश्चात् भी उन्हें आगे विद्याध्ययन करने या गृहस्थ धर्म अपनाने- दोनों ही विकल्प प्राप्त थे।


[1] अल्टेकर , पृष्ठ 9-10
[2] “ब्रह्मचर्येण कन्यानं युवाविन्दते पतिम् ।“ – अथर्ववेद, कांड-11, सूक्त-7, मन्त्र-18
[3] अल्टेकर , पृष्ठ 10
[4] आचार्य बलदेव उपाध्याय, वैदिक साहित्य और संस्कृति, शारदा संस्थान, वाराणसी 1998, पृष्ठ संख्या 424
[5] आचार्य बलदेव उपाध्याय, पृष्ठ संख्या 425
[6] अल्टेकर, पृष्ठ 11
[7] ऋग्वेद, पंचम मण्डल, सूक्त- 61
[8] ऋग्वेद, प्रथम मण्डल, सूक्त- 32, मन्त्र- 9
[9] रामायण, अयोध्याकाण्ड, सर्ग-10,श्लोक 8 एवं 9
[10] महाभारत, आदिपर्व, अध्याय-110
[11] महाभारत, सभापर्व, अध्याय-69





18 टिप्‍पणियां:

  1. अपने बाहुत अच्छी पोस्ट लिखी है हिन्दू धर्म में हमेसा ही महिलाओ को सामान अधिकार रहा है गार्गी ,मैत्रेयि जैसी महिलाओ ने वेड की ऋचाओ को लिख बड़ा ही योगदान किया है हमें अपनी संस्कृति को जानने की जरीरत है बहुत-बहुत धन्यवाद.

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  2. सहमत हूँ, कालान्तर में घर के अन्दर रहने को विवश किया गया है।

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  3. अच्छा लगा पढना -रोचकता और अकादमीय ईमानदारी के साथ आपने विषय का प्रतिपादन किया है -साधुवाद!
    यह परम्परा भले ही अंतरालों के साथ आगे भी चलती आयी है -भास्कर रचित लीलावती ग्रन्थ, गणित में उनकी बेटी लीलावती की अभिरुचि दर्शता है....
    आन लाईटर साईड:
    क्या मुझे बार बार दुर्वासा कहते रहने (जो मुझे अच्छा नहीं लगता ) के कुछ ऐसे भी तो निहितार्थ नहीं हैं? (हैं ,तब ठीक है :-) )

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    1. आपको विदित है कि अभिधा की लेखिका हूँ. मेरा कोई निहितार्थ नहीं है आपको दुर्वासा कहने में विप्रवर. आपके बार-बार और शीघ्र क्रोधित होने वाले स्वभाव के कारण कहती हूँ. आपको बुरा लगता तो नहीं कहती, पर चूँकि आपने यह बात लाइटर मूड में कही है. इसलिए आपको दुर्वासा कहना बंद नहीं करूंगी

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  4. वैदिक काल तक स्त्रियों को शिक्षा का अधिकार प्राप्त था। महाकाव्य काल तक भी स्त्री शिक्षा की स्थिति उतनी बुरी नहीं थी। फिर ऐसा क्या हुआ कि स्त्रियों से उन की वह स्थिति छिन गई। यह शोध का विषय है।

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    1. आगे की पोस्ट में इसकी चर्चा भी होगी कि आखिर धर्मसूत्रों और स्मृतियों में स्त्रियों की शिक्षा का निषेध क्यों किया गया? दरअसल, धर्मसूत्रों भी स्त्रियों की स्थिति को लेकर दो मत हैं-एक स्त्री की स्वतंत्रता का पक्षधर है और दूसरा विरोधी.
      धर्मसूत्रों की क्लिष्ट भाषा-शैली के कारण मनुस्मृति जैसे ग्रन्थ की आवश्यकता अनुभव की गयी, जिसकी भाषा सरल और शैली काव्यात्मक थी. अपनी शैली के कारण यह अत्यधिक लोकप्रिय हुयी.
      अब प्रश्न यह है कि मनुस्मृति की रचना धर्मसूत्रों के सहज विकास का परिणाम थी अथवा इसकी रचना के पीछे कुछ अन्य निहितार्थ थे. नारीवादी और दलित चिन्तक इसे सोच-समझकर रची जाने वाली स्मृति कहते हैं, जिसका उद्देश्य वर्णव्यवस्था की दृढ़ स्थापना और स्त्रियों की अधीनता सुनिश्चित करना था. अन्य विचारक इसे वैदिक साहित्य के काठिन्य से बचने के लिए लिखा गया ग्रन्थ मानते हैं. इसी विषय पर अगली पोस्ट में चर्चा होगी.
      आपलोगों से अपेक्षा है कि पढ़कर दृष्टि स्पष्ट करने में मेरी सहायता करें.

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  5. अच्छी जानकारी मिली इस पोस्ट को पढ़ने से।

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  6. अगर तार्किक दृष्टि से भी देखें तो भी कोई भी सभ्य और व्यवस्थित समाज इस बात के लिए समहमत हो ही नहीं सकता कि महिलाओं को शिक्षा ना दी जाए | ना केवल शिक्षा बल्कि और भी अधिकार, या उन्हें कर्तव्य ही बोला जाए जिनके पालन का अधिकार, हमेशा से महिलाओं के पास भी रहा होगा | पर बात वही है "If any system lingers too long, it always looses it's utility and brings only corruption" | और वही हुआ, धर्म जब तक आज़ाद रहा तब तक ठीक रहा, जिस दिन वो किसी की बपौती बन गया , उसी दिन से भ्रष्ट हो गया | नए नए सिद्धांत आ गए जिन्होंने समाज में बहुत सी कुरीतियाँ चला दी | लड़कियों को शिक्षा ना देना , उन्हें मंत्रोच्चारण से वंचित रख देना |
    कुछ कुरीतियाँ विदेशी आक्रमणों के साथ भी आयी और फूली फली जैसे "पर्दा-प्रथा" | पर हम हमेशा लकीर के फ़कीर बने हुए , सब कुछ जानते हुए भी अनजान बने रहे | कुछ बदलना ही नहीं चाह | नतीजा धर्म, जिसे एक सिस्टम भी कहा जा सकता है, को वक़्त के साथ बदलने के बजाय बदलाव को ही खारिज कर बैठे |
    इसका एक उदहारण सुन्दर काण्ड की एक चौपाई में मिलता है :
    "ढोल गावर शूद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी |"
    मुझे नहीं पता तुलसीदास जी ने ये पंक्ति क्या सोच के लिखी थी , पर वक़्त के साथ इसे हटाया जा सकता था/है | पर ऐसा सोचना/कहना/मानना धर्म विरोधी मान लिया जाता है |
    मुझे लगता है ये सोच बदलने की ज़रुरत है | पर "हमने दुनिया देखी है , शास्त्रों में ऐसा लिखा है , हमेशा से ऐसा ही होता आया है" टाइप के बयान देने वालों से निपटने के लिए ऐसे साक्ष्यों की ज़रुरत है, जो आपकी इस पोस्ट में मिले हैं | आपकी आगे आने वाली पोस्ट्स का भी इंतज़ार रहेगा |
    बढ़िया जानकारी !!!

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    उत्तर
    1. श्रीरामचरितमानस में कहीं नहीं किया गया है “शूद्रों” और नारी का अपमान |

      भगवान श्रीराम के चित्रों को जूतों से पीटने वाले भारत के राजनैतिक शूद्रों को पिछले 450 वर्षों में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित हिंदू महाग्रंथ 'श्रीरामचरितमानस' की कुल 10902 चौपाईयों में से आज तक मात्र 1 ही चौपाई पढ़ने में आ पाई है और वह है भगवान श्री राम का मार्ग रोकने वाले समुद्र द्वारा भय वश किया गया अनुनय का अंश है जो कि सुंदर कांड में 58 वें दोहे की छठी चौपाई है "ढोल गवार सूद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी ||"

      इस सन्दर्भ में चित्रकूट में मौजूद तुलसीदास धाम के पीठाधीश्वर और विकलांग विश्वविद्यालय के कुलाधिपति श्री राम भद्राचार्य जी
      (जो की नेत्रहीन होने जे बावजूद संस्कृत,व्याकरण,सांख्य,न्याय,वेदांत, में
      5 से अधिक GOLD Medal जीत चुकें है | )

      महाराज का कहना है कि बाजार में प्रचलित रामचरितमानस में 3 हजार से भी अधिक स्थानों पर अशुद्धियां हैं और इस चौपाई को भी अशुद्ध तरीके से प्रचारित किया जा रहा है |

      उनका कथन है कि तुलसी दास जी महाराज खलनायक नहीं थे आप स्वयं विचार करें यदि तुलसीदास जी की मंशा सच में शूद्रों और नारी को प्रतारित करने की ही होती तो क्या रामचरित्र मानस की 10902 चौपाईयों में से वो मात्र 1 चौपाई में ही शूद्रों और नारी को प्रतारित करने की ऐसी बात क्यों करते ?

      यदि ऐसा ही होता तो भील शबरी के जूठे बेर को भगवान द्वारा खाये जाने का वह चाहते तो लेखन न करते | यदि ऐसा होता तो केवट को गले लगाने का लेखन न करते |


      स्वामी जी के अनुसार ये चौपाई सही रूप में
      ढोल,गवार,सूद्र,पशु,नारी नहीं
      बल्कि यह "ढोल,गवार,क्षुब्द पशु,रारी है |

      ढोल = बेसुरा ढोलक
      गवार = गवांर व्यक्ति
      क्षुब्द पशु = आवारा पशु जो लोगो को कष्ट देते हैं
      रार = कलह करने वाले लोग

      " चौपाई का सही अर्थ है कि जिस तरह बेसुरा “ढोलक”, अनावश्यक ऊल जलूल बोलने वाला “गवांर व्यक्ति” , आवारा घूम कर लोगों की हानि पहुँचाने वाले (अर्थात क्षुब्द, दुखी करने वाले) पशु और रार अर्थात कलह करने वाले लोग जिस तरह दण्ड के अधिकारी हैं उसी तरह मैं भी तीन दिन से आपका मार्ग अवरुद्ध करने के कारण दण्ड दिये जाने योग्य हूँ |

      स्वामी राम भद्राचार्य जी जो के अनुसार श्रीरामचरितमानस की मूल चौपाई इस तरह है और इसमें ('क्षुब्द' के स्थान पर 'शुद्र' कर दिया और 'रारी' के स्थान पर 'नारी' कर दिया |

      भ्रमवश या भारतीय समाज को तोड़ने के लिये जानबूझ कर गलत तरह से प्रकाशित किया जा रहा है |

      इसे उद्देश्य के लिये उन्होंने अपने स्वयं के द्वारा शुद्ध की गई अलग रामचरित मानस प्रकाशित कर दी है। इसके साथ ही स्वामी राम भद्राचार्य का दावा है कि रामायण में लंका कांड जैसी कोई चीज ही नहीं है। असल में ये युद्ध कांड है जो लंका कांड के नाम से छपा जाता है। स्वामी जी कहते हैं कि संस्कृत की किसी भी रामायण में लंका कांड शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। तुलसीदास जी की सबसे पुरानी चौथी प्रति मानी गई है जो व्यंकटेश प्रेस बम्बई से छपी थी। उसमें भी युद्ध कांड है लंका कांड नहीं है।

      रामभद्राचार्य कहते हैं धार्मिक ग्रंथो को आधार बनाकर गलत व्याख्या करके जो लोग हिन्दू समाज को तोड़ने का काम कर रहे है उन्हें सफल नहीं होने दिया जायेगा |

      आप सबसे से निवेदन है , इस लेख को अधिक से अधिक share करें |
      तुलसीदास जी की चौपाई का सही अर्थ लोगो तक पहुंचायें हिन्दू समाज को टूटने से बचाएं |

      हटाएं
    2. श्रीरामचरितमानस में कहीं नहीं किया गया है “शूद्रों” और नारी का अपमान |

      भगवान श्रीराम के चित्रों को जूतों से पीटने वाले भारत के राजनैतिक शूद्रों को पिछले 450 वर्षों में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित हिंदू महाग्रंथ 'श्रीरामचरितमानस' की कुल 10902 चौपाईयों में से आज तक मात्र 1 ही चौपाई पढ़ने में आ पाई है और वह है भगवान श्री राम का मार्ग रोकने वाले समुद्र द्वारा भय वश किया गया अनुनय का अंश है जो कि सुंदर कांड में 58 वें दोहे की छठी चौपाई है "ढोल गवार सूद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी ||"

      इस सन्दर्भ में चित्रकूट में मौजूद तुलसीदास धाम के पीठाधीश्वर और विकलांग विश्वविद्यालय के कुलाधिपति श्री राम भद्राचार्य जी
      (जो की नेत्रहीन होने जे बावजूद संस्कृत,व्याकरण,सांख्य,न्याय,वेदांत, में
      5 से अधिक GOLD Medal जीत चुकें है | )

      महाराज का कहना है कि बाजार में प्रचलित रामचरितमानस में 3 हजार से भी अधिक स्थानों पर अशुद्धियां हैं और इस चौपाई को भी अशुद्ध तरीके से प्रचारित किया जा रहा है |

      उनका कथन है कि तुलसी दास जी महाराज खलनायक नहीं थे आप स्वयं विचार करें यदि तुलसीदास जी की मंशा सच में शूद्रों और नारी को प्रतारित करने की ही होती तो क्या रामचरित्र मानस की 10902 चौपाईयों में से वो मात्र 1 चौपाई में ही शूद्रों और नारी को प्रतारित करने की ऐसी बात क्यों करते ?

      यदि ऐसा ही होता तो भील शबरी के जूठे बेर को भगवान द्वारा खाये जाने का वह चाहते तो लेखन न करते | यदि ऐसा होता तो केवट को गले लगाने का लेखन न करते |


      स्वामी जी के अनुसार ये चौपाई सही रूप में
      ढोल,गवार,सूद्र,पशु,नारी नहीं
      बल्कि यह "ढोल,गवार,क्षुब्द पशु,रारी है |

      ढोल = बेसुरा ढोलक
      गवार = गवांर व्यक्ति
      क्षुब्द पशु = आवारा पशु जो लोगो को कष्ट देते हैं
      रार = कलह करने वाले लोग

      " चौपाई का सही अर्थ है कि जिस तरह बेसुरा “ढोलक”, अनावश्यक ऊल जलूल बोलने वाला “गवांर व्यक्ति” , आवारा घूम कर लोगों की हानि पहुँचाने वाले (अर्थात क्षुब्द, दुखी करने वाले) पशु और रार अर्थात कलह करने वाले लोग जिस तरह दण्ड के अधिकारी हैं उसी तरह मैं भी तीन दिन से आपका मार्ग अवरुद्ध करने के कारण दण्ड दिये जाने योग्य हूँ |

      स्वामी राम भद्राचार्य जी जो के अनुसार श्रीरामचरितमानस की मूल चौपाई इस तरह है और इसमें ('क्षुब्द' के स्थान पर 'शुद्र' कर दिया और 'रारी' के स्थान पर 'नारी' कर दिया |

      भ्रमवश या भारतीय समाज को तोड़ने के लिये जानबूझ कर गलत तरह से प्रकाशित किया जा रहा है |

      इसे उद्देश्य के लिये उन्होंने अपने स्वयं के द्वारा शुद्ध की गई अलग रामचरित मानस प्रकाशित कर दी है। इसके साथ ही स्वामी राम भद्राचार्य का दावा है कि रामायण में लंका कांड जैसी कोई चीज ही नहीं है। असल में ये युद्ध कांड है जो लंका कांड के नाम से छपा जाता है। स्वामी जी कहते हैं कि संस्कृत की किसी भी रामायण में लंका कांड शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। तुलसीदास जी की सबसे पुरानी चौथी प्रति मानी गई है जो व्यंकटेश प्रेस बम्बई से छपी थी। उसमें भी युद्ध कांड है लंका कांड नहीं है।

      रामभद्राचार्य कहते हैं धार्मिक ग्रंथो को आधार बनाकर गलत व्याख्या करके जो लोग हिन्दू समाज को तोड़ने का काम कर रहे है उन्हें सफल नहीं होने दिया जायेगा |

      आप सबसे से निवेदन है , इस लेख को अधिक से अधिक share करें |
      तुलसीदास जी की चौपाई का सही अर्थ लोगो तक पहुंचायें हिन्दू समाज को टूटने से बचाएं |

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  8. कल 30/10/2012 को आपकी यह पोस्ट (विभा रानी श्रीवास्तव जी की प्रस्तुति में) http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  9. आदिकाल से ही स्त्रियों को समान अधिकार मिले थे ये तो बाद मे सबने अपने अपने मन से उसका स्वरूप विकृत कर दिया………आभार

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  10. बहुत अद्भुत अहसास...सुन्दर प्रस्तुति .पोस्ट दिल को छू गयी.......कितने खुबसूरत जज्बात डाल दिए हैं आपने..........बहुत खूब,बेह्तरीन अभिव्यक्ति .आपका ब्लॉग देखा मैने और नमन है आपको और बहुत ही सुन्दर शब्दों से सजाया गया है लिखते रहिये और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

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  11. प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति में स्त्रियों को एक उच्च स्थान प्राप्त है , स्त्रियां सदैब से ही यज्ञ रण एवं राजकाज में पुरुषों की सहायक रहीं । लेकिन मुगल शासन के पश्चात भारत में स्त्रियों की दशा एवं दिशा ही बदल गयी ।

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  12. प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति में स्त्रियों को एक उच्च स्थान प्राप्त है , स्त्रियां सदैब से ही यज्ञ रण एवं राजकाज में पुरुषों की सहायक रहीं । लेकिन मुगल शासन के पश्चात भारत में स्त्रियों की दशा एवं दिशा ही बदल गयी ।

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  13. मेरी दादी कभी स्कूल नही गयी थी पर पढ़ी लिखी नही थी ये नही कह सकते क्योंकि उन्होंने पूरा गुजराती साहित्य पढ़ रखा था । लायब्रेरी से किताबे मंगवाक़े पढ़ती थी। ये मैंने अपने बचपन मे अपनी आंखों से देखा है। मेरे लिए ये शोध का विषय है कि बिना स्कूल गयी उनमे साहित्य में रुचि कैसे थी ? दुर्भाग्यवश मेरे परिवार में अब कोई नही जो मुजे ये सवाल का जवाब दे सके।

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  14. प्रणाम। महिला को वेद या दुर्गासप्तशती का पथ करना चाहिये या नही ? ॐ शिव।

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बहस चलती रहे, बात निकलती रहे...