प्राचीनकाल में धर्मशास्त्रों में संकलित
हिन्दू विधियाँ आज भी उनके सामाजिक जीवन को प्रभावित करती हैं। यद्यपि जनसाधारण इन
स्मृतियों के सम्पूर्ण अध्ययन से दूर ही रहा है, तथापि
परम्परा से इनके नियमों का पालन करता रहा है। अतः वर्तमान हिन्दू समाज को जटिल
संरचना को समझने के लिए धर्मशास्त्रों का ज्ञान अपेक्षित है।
भारतीय परम्परा में स्मृतियों का महत्त्वपूर्ण
स्थान है.
स्मृतियाँ इतिहास को जानने का महत्वपूर्ण-स्रोत
तो हैं ही, विश्व
के प्राचीनतम अभिलेख होने के कारण भी अत्यधिक मूल्यवान हैं. स्मृति शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है- एक अर्थ में यह वेद-वाङ्मय से इतर ग्रन्थों से सम्बन्धित है तथा संकीर्ण अर्थ में स्मृति तथा
धर्मशास्त्र एक हैं. स्मृतियों के प्रतिपाद्य विषय अत्यधिक
विस्तृत हैं. समाज और व्यक्ति के जीवन के प्रत्येक पक्ष से
सम्बन्धित प्रावधान इनमें उपस्थित हैं. इन प्रावधानों ने
भारतीय समाज पर अत्यधिक गहन और बहुपक्षीय प्रभाव डाला है. इन्होंने
एक ओर लोकमानस के दैनिक कार्यकलाप से लेकर सम्पूर्ण जीवन के विषय में आचार-संहिता का कार्य किया, दूसरी ओर भारतीय समाज की संरचना
में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है. अतः वर्तमान हिंदू
समाज की जटिल और स्तरीकृत संरचना को समझने के लिए स्मृतियों का अध्ययन आवश्यक है.
स्मृतियों में वर्णाश्रम-व्यवस्था, संस्कार, सामाजिक
कार्यकलाप, दण्ड, दायभाग आदि के प्रसंग
में शूद्रों तथा स्त्रियों के लिए विशेष प्रावधान किये गए हैं. इन सभी प्रावधानों में वर्ण-व्यवस्था एक ऐसा
प्रावधान है, जिसने भारतीय समाज को एक स्तरीकृत रूप दिया.
वर्ण-व्यवस्था ने ही क्रमशः जाति-व्यवस्था का रूप लेकर सामाजिक संरचना को और भी जटिल स्वरूप प्रदान किया.
जाति-व्यवस्था, भारत की
सामाजिक व्यवस्था में पृथक्करण और स्तरीकृत का सबसे प्रभावशाली और निर्णायक तत्व
है. इस व्यवस्था की जड़ें इतनी गहरी हैं कि इस समाज के
व्यक्तियों के जीवन का प्रत्येक क्षेत्र इससे प्रभावित और निर्धारित होता है.
समाज के प्रत्येक सदस्य के लिए एक जाति निर्धारित है, जिसका समाज की पदसोपानीय व्यवस्था में अपना एक अलग सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक स्थान है.
प्राचीनकाल से ही स्त्रियाँ जाति आधारित
भारतीय समाज की सबसे अधिक प्रभावित और कमज़ोर सदस्य हैं. जाति-व्यवस्था के फलस्वरूप उत्पन्न इस पिरामिडीय
व्यवस्था के सबसे ऊपर के स्तर पर ब्राह्मण पुरुष स्थित होता है तथा सबसे निचली
सीढ़ी पर शूद्र स्त्री. जहाँ सामान्य जातियों की स्त्रियाँ
आतंरिक (पारिवारिक) शोषण और लिंगगत
भेदभाव की शिकार होती हैं, वहीं शूद्र तथा अन्य पिछड़ी जाति
की औरतें जाति, वर्ग, धर्म आदि से
सम्बन्धित बहुकोणीय तथा बहुपक्षीय दबावों को झेलती हैं.
इस बात के ऐतिहासिक साक्ष्य उपस्थित हैं कि
वैदिक काल में स्त्रियों को पुरुषों के ही समान यज्ञोपवीत संस्कार एवं वेदाध्ययन
का अधिकार था. वर्ण-व्यवस्था उस
युग में उतनी कठोर नहीं थी, जितनी कि धर्मसूत्रों एवं
स्मृतियों में वर्णित है. किन्तु इतना स्पष्ट है कि शूद्र
तथा स्त्री दोनों ही वर्गों के लिए वेदों का अध्ययन कालान्तर में निषिद्ध हो गया.
धर्मसूत्रों एवं स्मृतियों में यह निषेध स्पष्ट है. यज्ञोपवीत संस्कार वेदाध्ययन तथा औपचारिक शिक्षा-दीक्षा
के लिए अनिवार्य संस्कार था. इसे निषिद्ध करने के कारण जहाँ
एक ओर स्त्री तथा शूद्र शिक्षा से दूर होते गए, वहीं दूसरी
ओर उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा का भी ह्रास होता गया. इसके
अतिरिक्त और भी अनेक प्रावधान हैं, जो इन दोनों ही वर्गों को
समाज के हाशिए पर धकेलने के लिए उत्तरदायी हैं.
यदि हम वर्तमान भारतीय सामाजिक संरचना पर
दृष्टि डालें, तो हमें स्तरीकरण के विभिन्न रूप दिखाई
देंगे, जिनमें ‘लिंग’ एवं ‘जाति’ प्रमुख हैं. स्तरीकरण तथा विभेदीकरण के ये रूप आपस में इस प्रकार संबद्ध हैं कि ये
शोषण के कई रूप उत्पन्न करते हैं. जाति और लिंग की इस अन्तः
संबद्धता (Intersection) के फलस्वरूप तीन शोषित वर्ग
अस्तित्व में आते हैं-सवर्ण स्त्री, दलित
पुरुष तथा दलित स्त्री.
कुछ दशक पहले तक समाजशास्त्री यह मानते थे कि
जाति और लिंग दो भिन्न-भिन्न अवधारणाएँ हैं. जाति समाजशास्त्र के अध्ययन का विषय है और जेंडर का अध्ययन नारीवादियों का
विषय है. यह समझा जाता था कि दलित वर्ग की समस्याएँ ‘जाति’
के अध्ययन से समझी जा सकती हैं, चाहे वह दलित स्त्री हो या
दलित पुरुष. इसी प्रकार स्त्री मात्र की समस्याएँ ‘लिंग-सम्बन्धी अध्ययन’ (gender study) के अध्ययन से सुलझ
जायेंगी, चाहे वह सवर्ण स्त्री हो अथवा दलित स्त्री. लेकिन समस्या यह होती थी कि ‘दलित स्त्री’ की समस्याओं के अध्ययन के लिए
अलग से कोई सिद्धांत विकसित न होने के कारण उनकी समस्याओं को समझने और उन्हें
सुलझाने में विचारकों, सिद्धांतकारों और सामाजिक
कार्यकर्ताओं को कठिनाई होती थी.
विगत कुछ दशकों में समाज में हुए सांस्कृतिक
और राजनीतिक परिवर्तनों के कारण यह माना जाने लगा है कि जाति और लिंग एक-दूसरे से गहन रूप से अन्तः संबद्ध हैं और इसका मूल धर्मशास्त्र, विशेषतः स्मृतियों के प्रावधानों में निहित है. एक
शूद्र स्त्री के ऊपर स्मृतियों के शूद्र-सम्बन्धी प्रावधान
भी लागू होते हैं और स्त्री-सम्बन्धी प्रावधान भी. इसका प्रभाव वर्तमान काल तक दिखता है. इसके कारण
दलित स्त्री की समस्याएँ दलित होने के कारण भी हैं और स्त्री होने के कारण भी.
अन्तः संबद्धता की अवधारणा ने भी भारतीय समाज
की जाति-लिंग संबद्धता के अध्ययन की ओर सिद्धांतकारों और शोध-कर्ताओं का ध्यान आकर्षित किया. यह सामाजिक नारीवादी
सिद्धांत तब सामने आया, जब पश्चिम की रेडिकल नारीवादियों के
एक वर्ग ने इस बात पर ध्यान देना शुरू किया कि परम्परागत पश्चिमी नारीवाद ने उनकी
समस्याओं को ठीक प्रकार से नहीं समझा है. उनके अनुसार यह समझ
सिरे से गलत है कि श्वेत महिलाओं और अश्वेत महिलाओं के अनुभव, परिस्थितियाँ और समस्याएँ एक समान हैं. इन
नारीवादियों ने यह माना कि अश्वेत नारियों का शोषण सिर्फ ‘स्त्री’ होने के नाते ही
नहीं होता, बल्कि उसके पीछे अनेक अन्य कारक जैसे- रंग, वर्ग आदि भी होते हैं. और
शोषण के ये सभी कारक आपस में अन्तः सम्बद्ध हैं. भारतीय
नारीवादियों ने अन्तः संबद्धता की इस अवधारणा को अपनाया और उसे दलित स्त्रियों की
समस्याओं के अध्ययन में उपयोग करना आरम्भ किया.
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