मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

पश्चिमी नारीवाद बनाम भारतीय नारीवाद

आमतौर पर नारीवाद की बात चलने पर यह प्रश्न सभी के मन में उठता है कि नारीवाद की पाश्चात्य अवधारणा का भारत में क्या उपयोग है? और ये प्रश्न कुछ हद तक वाजिब भी है. खासकर के तब जब नारीवाद पर खुद पश्चिम में ही कई सवाल उठने लगे हों.

दरअसल, पश्चिम में नारीवाद एक विचारधारा के रूप में उभरकर तब सामने आया, जब वहाँ की औरतों को मूलभूत अधिकार प्राप्त हो चुके थे. हालांकि इसके लिए उन लोगों ने अलग-अलग छिटपुट रूप से ही सही, लंबी लड़ाइयाँ लड़ी थीं, तब जाकर उन्हें मताधिकार जैसे नागरिक अधिकार, राजनीतिक और कुछ आर्थिक अधिकार प्राप्त हुए. चूँकि उन्हें मूलाधिकार मिल चुके थे, इसलिए उनके मुद्दे उससे बढ़कर यौनिकता, यौन स्वतंत्रता, स्त्रीत्व की अवधारणाओं, पुरुष के वर्चस्व आदि से जुड़ गए. इस विषय में उल्लेखनीय यह है कि वहाँ तब नारीवादी आन्दोलन उच्चवर्गीय श्वेत महिलाओं के कब्ज़े में ही था, निम्नवर्गीय अथवा अश्वेत नारियाँ इससे अलग थीं.

तत्कालीन पाश्चात्य नारीवाद के समक्ष जो मुद्दे थे, भारत जैसे देशों के लिए महत्त्वपूर्ण तो थे, पर ज्यादा नहीं. भारतीय समाज आज भी एक सामंतवादी ढाँचे वाला समाज है और यहाँ की नारियों के सम्मुख सबसे बड़ी समस्या प्राचीनता थी, जिसके कारण उन्हें नागरिक अधिकारों के अलावा अन्य अधिकार लगभग नहीं के बराबर प्राप्त थे. हालांकि यहाँ भी नारियों का एक वर्ग था, जिन्हें जीवन की मूलभूत सुविधाएँ प्राप्त थीं और वे पश्चिमी नारीवाद के प्रभाव में थीं. इस प्रकार भारत में भी कुछ नारीवादी विचारक उन्हीं मुद्दों को उठाने लगे, जो कि पाश्चात्य नारीवाद के मुद्दे थे और जिनका यहाँ की ग्रामीण सामाजिक व्यवस्था में कोई ख़ास उपयोग नहीं था.

नारीवादी अवधारणा में व्यापक बदलाव नारीवाद की तीसरी लहर के बाद आया. नारीवाद की तीसरी लहर मुख्यतः लैटिन अमेरिकी, एशियाई और अश्वेत नारियों से सम्बन्धित थी. इस लहर पर उत्तर आधुनिक विचारधारा का प्रभाव था, जो विभिन्नताओं का सम्मान करती थी. विभिन्नता की अवधारणा के फलस्वरूप ही इस बात पर विचार किया जाने लगा कि एक जैसे सिद्धांत से सभी वर्गों की नारियों की समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता है. भिन्न-भिन्न वर्गों की समस्याएँ अलग-अलग हैं और इसीलिये उनका समाधान भी अलग ढंग से खोजा जाना चाहिए. इस लहर ने भारतीय नारीवादी आंदोलन पर गहरा प्रभाव डाला. यहाँ भी दलित नारियों ने नारीवादी आंदोलन पर आरोप लगाना शुरू किया कि वह उच्चवर्गीय सवर्ण नारियों का प्रतिनिधित्व करता है और दलित, ग्रामीण और निर्धन महिलाओं को बाहर छोड़ देता है.

इसके फलस्वरूप नारीवादी विचारकों का ध्यान भारतीय समाज की विभिन्नता पर गया और इस बात पर विचार-विमर्श शुरू हो गया कि 'नारीवाद' को भारतीय समाज के अनुसार किस प्रकार ढाला जा सकता है? यह अस्सी-नब्बे का दशक था  और इसी समय भारतीय समाज के लिए 'ब्राह्मणवादी पितृसत्ता' शब्द का प्रयोग किया जाने लगा. यह शब्द हमारे समाज की जटिल सरंचना और उसके फलस्वरूप दलित नारियों के होने वाले तिहरे शोषण को व्यक्त करता है.  दलित नारी जाति, वर्ग और पितृसत्ता तीनों के द्वारा शोषण का शिकार होती है. उसे औरत होने के कारण उसके समाज का पुरुष शोषित करता है, गरीब मजदूर होने के कारण भू-स्वामी शोषित करता है और दलित होने के कारण उसे सवर्णों द्वारा अपमान सहना पड़ता है.

भारत में वर्तमान नारीवादी अवधारणा इस बात पर विचार करती है कि गरीब, ग्रामीण, दलित और अल्पसंख्यक महिलाओं की समस्याएँ अलग हैं और धनी तथा सवर्ण औरतों की अलग, अतः इन पर भिन्न-भिन्न ढंग से विचार करना चाहिए. वर्तमान नारीवाद नारी के साथ ही उन सभी दलित और शोषित तबकों की बात करता है, जो सदियों से समाज के हाशिए पर धकेल दिए गए हैं. यह मानता है कि स्वयं नारीवादी आंदोलन के अंतर्गत कई धाराएँ एक साथ काम कर सकती हैं, भले ही उनके रास्ते अलग-अलग हों पर उनका गंतव्य एक ही है. इसलिए सबको एक साथ आगे आना चाहिए.

26 टिप्‍पणियां:

  1. ये ५-६ प्रस्तर तो मैं एक ही साँस में पढ़ गया ..प्रवाहपूर्ण ,रोचक और सहज ही बुद्धिगम्य ..और भी लिखना था न ...सहसा अंतिम प्रस्तर आया और मन दुखी हो गया .. सहसा ही एक सुखद पठनीय अनुभूति पर गहरा आघात हो गया ...विविध परिप्रेक्ष्य सापेक्ष स्थितियों में से कुछ का तो और सोदाहरण विस्तार करना था न ....
    भारत के बहुत से सामजिक मुद्दों पर यहाँ सम्भ्रमता की स्थिति रहती है -और पुरुष -नारी दोनों ही कन्फ्यूज रहते हैं ..मैं अपने प्रिय विषय यौनिकता को ही लूं ....पुरुष तो तरह तरह की वैचारिक कुंठाओं के शिकार हैं ही ,नारियां उनसे दो कदम आगे ही हैं क्योंकि वे ज्यादातर पुरुष प्रधान समाज के दुराग्रहों ,ग्रंथियों को ही प्रोमोट करने का काम करती हैं ...चाहे वह प्रथम मिलन रात्रि के अक्षत यौनता के रक्त बिन्दुओं के प्रमाण की बात हो या फिर यौन शुचिता के बनाए मिथकों का गुणगान करते रहने का ...पर पुरुष प्रेम की कसमें तो होंगीं ,मन को तो सौपने की उन्मुक्तता फिर भी दिख जाती है मगर देह मक्का और काबा की पवित्रता ओढ़ लेती है -एक जैववादी के रूप में मैं इस धर्म संकट के पीछे की जैवीय मजबूरियों,निहितार्थों को समझता हूँ मगर इस अनेक विमर्श के बिन्दुओं में इस बिंदु पर भी पर्याप्त सम्भ्रमता बनी हुयी है ....मानस परिणीता बनने तक का उदात्त उदाहरण मिल जाएगा मगर दैहिक समर्पण ना बाबा ना ..उस पर तो एक ईश्वरीय एकाधिकार है ..नारीवाद की समझ रखने वाली कितनी ही भारतीय नारियों का यौनिक आनंद का पूरा टेरेन ही अभिशप्त सा क्यूं है ....? ( हे ये मैं क्या अनाप शनाप लिखे जा रहा हूँ ..कोई तो रोके मुझे ... :)

    बहुत सी बाते हैं आईये हम एक साझा प्रोजेक्ट करें -मेरे साथ एक शोध पत्र लिखना चाहेगीं ..जब चाहें ...कालो वधि निरवधि .

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  2. अरविन्द जी,
    यदि आपने सीमोन दा बुआ को पढ़ा है तो स्त्री का मनोविज्ञान भली प्रकार समझते होंगे. यौन-सम्बन्ध में जहाँ पुरुषों के लिए दैहिक प्रेम नब्बे प्रतिशत होता है और भावनात्मक प्रेम दस प्रतिशत स्त्रियों में इसके विपरीत होता है. परन्तु नारीवाद का 'यौनिकता' का मुद्दा इन सभी विमर्शों से परे है. नारीवादियों ने जब यौनिकता की बात की थी तो उसका अर्थ अंगरेजी के 'सेक्सुएलिटी' शब्द से था. यह मुद्दा स्त्री-पुरुष के संबंधों के जैविक पहलू से सम्बन्धित ना होकर सामाजिक और सांस्कृतिक पहलू से सम्बन्धित था.
    उनका कहना था कि पुरुष वर्चस्व वाली सामाजिक व्यवस्था स्त्रियों के ऊपर कई तरह से प्रतिबन्ध लगाती है. वह एक ओर तो पत्नी के रूप में घरेलू काम करती रहती है, जिसके आर्थिक महत्त्व को नगण्य समझा जाता है, दूसरी ओर पति की यौन इच्छाओं की पूर्ति करती है, इसमें पुरुष की ही इच्छा सर्वोपरि होती है और स्त्रियों की इच्छा को कुछ नहीं समझा जाता.
    चूँकि यह बहुत ही शास्त्रीय और अकादमिक बहस का विषय है, इसलिए मैं यहाँ इसके विषय में कुछ नहीं लिखती. भारतीय नारियों के समक्ष अभी भी नागरिक, राजनीतिक और आर्थिक अवसरों की समानता का मुद्दा सबसे प्रमुख है. ग्रामीण और निर्धन वर्ग की औरतों के समक्ष तो शिक्षा-दीक्षा, उचित पालन-पोषण आदि की ही समस्या प्रमुख है. इस समय हमारा फोकस उस पर है. इसके अतिरिक्त पुरानी रूढियों की जकड़न अभी भी भारतीय नारियों को जकड़े हुए है.

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  3. "चूँकि यह बहुत ही शास्त्रीय और अकादमिक बहस का विषय है,..."
    आराधना सही कह रही है आप ..बड़े जोखिम हैं इस मुद्दे को एक वर्जनाओं से ग्रस्त समाज में उठाने के ...वैसे भी मेरी भी जानकारी पल्लवग्राही ही है ..विशेषग्य मैं भी नहीं ...
    वैसे जितनी यौन कुंठायें नागरी संस्कृति में है उतनी शायद गाँव गिराव की औरतों में नहीं ..कुछ ऐसे ही अनुभव हैं मेरे ... :)

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  4. भारतीय परिप्रेक्षय में नारीवाद और नारीवादी आंदोलन की शुरूआत , उसका स्वरूप , सीमितता , और अब बिखराव या भटकाव कह लें , पर ही बहुत ही संतुलित और सधे हुए शब्दों में आपने अपनी बात रखी है । निश्वय ही सोचने पर विवश करती पोस्ट है । मगर मैं आज तक ये नहीं समझ पाया कि आखिर इन तमाम मुद्दो के बीच वो मुद्दे क्यों नहीं उठते जो नारी समाज द्वारा ही कहीं न कहीं ढोए जा रहे हैं ....हालांकि मुझे पता है कि तर्क होगा ..उसके लिए भी कहीं न कहीं ये पुरूषवादी समाज ही जिम्मेदार होगा । चलिए एक पल को ये भी मान लिया जाए तो फ़िर भी एक संशय तो मन में रह ही जाता है कि ,वो कौन सी स्थिति , वो कौन सा पायदान , वो कौन सा स्थान होगा जहां पहुंच और कितने प्रतिशत महिलाओं के पहुंचने से नारीवादी आंदोलन को एक नई दिशा मिल सकेगी ।

    इसके अलावा एक और प्रश्न ये है कि जब तक भारतीय महिला समाज पश्चिम के स्तर तक पहुंचेगा ..तो फ़िर क्या वही खतरा यहां भी नहीं उत्पन्न हो जाएगा जो आज वहां है । क्योंकि हम लाख दलील दें ...बलात्कार , तलाक , अविवाहित गर्भ आदि जैसे बहुत से मुद्दों का जवाब तो खुद पश्चिमी समाज ढूंढता फ़िर रहा है ....और वहां स्त्री की आत्मनिर्भरता भी इसे किसी भी तरह से रोक नहीं पा रही है । क्या ये जरूरी नहीं है कि पहले ये तय किया जाए कि ..इस आंदोलन की एक स्पष्ट मंजिल ये है ? कौन सी ..यही तो तय करना है । धन्यवाद

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  5. मुक्ति जी

    आपने अच्छी जानकारी दी निश्चित रूप से भारतीय नारी की समस्याए पश्चिम से काफी अलग है | यहाँ तक की भारत में रह रही नारियो की समस्याए भी काफी अलग अलग है | दलित नारी की जो समस्या है वो दूसरी है और शहर में रह रही एक घरेलु मध्यवर्गीय नारी की अलग और कामकाजी की अलग | भारतीय नारीवाद को इन्हें अलग ढंग से समझना होगा और इनका एक अलग समाधान देना होगा | पर मुझे नहीं लगता है की किसी आन्दोलन की कोई मंजिल होती है पढ़ाव होता है एक पड़ावपार करने के बाद दूसरा पड़ाव आ जाता है समय के साथ नई समस्याए आती है और फिर उनसे लड़ना होता है |

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  6. अच्छा आलेख ।

    ( "नारीवादी आंदोलन के अंतर्गत कई धाराएँ एक साथ काम कर सकती हैं, भले ही उनके रास्ते अलग-अलग हों पर उनका गंतव्य एक ही है.")
    क्या यह गंतव्य निर्धारित कर लिया गया है ? क्या गंतव्य सबके लिए एक समान हो सकता है , विभिन्न आर्थिक, सामाजिक, भाषा इत्यादि के परोपेक्ष्य में।

    जब भी नारी की बात होती है तो उसके साथ शारीरिक पक्ष को जोड़ना क्या आवश्यक है । क्या यह एक नितांत व्यक्तिगत बात नहीं है ।

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  7. घायल की गत घायल जाने:

    नारीवाद की फ़ाइनल आचारसंहिता अभी बनना बाकी है...
    बेहद complexed परिस्थिति है...
    नारी अपने श्रम, अपना ममत्व, अपनी सहिष्णुता के चलते समाज में समायोजन
    सदियों से बनाए हुए है... अपनी दारूण परिस्थितियों में भी वे इतर
    की अपेक्षा कम ही रखती है. वे किसी का क़र्ज़ ज्यादा वहन
    नहीं कर सकती और वह जानती है पुरुष की सहायता ज़्यादातर
    'Give and Take' वाली होती है.

    शहरी मध्यम वर्ग या उच्च वर्ग की महिलाओं का रवैया भी
    इन दलित, गरीब कामगार महिलाओं के प्रति रूक्ष व हिकारत भरा... वे इन
    गरीब महिलाओं का कुछ हद तक पोषण करती है क्यूँ की उन्हें एक रूमाल तक
    धोना दरकार नहीं...१०००-१५०० रुपये तो एक माह के बहुत हो गए उनके लिए,
    हमारे जैसे १० लाख की आबादी वाले शहरों में...जबकि इन
    शहरी BPLs के खर्च टी.वी. टेप बिजली, सामाजिक आचार-व्यवहार, शादी-त्यौहार
    आदि पर काफी बढ़ गए है... फ़िर उनकी अपनी समाजिक भीषण जीवनचर्या...
    बेहद रोगिष्ठ आवास, झूठन, बचाकूचा ऐंठन खाना और बीमारी में
    पांच/दस रूपये वाला झोला छाप डॉक्टर... पढ़ाई की संभावनाएं
    दूर-दूर तक नहीं... यहाँ इन तबक़ों में स्त्री-विमर्श संचार भी शून्यवत...

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  8. नारी की बात के साथ शारीरिक पक्ष को जोड़ना आवश्यक है.
    नितांत व्यक्तिगत बात भी एक पितृसत्तात्मक छलावा है...जहाँ
    स्त्री की जायज़ इच्छाओं का गला घोंटा jaata है...

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  9. अजय जी,
    आपकी चिंता ही नारीवाद की चिंता भी है. आखिर हम भी तो इन्हीं सवालों के जवाब ढूँढ रहे हैं. अंशुमाला जी की बात इस सन्दर्भ में बिल्कुल सही है कि इसकी कोई निश्चित मंजिल नहीं है. आपने जिन समस्याओं का उल्लेख किया है वो सांस्कृतिक संक्रमण का नतीजा है. तेजी से विकास करते समाज में, त्रियामी संचार क्रान्ति के इस युग में इस प्रकार की समस्याएँ तो होंगी ही. मैं ये मानती हूँ कि बालात्कार ज्यादा बड़ी समस्या है और बाकी दोनों समस्याएँ संक्रमण कालीन समाज की समस्या है. इनके लिए स्त्री-पुरुष दोनों ज़िम्मेदार हैं.
    मैंने पहले ही ये कहा कि अभी हमारे सामने और भी चुनौतियां हैं, जिनमें उचित शिक्षा, उचित पोषण, आर्थिक अवसर आदि हैं.

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  10. महेश जी,
    आपकी बात का जवाब GGS ने दे दिया है.

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  11. @मुक्ति
    अब ये GGS कौन हैं यह तो शायद आप ही जानती होगी।
    मुझे उचित नहीं लगता एक छिपे हुए व्यक्ति से सवाद करना।
    जब लक्ष्य निर्धारित नहीं हो तो दिशाहीनता की अवस्था आने की संभावना होती है ।
    मेरी पूरी सहमति है आपकी उठाई गयी बातों से लेकिन कोई भी प्रयास अपने लक्ष्य तक सही रूप से नहीं पहुंचता जबतक लक्ष्य ठीक से निर्धारित न हो ।
    स्त्री के शारीरिक रूप का संदर्भ शायद मैं समझा नहीं पाया।

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  12. @GG Shaikh
    ( "नारीवादी आंदोलन के अंतर्गत कई धाराएँ एक साथ काम कर सकती हैं, भले ही उनके रास्ते अलग-अलग हों पर उनका गंतव्य एक ही है.")
    क्या यह गंतव्य निर्धारित कर लिया गया है ? क्या गंतव्य सबके लिए एक समान हो सकता है , विभिन्न आर्थिक, सामाजिक, भाषा इत्यादि के परोपेक्ष्य में।

    GG Shaikh - नारीवाद की फ़ाइनल आचारसंहिता अभी बनना बाकी है...
    बेहद complexed परिस्थिति है...

    आप ब्लॉग में दिये कमेन्ट का बज में जवाब दे रहे हैं बज में आप GG Shaikh हैं और ब्लॉग में GGS।
    ये दो रूप रखने के क्या कारण हैं ये तो आप ही बता सकते हैं । GGS के प्रोफ़ाइल में कोई जानकारी नहीं है और GG Shaikh में भी पूरी नहीं है ।

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  13. मुक्ति फ़ेमिनिस्ट आंदोलन की दिशा को समझाने की कोशिश में हैं. जो समझने की बात है. मुझे अच्छा लगा परिपक्व बहस को देख कर

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  14. मैंने आपके ११ अक्टूबर और २२ सितम्बर वाले दो लेख पढ़े.नारी को हक़ दिलाने के पक्ष में आप लिख रही हैं,ये अच्छी बात है,हालाँकि अधिकतर लोग उन्हें हक़ दिलाने के पक्ष में हैं,तभी नारी प्रगति में काफी आगे तक निकल गई है.परन्तु हक़ और आज़ादी पाने का मतलब ये नहीं की पश्चिमी सभ्यता की तर्ज़ पर टीवी के ज़रिये नंगापन परोसा जाये और दूसरी नारी उसे defend करे सिर्फ इसलिए की नंगापन परोसने वाली एक नारी है.
    आजकल इन्ही कारणों के चलते माँ-बाप और बच्चे साथ साथ टीवी नहीं देख पाते.

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  15. हर बदलाव के साथ समस्याएं भी आती ही हैं आवश्यकता है उन पर विचार करके निदान ढूढने की ! बदलते दौर मैं बौद्धिक क्रांन्ति ने नारी को शक्ति संपन्न अवश्य किया है मगर अभी भी गंतव्य बहुत दूर है !
    हाँ ,आशा और विश्वास की किरणें साफ़ दिखाई दे रही हैं !
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ

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  16. "समस हिंदी" ब्लॉग की तरफ से सभी मित्रो और पाठको को
    "मेर्री क्रिसमस" की बहुत बहुत शुभकामनाये !

    ()”"”() ,*
    ( ‘o’ ) ,***
    =(,,)=(”‘)<-***
    (”"),,,(”") “**

    Roses 4 u…
    MERRY CHRISTMAS to U…

    मेरी नई पोस्ट पर आपका स्वागत है

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  17. नारियों अधिकारों के लिए आपका प्रयास सराहनीय है ...शुक्रिया

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  18. Mukti ji jis gahrai se aap likhti hain naari par, jise ki is bharat desh ki "Maat Shakti" kaha jata hai us par shayad hi aapse behtar likha hua maine kabhi padha ho.

    Nav varh ki hardik shubh kaamanaein

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  19. काफी जानकारी मिली आपके ब्लॉग पर आ कर....में अनभिज्ञ थी कुछ विशेष तथ्यों से.... जो शायद एक नारी होने के नाते मेरा जान ना आवश्यक था.... पर साथ ही में यहाँ महेश जी बात से सहमत भी हुं...नारीवाद और भोग हम जाने क्यों इन दो शब्दों को अलग अलग कर के नहीं देख पाते......यही शायद हमारी सबसे बड़ी कमजोरी हैं.....जिस दिन हम ऐसा कर पाएंगे....हम नारी आन्दोलन का पड़ाव पार कर जीत मनाएंगे,,!!!

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  20. आराधना जी ! प्रथम बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ ......कुछ शीघ्रता में हूँ ....बाद में फिर आऊँगा ......अभी केवल दो बातें कहूंगा, १- मेरा अनुभव रहा है कि नारी के शोषण में नारियों की भी महत्वपूर्ण भूमिका रहती है ...केवल पुरुषों की ही नहीं. २- स्थितियां अब बदलती जा रही हैं अब दलित लोग ब्राह्मणों को प्रताड़ित करने लगे हैं .....मेरे पास कुछ नहीं अनेकों प्रमाण हैं इसके ....यहाँ छत्तीसगढ़ में आये दिन यह होता रहता है.
    स्त्री विमर्श पर गहन चिंतन की आवश्यकता है ......एक सही दिशा में सार्थक प्रयास के लिए बधाई.

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  21. सार्थक, सुन्दर ..ब्लॉग ...संदेशपरक पोस्ट ..शुभकामनायें

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  22. सटीक लेख ..हर वर्ग की समस्याएं अलग अलग हैं ..समाधान भी अलग अलग होने चाहिए ..अच्छी प्रस्तुति

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  23. बेहतरीन आलेख ...........मुक्ती जी को बधाई । आशा है कि ऐसे ही अन्य लेखों के माध्यम से हमें जानकारी प्रदान करेंगी । बहुत बहुत बधाई

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बहस चलती रहे, बात निकलती रहे...